Author(s):
Vrinda Sengupta
Email(s):
Email ID Not Available
DOI:
Not Available
Address:
Dr.(Mrs.) Vrinda Sengupta
Asstt.Prof. (Sociology), Deptt.of Sociology, Govt.T.C.L.P.G. College, Janjgir (C.G.)
*Corresponding Author
Published In:
Volume - 4,
Issue - 1,
Year - 2016
ABSTRACT:
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में धार्मिक आन्दोलन का प्रबलतम रूप हम बौद्ध धर्म की शिक्षाओं तथा सिद्धांतों में पाते है जो पालि ‘लिपितक’ में संकलित है,जैन परंपरा को ईसा की पाॅचवी शताब्दी में लिखित रूप प्रदान किया गया, इस कारण बौद्ध धर्म से संबंद्ध पालि साहित्य वैदिक ग्रंथों के बाद सबसे प्राचीन रचनाओं की कोटि में आता है। बौद्ध धर्म के समुचित ज्ञान के लिए इस धर्म के श्रिरतन - बुद्ध धर्म तथा संघ तीनों का अध्ययन आवश्यक है।
शिक्षा मनुष्य के सर्वागिंण विकास का माध्यम है इससे मानसिक तथा बौद्धिक शक्ति तो विकसित होती है भोतिक जगत का भी विस्तार होता है। गुरूकुल परंपरा में चली आ रही प्रचीन शिक्षा पद्धति का बौऋ काल में परिवर्तन हुआ और अब मठो तथा बिहारों में दी जाने लगी। आत्मसंयम एवं अनुशासन की पद्धति द्वारा व्यक्तित्व के निर्माण पर बल दिया जाने लगा। शुद्धता एवं सरल जीवन इसका प्रमुख उद्देश्य था। गुरू शिष्य के बीच सद्भावना और सन्मार्ग था। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को समाज का योग्य सदस्य बनाने और फिर भारत को मजबूत बनाने का प्रयास किया जाता था।
शिक्षा के विशय और पद्धति बौद्ध काल में काफी परिवर्तित हो चुकी थी। स्त्री शिक्षा पर भी ध्यान दिया जाने लगा।
Cite this article:
Vrinda Sengupta. बौद्धकालीन शिक्षा पद्धति. Int. J. Ad. Social Sciences 4(1): Jan. - Mar., 2016; Page 07-09.
Cite(Electronic):
Vrinda Sengupta. बौद्धकालीन शिक्षा पद्धति. Int. J. Ad. Social Sciences 4(1): Jan. - Mar., 2016; Page 07-09. Available on: https://ijassonline.in/AbstractView.aspx?PID=2016-4-1-2