राष्ट्र निर्माण में सतत विकास तथा पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन

 

सीमा जायसी1, आरिफा परवीन2

1सहा.प्राध्यापक (अंग्रेजी) शासकीय डॉ. इंद्रजीत सिंह महाविद्यालय अकलतरा, जांजगीर चांपा छत्तीसगढ़

2सहा. प्राध्यापक (प्राणीशास्त्र) शासकीय डॉ. इंद्रजीत सिंह महाविद्यालय अकलतरा,

जांजगीर चांपा छत्तीसगढ़

*Corresponding Author E-mail: jaysiseema34@gmail-Com

 

ABSTRACT:

संधारणीय विकास अथवा सतत विकास (sustainable developmentt) विकास की वह अवधारणा है जिसमें प्राकृतिक संसाधन एवं मानव के मध्य सामंजस्य स्थापित हो सके। जल, वायु भूमि, मकान, वृक्ष अग्नि जैव विविधता आदि प्राकृतिक संसाधन है। सतत् विकास की नीतियां बनाते समय इस बात का विशेष ध्यान दिया जाता है कि मानव की केवल वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित हो वरन् अनंतकाल तक मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति हो। इससे प्राकृतिक संसाधन एवं प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा पर विशेष बल दिया जाता है, जब से मनुष्य का जन्म इस पृथ्वी में हुआ है तब से लगातार अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधन यानि जल, भूमि, पशु, वन, जानवर एवं जन का उपयोग करता रहा है किंतु औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, नगरीयकरण एवं बढ़ती हुई जनसंख्या की मूलभूत का विलासतापूर्ण जीवन यापन हेतु इन संसाधनों का अनुचित दोहन होने से इन पर दबाव बढ़ा है और वर्तमान में संपूर्ण जीव जगत का अस्तित्व ही खतरे में है। संधारणीय विकास अथवा सतत् विकास (sustainable developmentt) विकास की वह अवधारणा है जिसमें विकास की नीतियां बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि मानव की केवल वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित हो सके वरन् अनंतकाल मानव आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित हो सकें। इसमें प्राकृतिक पर्यावरण की सुरक्षा पर विशेष बल दिया जाता है।सतत् विकास सामाजिक आर्थिक विकास की वह प्रक्रिया है जिसमें पृथ्वी की सहनशक्ति के अनुसार विकास की बात की जाती है। यह अवधारणा 1960 के दशक तक विकसित हुई जब लोग औद्योगिकरण के पर्यावरण पर हानिकारक प्रभावों से अवगत हुए। सतत विकास का उद्भव प्राकृतिक संसाधनों की समाप्ति तथा उसके कारण आर्थिक क्रियाओं का उत्पादन प्रणालियों के धीमे होने या उनके बंद होने के भय से हुआ। यह अवधारणा उत्पादन प्रणालियों पर नियंत्रण करने वाले कुछ लोगों द्वारा प्रकृति के बहुमूल्य तथा सीमित संसाधनों के लक्ष्यपूर्ण दुरूपयोग का परिणाम है। सतत् विकास कोयला, तेल तथा जल जैसे संसाधनों के दोहन के लिए उत्पादन तकनीकी औद्योगिक प्रक्रियाओं तथा विकास की उचित नीतियों के संबंध में दीर्घकालीन योजना प्रस्तुत करता है।

 

KEYWORDS: सतत विकास, प्राकृतिक संसाधन एवं प्राकृतिक पर्यावरण, सतत विकास की नीतियां अधौगिकी करण, अस्तित्व।

 


 


 

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सतत् विकास का अर्थ एवं परिभाषा

सतत् विकास से अभिप्राय आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण को सुरक्षित करना है। इसका उद्देश्य वर्तमान और भविष्य की आने वाली पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक संसाधन को सुरक्षित रखना है। सतत् विकास (सतत शीलता) का अर्थ एक ऐसी स्थिति से है जो हमेशा के लिए बनी रहे।

 

पर्यावरण संरक्षण एवं विकास का आपस में बहुत गहरा संबंध है, वो इसलिए क्योंकि हमारे मानव विकासके मौजूदा प्रतिमान ने पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचाया है। हमें पर्यावरण का संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण की संग्रहित करने की आवश्यकता है।

 

मानव सृष्टि के प्रारंभ से ही विकास कर रहा है। उसके विकास का उसके चारों ओर के वातावरण पर सीधा प्रभाव पड़ता है।क्षति, जल, पावक, गगन, समीर, पंचतत्व मिल बना शरीर, यह उक्ति इस बात का द्योतक है कि ये तत्व के जहां एक ओर मनुष्य के विकास को प्रभावित करत हैं, वहीं दूसरी तरफ मनुष्य को पृथ्वी पर सबसे सफल प्राणी बनाने में सहायक भी है। मानव क्षति का अस्तित्व पूर्णतः पर्यावरण पर निर्भर है और पर्यावरण की किसी भी प्रकार की उपेक्षा स्वयं के अस्तित्व की उपेक्षा है। इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए भारतीय विद्ववानों ने अपने आसपास के वातावरण के प्रति मित्रवत् व्यवहार को अत्यंत महत्व दिया।

 

·         पर्यावरण के सतत विकास को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित सिद्धांत आवश्यक हैंः

·         पारिस्थितिक अखंडता की रक्षा करनाः जैव विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा करना।

·         संसाधनों का कुशल उपयोग करनाः प्राकृतिक संसाधनों का जिम्मेदारी से उपयोग करना और अपशिष्ट को कम करना।

·         नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करनाः गैर-नवीकरणीय जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करना और सौर, पवन और जल विद्युत जैसी नवीकरणीय ऊर्जा तकनीकों को बढ़ावा देना।

·         प्रदूषण को कम करनाः वायु, जल और भूमि प्रदूषण को कम करने के लिए उपाय करना, जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना भी शामिल है।

·         सामाजिक न्याय को बढ़ावा देनाः पर्यावरणीय लाभों और लागतों का उचित वितरण सुनिश्चित करना, और कमजोर समुदायों को पर्यावरणीय निर्णय लेने में शामिल करना।

 

सतत विकास के लाभ

·         पर्यावरण का सतत विकास निम्नलिखित लाभ प्रदान करता हैरू

·         जलवायु परिवर्तन को कम करनाः ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करके और कार्बन सिंक को संरक्षित करके जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना।

·         प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा करनाः भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों, जैसे जल, वन और खनिजों को संरक्षित करना।

·         मानव स्वास्थ्य में सुधार करनाः प्रदूषण को कम करके और स्वस्थ पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने से मानव स्वास्थ्य में सुधार करना।

·         आर्थिक विकास को बढ़ावा देनाः नवीकरणीय ऊर्जा और हरित प्रौद्योगिकियों में निवेश करके आर्थिक विकास को बढ़ावा देना।

·         सामाजिक स्थिरता को बढ़ावा देनाः पर्यावरणीय न्याय को बढ़ावा देकर और कमजोर समुदायों को सशक्त बनाकर सामाजिक स्थिरता को बढ़ावा देना।

 

पर्यावरणीय सततता की चुनौतियाँ

·         पर्यावरणीय सततता को प्राप्त करना कई चुनौतियों का सामना करता है, जिनमें शामिल हैंरू

·         जनसंख्या वृद्धिः बढ़ती जनसंख्या प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव डालती है और पर्यावरणीय क्षरण में योगदान देती है।

·         आर्थिक विकास के प्रतिमानः आर्थिक विकास के पारंपरिक मॉडल अक्सर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं।

·         तकनीकी सीमाएँः कुछ नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियाँ अभी भी विकास के अधीन हैं और पूरी तरह से जीवाश्म ईंधन को प्रतिस्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

·         सार्वजनिक जागरूकता और भागीदारीरू जनता में पर्यावरणीय मुद्दों के बारे में जागरूकता और भागीदारी की कमी सतत विकास के प्रयासों को बाधित कर सकती है।

 

पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and definition of environment)

पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना हैपरि और आवरण परि का अर्थ चारों ओर तथा आवरणका अर्थ है ढंकने वाला। अंग्रेजी में मदअपतवदउमदज शब्द में मदअपतवद का अर्थ है घेरना ;मदबपतबसमद्ध तथा उमदज का अर्थ है चारों ओर से ;ेनततवनदकद्ध। वस्तुतः मदअपतवदउमदज शब्द मदअमसवचम शब्द का पर्याय है। कुछ विचारक मदअपतवदउमदज शब्द की अपेक्षा (प्राकृतिक अवास) शब्दया (वातावरण या स्थिति) शब्द का प्रयोग करते है जिसका अभिप्राय परिस्थिति या परिवृत्ति (जवजंस ेमज िेनततवनदकपदहे) से है।

 

इस प्रकार पर्यावरण एक समष्टि है और मानव इस समष्टि का एक अंग है। दोनों का ही अस्तित्व स्वतंत्र नहीं है बल्कि दोनों ही एक दूसरे पर निर्भर हैं।

 

पर्यावरण प्रकृति का वह भाग है जो किसी जीव या जीव समुदाय को परिकृत करता है। बेस्टर ;ूमेजमतद्ध के शब्दों श्मदअपतवदउमदज पे जीम ेनउ जवजंस िंसस मगजमतदंस बवदकपजपवद ंदक पदसिनमदबमे मििमबजपदह जीम सपमि ंदक कमअमसवचउमदज िवतहंदपेउश् अर्थात् प्राणियों के जीवन एवं विकास को प्रभावित करने वाली सभी बाह्रय प्रभावों एवं दशाओं का समुच्चय पर्यावरण है। स्पष्ट है कि पर्यावरण विभिन्न प्रकार के अनेक तत्वों जैसे वायु, जल, मिट्टी, धूप, जीव आदि का सम्मिश्रण है।

 

इस प्रकार पर्यावरण किसी प्राणी समुदाय का यह प्रतिक्रियात्मक तंत्र है जिसमें अबाध्य विभिन्न तत्व उसके जीवन चक्र के किसी भी अवधि में उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं तथा उसके जीवन प्रारूप को प्रभावित करते हैं।

 

चित्ररू 1 पर्यावरण के विभिन्न तत्व के पारस्परिक संबंध

 

जैव विविधता का संरक्षण ¼Conservation of Biodiversity½

पर्यावरण संतुलन के लिए जैव विविधता संरक्षण आवश्यक है एवं विविधता के अंतर्गत जीव जंतुओं एवं पौधों की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं। जिस क्षेत्र में जितनी अधिक जैव विविधता पाई जाती है वहां पारिस्थिति संतुलन (मबवसवहपबंस इंसंदबम) उतना ही अच्छा होता है। इस जैव विविधता में कमी होने पर पर्यावरण में परिवर्तन होता है इससे परिस्थिति की असंतुलन बढ़ती है।

 

वैज्ञानिकों के मतानुसार पृथ्वी को ज्ञात 4 करोड़ प्रजातियों में से प्रतिवर्ष लगभग 10 हजार प्रजातियों का मानव कृत्यों जैसे- औद्योगिक विकास नगरीकरण, मृदा अपरदन, कृषि क्षेत्र में विस्तार, कृषि उत्पादन में वृद्धि, बांध एवं जलाशयों का निर्माण, जीव जंतु का भोजन के रूप में ग्रहण आदि के कारण विलोपन हो रहा है। इसी तरह सागरीय जीवों की प्रजातियां भी सागरीय जल प्रदूषण के कारण नष्ट हो रही है।

 

जैव विविधता के प्रकार

अनुवांशिक विविधता रू- इसका संबंध किसी प्रजाति विशेष में पाए जाने वाले जीवों की विविधता से है इसमें जनसंख्या में अनुवांशिक विभिन्नता को सम्मिलित किया जाता है।

 

प्रजाति विविधता रू- यह एक समुदाय के भीतर देखी जाने वाली विविधता है किसी प्रदेश विशेष में मिलने वाले जीवों की विविधता तथा विभिन्न प्रकार के जीवन की संख्या प्रजाति विविधता कहलाती है।

 

पारिस्थितिकी विविधता रू- पृथ्वी पर अनेक प्रकार के पारिस्थितिक तंत्र पाए जाते हैं पारिस्थितिकी की विविधता के अंतर्गत आवास, पोषण स्तर, ऊर्जा प्रवाह इत्यादि विविधताओं का समावेश होता है।

 

चित्रः 2 जैवविविधता के प्रकार

 

पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन ¼Environment Protection and Conservation½

मनुष्य और उसके पर्यावरण के बीच आदिकाल से चल रही अंतक्रिया के फलस्वरूप कालांतर में पर्यावरण का ह्रास प्रारंभ हुआ है और आज यह स्थिति है कि पर्यावरण भयानक संकट के दौर से गुजर रहा है। इक्कसवीं सदी (21 वीं) सदी में वर्षाकाल में पर्यावरण संकट एक विश्वव्यापी संकट बनकर सामने खड़ा है। पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन हेतु पर्यावरण जागरूकता अत्यंत आवश्यक है। पर्यावरण प्रदूषण केवल एक समाज देश की समस्या नहीं अपितु पूरे विश्व की समस्या है। पर्यावरण संकट विशेषकर पर्यावरण प्रदूषण या संकट आज एक ज्वलंत विषय बन गई है। पिछले कुछ वर्षों में जन सामान्य में पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति जागरूकता में निश्चित ही वृद्धि हुई है।

 

संरक्षण का अर्थ, परिभाषा एवं उद्देश्य ¼Meaning of Definition of Conservation½

संरक्षण शब्द का मूल अंग्रेजी पर्याय कंजर्वेशन (बवदेमतअंजपवद) लेटिन भाषा केबवदअर्थात जवहमजीमत’ (साथ) तथा ेमतअंतम अर्थातहनंतक’ (रथा) से बना है जिसका सामान्य अर्थ सुरक्षा या संरक्षण है। प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के भविष्य को दृष्टिगत रखते हुए उचित दर निर्धारित करना है। स्पष्ट है कि संसाधनों का उचित एवं सुनियोजित उपयोग ही संरक्षण है। प्रकृति हमें अनेक संरसधन प्रदान करती है किंतु यदि उनका यथोचित उपयोग नहीं किया गया तो केवल विकास की गति रूक जाएगी अपितु हमारी भावी पीढ़ी का भविष्य भी अंधकारमय हो जाएगा। यह विचार प्रारंभ में मानव मस्तिष्क में नहीं आया क्योंकि उस समय संसाधन उपयोग सीमित था किंतु संरक्षण की आवश्यकता के मूल कारण हैं

1. तीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि।

2. प्रदूषण।

3. उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम उपयोग।

 

संरक्षण की परिभाषा ¼Definition of Conservation½

çk—frd lalkèkuksa ds n{kÙke rFkk fgrdkjh mi;ksx ds :i esa dh tkrh gSA okLro esa laj{k.k os ç;kl gS fd ftuls çk—frd lalkèkuksa dk foosdiw.kZ mi;ksx ¼rational euploitation½]ifjj{k.k  ¼preservation½ rFkk uohuhdj.k ¼renewal½ laHko gSA laj{k.k ls rkRi;Z çk—frd lalkèkuksa dk mfpr ,oa vko';d mi;ksx ls gS ftlds ekè;e ls ge u dsoy orZeku esa mudk mi;ksx dj ldrs gSa vfirq Hkfo"; esa Hkh mi;ksx gsrq vkÜoLr gks ldsA ftejesu ¼Gemerman½ ds vuqlkj Þlaj{k.k ls rkRi;Z orZeku ih<+h o Hkfo"; dh ih<+h gsrq R;kx gSA

 

संरक्षण की आवश्यकता का मूल कारण

1) तीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि एवं पर्यावरण ¼Population and Pollution Problem½

विश्व की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। इसके विकास के कारण एक ओर तो मानव संसाधन में वृद्धि हुई है। आज इक्कसवीं सदी (21 वीं सदी) में लगातार बढ़ती जनसंख्या के कारण पर्यावरण में ऐसे परिवर्तन हो रहे हैं कि भविष्य भयावह दिख रहा है। 02 अक्टूबर, 2017 गणना के अनुसार भारत की अनुमानित जनसंख्या 134.29.4.853 है जबकि पूरे विश्व की जनसंख्या का 17.74 है। जनसंख्या विस्फोट के कारण पर्यावरण प्रदूषण काफी बढ़ रहा है क्योंकि इतनी बड़ी जनसंख्या को खिलाने को लिए खेतों में अंधाधुंध उर्वरक, कीटनाशकों का उपयोग होने लगा है जिसके कारण मिट्टी, पानी, वायु प्रदूषित हो चुका है। इतना ही नहीं आज पूरे विश्व में औद्योगिकीकरण के साथ-साथ हरित क्रांति की गूंज है। औद्योगिकीकरण के कारण पर्यावरण का तापमान बढ़ रहा है जिसका उदाहरण हमारा बिलासपुर शहर है। वर्तमान में एन.टी.पी.सी. उद्योग स्थापित होने, शहरीकरण एवं सड़क चौड़ीकरण होने के कारण पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। उस अनुपात में तो पेड़ पौधे लगाए जा रहे हैं और ही इस ओर ध्यान दिया जा रहा है जिस कारण वर्षा भी नहीं हो रही है और शहर का तापमान दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है जो निश्चित ही चिंता का विषय है। प्रदूषण अब एक देश विशेष की समस्या नहीं है बल्कि पूरे विश्व की समस्या बन गई है। विज्ञान की जितनी उन्नति हुई है, उतनी ही मात्रा में वह अभिशाप बन कर सामने आया है। प्रदूषण से विश्व की आबादी प्रभावित हो रही है और आबादी से पर्यावरण यह कैसी विडंबना है। जनसंख्या इतनी बढ़ गई है कि बिजली, पानी, आवास, परिवहन, संचार शिक्षा, स्वास्थ्य सफाई और मनोरंजन के साधन इत्यादि की मांग बढ़ने से उसकी पूर्ति भी बढ़ रही है और कूड़े-कचरे के ढेर लगने से या नदी, समुद्र में बहाने से प्रदूषण फैल रहा है अगर बढ़ती गई आबादी को नहीं रोका गया तो सारी धरती रेगिस्तान दिखेगा और हमारा विनाश निश्चित है।

 

2) उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम उपयोग:-

मानव की अधिक और अधिक उत्पाद वृद्धि प्राप्त करने की अतृप्त अभिलाषा ने स्वर्गीय पृथ्वी को नरकमय बना डाला है। निश्चित परिधि वाली पृथ्वी पर भीतिक अभिवृद्धि (चीलेपबंस हतवूजी) सर्वदा के लिए जारी नहीं कर सकती है। मानव जनसंख्याविस्फोट और जैव मंडल पर इसके बदले अचयनित हस्तक्षेप मानव की उत्तरजीविता के लिए खतरनाक बन गए हैं। वास्तव में मानव जनसंख्या का विस्फोट सर्वाधिक खराब एवं मूल किस्म का प्रदूषण है। सभी प्रमुख पर्यावरणीय समस्याएं जो भावी मानव जाति हेतु खतरा उत्पन्न कर रही हैं वे मूलतः एक ही तत्व से उत्पन्न हो रही है- वह तत्व है जनसंख्या बाहुल्य। बीसवीं (20) सदी के पूर्व तक यह जनभावन थी, “प्रगति का तात्पर्य जनसंख्या, अधिक जनसंख्या का तात्पर्य अधिक प्रगति और अधिक प्रगति का तात्पर्य संपन्नता। बीसवीं (20 वी) शताब्दी के अंत से स्थिति विपरीत हो गई। जनसंख्या का तात्पर्य है-उत्पाद वृद्धि अधिक जनसंख्या का तात्पर्य है-अधिक उत्पाद वृद्धि, अधिक उत्पाद वृद्धि का तात्पर्य है प्राकृतिक संसाधनों ज्यादा शोषण, प्राकृतिक साधनों से ज्यादा शोषण का तात्पर्य है पर्यावरण असंतुलन और परिणामस्वरूप उत्पन्न स्वयं मानव जाति को खतरा। अनियंत्रित जनसंख्या विस्फोट एवं मानव स्वास्थ्य की बदतर होती स्थिति सभी आधुनिक मानव के मस्तिष्क रहित क्रियाकलापों का ही परिणाम है।

 

पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन का उद्देश्य ¼Objective of Environment Protection and Conservation½

संरक्षण का मुख्य उद्देश्य है संसाधनों का उचित उपयोग केवल वर्तमान के लिए अपितु भविष्य को दृष्टिगत रखते हुए करना संरक्षण के विविध पक्षों में आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक पक्ष होते हैं। आर्थिक प्रगति एवं विकास के लिए संसाधनों का प्रयोग होता है। आर्थिक प्रगति एवं विकास के लिए संसाधनों का प्रयोग होता है। यह प्रयोग जब प्रतिस्पर्धा का रूप ले लेता है तो विनाशक बन जाता है। यद्यपि अर्थशास्त्री वर्तमान लाभ को दृष्टिगत रखते हुए उसके अधिकतम लाभ की स्वीकृति प्रदान करते हैं किंतु भविष्य को देखना भी उनका उत्तरदायित्व है। अतः संरक्षण आवश्यक है। सामाजिक परिवेश में संरक्षण आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य है क्योंकि हमें वर्तमान समाज के साथ ही भविष्य के साथ भी न्याय करना है। वर्तमान में विश्व में संरक्षण का राजनीतिकरण अधिक हो गया है। उपनिवेशवाद ने जहां शोषण के विचार को प्रबलता दी वहीं इसकी राजनीति संरक्षण पर जोर दे रही है किंतु अपवाद स्वरूप संसाधन अपव्यय में भी सहायक है। वास्तव में संरक्षण के प्रति राजनीतिक जागरूकता वर्तमान युग में नई आशा की किरण है कि हम भविष्य के प्रति यथेष्ट (सचेत) हैं।

 

संरक्षण के प्रमुख उद्देश्य हैंः-

प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण जिससे मानव एवं प्राकृतिक में सामंजस्य बना रहे और पारिस्थितिक तंत्र संतुलित रहे इस कार्य हेतु निम्न तथ्यों को दृष्टिगत रखना चाहिएरू-

  वायुमंडल संरक्षण अर्थात् वायु प्रदूषण पर नियंत्रण, ओजोन परत का स्तर बनाए रखना।

जलवायु परिवर्तनों पर निगरानी रखना।

  जल प्रदूषण पर रोक एवं जल का उचित उपयोग।

  मृदा संरक्षण।

  वन एवं अन्य प्राकृतिक संपदा का संरक्षण। वन्य जीवों का संरक्षण।

  संक्षेप में प्राकृतिक वातावरण की रक्षा, उसे संतुलित एवं मानवोपयोगी बनाए रखना आवश्यक है।

  सभी प्रकार से प्रदूषण रोकना।

  प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रयोग का विकास करना जिससे उनका दीर्घकाल तक उपयोग संभव हो सके।

  खनिज संसाधनों का संरक्षण विशेषकर वे खनिज जो समाप्त हो जाने वाले हैं।

 

निश्चित क्षेत्रों में कुछ आर्थिक क्रियाओं जैसे-वनों को काटना, जानवरों को मारना, अनियमित खनन आदि को रोकना।

  नवीनीकरण योग्य (तमदमूंइसम) संसाधनों का उचित उपयोग जिससे उनका पुनः उपयोग संभव हो सके।नवीनीकरणीय संसाधनों का संरक्षण अति आवश्यक है क्योंकि उनको पुनः प्राप्त करना संभव नहीं।

  कोयला, पेट्रोल तथा अन्य खनिज ईंधनों के प्रतिस्थायी इंधनों की खोज गंभीरतापूर्वक की जानी चाहिए। यथासंभव विद्युत, सौर ऊर्जा एवं परमाणवीय शक्ति (ंजवउपब मदमतहल) के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

  वन्य जीवों के शिकार पर प्रतिबंध लगाना चाहिए, विशेष रूप से उन वन्य प्राणियों पर जिनकी संख्या निरंतर कम होती जा रही है।

  विभिन्न स्थानों पर छोटे-बड़े चिड़ियाघर बनाने चाहिए। लोगों को जीव जंतुओं के प्रति अहिंसा की  प्रकृति को विकसित करनी चाहिए।

 

सरकार की नीति तथा क्रियान्वयन

वर्तमान में पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सरकार को नीति बनानी चाहिए। ऐसी नीति को अपनाना चाहिए जिससे अच्छे परिणाम प्राप्त हो सके। पर्यावरण संरक्षण में सरकारी प्रयासों की जानकारी।

 

1. चिपको आंदोलन:

इस आंदोलन में कार्यकर्ता पेड़ों से चिपककर उन्हें काटने से बचाते हैं। इसकी शुरूआत 1793 . में उप्र और उत्तरांचल प्रदेश के चमोली जिले के मोपेश्वर स्थान से हुआ। इसको प्रणेता श्री सुंदरलाल बहुगुणा श्री चंडी प्रसाद हैं। श्री बहुगुणा जी टिहरी बांध आंदोलन के जनक भी हैं।

 

2. आपरेशन मृग:

मार्च, 2001 में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस द्वारा किया गया था। इसमें हिमालय की पहाड़ों में पाए जाने वाले कस्तूरी मृग के शिकार को रोकना है।

 

3. बाघ परियोजना:

29 जुलाई को विश्व बाघ दिवस मनाया जाता है। बाघ परियोजना की शुरुआत 1972-73 में किया गया था बाघों की घटती आबादी को बचाने के लिए इस परियोजना की शुरुआत की गई थी भारत में वर्तमान में लगभग 528 अभ्यारण है जिसमें से लगभग 54 अभयारण्यों में  बाघ परियोजना संचालित है। छत्तीसगढ़ की इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान तथा उद्यंती,सीता नदी एवं अचानकमार अभ्यारण में व्याघ्र परियोजना संचालित है। 2022 की गणना के अनुसार देश में बाघों की संख्या 3167 है जो कि वैश्विक जनसंख्या का लगभग 75 है।

 

4. घड़ियाल परियोजना:

प्रत्येक वर्ष 17 जून को विश्व क्रोकोडाइल दिवस मनाया जाता है भारत में घड़ियाल परियोजना की शुरुआत 1975 में हुई जिसे उड़ीसा से लागू किया गया था।इसका उद्देश्य लुप्तप्राय मगरमच्छों और घड़ियालों की दुर्दशा को उजागर करने के लिए वैश्विक जागरूकता अभियान चलाना, क्रोकोडाइल आवासों की संरक्षण, जनसंख्या प्रबंधन, बंदी प्रजनन और पुनर्वासन कार्यक्रम था।

 

5. कोटमीसोनार क्रोकोडाइल पार्क:

छत्तीसगढ़ के जांजगीर- चाम्पा जिले के अकलतरा विकासखण्ड के ग्राम कोटमीसोनार में स्थित क्रोकोडाईल पार्क जो मगरमच्छो के संरक्षण के लिए बनाया गया हैं यहां साइंस पार्क, एनर्जी पार्क, ऑडीटोरियम आदि बनाया गया हैं।

 

इस संरक्षण केंद्र में लगभग 300 मगरमच्छ हैं। राज्य सरकार के पर्यटन विभाग ने इस केंद्र को पर्यटन स्थलों में शामिल किया है। यहां आने वाले देसी-विदेशी सैलानियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। मगरमच्छ संरक्षण केंद्र का विस्तार 200 एकड़ जमीन पर है। इसमें 85 एकड़ पर जलाशय निर्माण किया गया है। जलाशय में लगभग 300 मगरमच्छों को उनके अनुकूल प्राकृतिक वातावरण में संरक्षित रखा गया है।

 

 

चित्र 3 क्रोकोडाइल पार्क कोटमीसोनार 85 एकड़ में फैला जलाशय

 

भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972:

वन्य जीव और संरक्षण अधिनियम संसद द्वारा 9 सितंबर 1972 को पारित किया गया वन्य जीवों के अवैध शिकार तथा उसके हाड़, मांस और खाल के व्यापार पर रोक लगाई जा सके। सन 2003 में इसे संशोधित किया गया और इसका नाम भारतीय वन्य जीव संरक्षण संशोधित अधिनियम 2002 रखा गया जिसके तहत इसमें दंड तथा जुर्माना और कठोर कर दिया गया। यह अधिनियम पर्यावरण के सतत विकास के लिए जंगली जानवरों पक्षियों और पौधों को संरक्षण प्रदान करता है।

 

जैव विविधता पर संधि: यह संधि दिसंबर 1933 में लागू हुआ यह अंतरराष्ट्रीय संधि जैविक विविधता के संरक्षण इसके घटकों के सतत उपयोग और आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से उत्पन्न लाभों के नए पूर्ण और सामान विवरण का उद्देश्य रखती है।

 

जैव विविधता संरक्षण के उपाय

जैव विविधता एक ऐसा संसाधन है जो यदि एक बार समाप्त हो जाए तो उसे दोबारा नहीं बनाया जा सकता या विलुप्त हो जाते हैं। आज ऐसा कोई भी उपाय नहीं है जिससे भूतकाल में विलुप्त हुई जीव जंतुओं को पुनः उत्पन्न किया जा सके। अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर पर जैव विविधता को संरक्षित करने के लिए दो प्रकार की रणनीति प्रयोग में लाई जाती है।

स्व आवासीय संरक्षण (प्द.ेपजन बवदेमतअंजपवद):- के उपाय जीवों का संरक्षण उनके प्राकृतिक आवासों में किया जाता है तो इसे इन सीटू संरक्षण कहते हैं। संरक्षण की यह विधि अधिक उपयुक्त है क्योंकि इस विधि में वन्य जीवों एवं पादप जातियों को पूर्ण संरक्षण प्रदान किया जाता है। इसमें वनों के विनाश को रोककर राष्ट्रीय उद्यान, पशु विहार आदि को सुरक्षित स्थल बनाया जाता है।

 

राष्ट्रीय उद्यान:- ऐसा उद्यान होता है जिसे किसी राष्ट्र की प्रशासन प्रणाली द्वारा औपचारिक रूप से संरक्षित करा गया हो। अलग-अलग देश अपने राष्ट्रीय उद्यानों के लिए अलग-अलग नीतियाँ रखते हैं, लेकिन लगभग सभी में क्षेत्रों के वन्य जीवन को आने वाली पीढ़ीयों के लिए संरक्षित रखना एक मुख्य ध्येय होता है। भारत में वर्तमान में 106 राष्ट्रीय उद्यान है जो भारत की कुल सतह क्षेत्र का 1.23 प्रतिशत है।

 

इसमें से गुरुघासीदास राष्ट्रीय उद्यान, इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान और कांगेरघाटी राष्ट्रीय उद्यान तीन राष्ट्रीय उद्यान छत्तीसगढ़ में स्थित है। 1972 में भारत में संरक्षण पर निर्भर प्रजातियों के अवसान की सुरक्षा के लिए वन्य जीव संरक्षण अधिनियम तथा 1973 में राष्ट्रीय उद्यानों में बाघ परियोजना लागू किया गया। भारत का सबसे बड़ा राष्ट्रीय उद्यान हेमिस यह राष्ट्रीय उद्यान है।

 

यह राष्ट्रीय उद्यान जम्मूयह राष्ट्रीय उद्यान लुप्तप्राय स्तनधारी और पक्षियों की कई प्रजातियों का घर है जिसमें तेंदुए एशियाई आईबैक्स, तिब्बती भेड़िया, यूरेशियन भूरे भालू तथा लाल लोमड़ी के लिए एक संरक्षित क्षेत्र है।

 

अभयारण्य:- अभयारण्य का अर्थ है अभय $ अरण्य। अर्थात ऐसा अरण्य या वन जहां जानवर बिना किसी भय के रहते हैं। सरकार अथवा किसी अन्य संस्था द्वारा संरक्षित वन, पशु-विहार या पक्षी विहार को अभयारण्य कहते हैं। इनका उद्देश्य पशु, पक्षी या वन संपदा को संरक्षित करना, उसका विकास करना शिक्षा तथा अनुसंधान के क्षेत्र में उसकी मदद लेना होता है।भारत में वर्तमान में कुल अभयारण्यों की संख्या लगभग 528 है जिसमें से 11 अभ्यारण छत्तीसगढ़ में स्थित है।

 

कृत्रिम आवासीय संरक्षण (म्ग.ेपजन बवदेमतअंजपवद):- जब जीवों का संरक्षण उनके प्राकृतिक आवासों से हटकर मानव द्वारा निर्मित सुरक्षित आवासों (शोध-संस्थान, शरण स्थल, वनस्पति उद्यान) में किया जाता है तो इसे एक्स सीटू संरक्षण कहते हैं। प्राकृतिक आवासों से विलुप्त हो चुके एक जिन्नोस्पर्म पादप गिन्गो बाइलोबा (ळपदहव इपसवइं) को एक्स सीटू संरक्षण के अंतर्गत सुरक्षित रख कर विलुप्त होने से बचा लिया गया।

 

वनस्पति उद्यान:- वनस्पति उद्यान निर्माण का उद्देश्य लुप्त पादप प्रजातियों की संरक्षण करना है। यह क्षेत्र पादप प्रजातियों के संरक्षण के अतिरिक्त उनके टैक्सोनॉमिक अध्ययन और अनुसंधान में मदद करता है ।दुर्लभ प्रजातियों और आनुवंशिक विविधता को वानस्पतिक उद्यान में संरक्षित एवं प्रचारित किया जाता है। भारत में वर्तमान में लगभग 122 वनस्पति उद्यान है। भारत में सबसे बड़ा और पहले वानस्पतिक उद्यान अचार्य जगदीश चंद्र बोस भारतीय वनस्पति उद्यान है। इन उद्यानों के परिक्षेत्र में लगभग दो लाख जीवित पौधे दर्ज है।

 

प्राणी उद्यान:- इसे चिड़ियाघर भी कहते हैं इसमें जानवरों को बालों की भीतर रखा जाता है उनकी देखभाल की जाती है। उन्हें जनता के सामने प्रदर्शित किया जाता है इन चिड़ियाघरों में प्राइवेट बड़ी बिल्लियां उष्णकटिबंधीय पक्षी या जल पक्षी आते हैं चिड़ियाघर संरक्षण के अतिरिक्त शोध की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होते हैं भारत में वर्तमान में लगभग 164 मान्यता प्राप्त प्राणी उद्यान है।

 

जीन बैंक:- राष्ट्रीय जीव बैंक की स्थापना वर्ष 1996 में भविष्य की पीडिया के लिए पादप अनुवांशिक संसाधनों के बीच को संरक्षित करने के लिए की गई थी। और इसमें बीच के रूप में लगभग 10 लाख जन्म क्लास को संरक्षित करने की क्षमता है। जर्मप्लाज्म जीवित ऊतक है जिससे नए पौधे उगाए जा सकते हैं इसमें से 2.7 लाख भारतीय जर्मप्लाज्म है और बाकी अन्य देशों से आयात किया गया है।

 

क्रायो बैंक:- क्रायोप्रिजर्वेशन का इस्तेमाल बीजों और इन विट्रो कल्चर के दीर्घकालिक भंडारण के लिए अधिक व्यापक रूप से किया जा रहा है और यह उन प्रजातियों के आनुवंशिक संसाधनों के लागत-प्रभावी और सुरक्षित, दीर्घकालिक भंडारण को सुनिश्चित करने के लिए पसंदीदा तरीका है, जिनके बीज अड़ियल होते हैं या जो वानस्पतिक रूप से प्रचारित होते हैं। भंडारण आमतौर पर तरल नाइट्रोजन (-196 डिग्री सेल्सियस) में किया जाता है, जिससे सभी चयापचय प्रक्रियाएं और कोशिका विभाजन रुक जाते हैं।

 

पर्यावरण संरक्षण संबंधित प्रमुख अधिनियमः-

1.  पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986)- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986) को पारित करने का उद्देश्य पर्यावरण को विभिन्न हानिकारक प्रभावों जैसे रसायन, जैविक पदार्थों की कमी से बढ़ता हुआ प्रदूषण, प्राकृतिक प्रकोप आदि से संरक्षित करना है। इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों का उल्लंघन करने पर 5 वर्ष की सजा एवं 1 लाख तक का जुर्माना अथवा दोनों से दंडित किया जा सकेगा।

 

2.  वायु प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम (1981)- वायु जीवन के लिए आवश्यक है, वर्तमान में शुद्ध वायु कैवल अतीत की कल्पना मात्र है। संसद द्वारा वायु प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण अधिनियम, 1981 16 मई 1981 को संपूर्ण भारत मे लागू किया गया है जिन्हें सात अध्यायों में विभक्त किया है।

 

3.  जल प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम (1974)- जल प्रदूषण अधिनियम विषैले, हानिकारक अथवा प्रदूषित करने वाले पदार्थों को नदियों एवं कुओं में फेंके जाने को निषिद्ध करता है उसे रोकता है। इस अधिनियम में कुल 8 अध्याय तथा 64 धाराएं हैं।

 

1.  वन्य जीव संरक्षण अधिनियम (1972)- वन्य जीव सुरक्षा और संकटग्रस्त जीव प्रजातियों की सुरक्षा को नियंत्रित करता है।

 

2.  वन संरक्षण अधिनियम (1980)- वनों के संरक्षण संबंधी कई नियम एवं कानून बनाए गए हैं लेकिन वनों के संरक्षण केलिए वन संरक्षण अधिनियम 1980 मील का पत्थर सिद्ध हुआ है। इस अधिनियम तथा उद्देश्य गैर-वानिकी कार्यों के लिए वन क्षेत्रों के उपयोग को निरुत्साहित करना है। इस अधिनियम में राष्ट्र के विकास के लिए यदि कोई गैर-वानिकी कार्य करवाता है जैसे सड़क बनाना, बांध का निर्माण, विद्युत लाईन डालना, खनन करवाना आदि कार्यों की परियोजनाएं चालू करनी हो तो ऐसी स्थिति में कुछ शर्तों के अंतर्गत वन क्षेत्र के स्थानांतरण के लिए सरकार के द्वारा अनुमति देने का प्रावधान है।

 

सार रूप में उपरोक्त विचारों एवं कार्यों के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि-

1.  पर्यावरण को संतुलित करने के लिए प्रकृति के साथ मनुष्य का मित्रवत् व्यवहार उत्पन्न किया जाना आवश्यक है।

2.  पर्यावरण (अनवीनीकृत) का ऐसा प्रबंधन किया जाना चाहिए जिससे कि आने वाली पीढ़ियां भी इसका उपयोग कर सकें।

3.  50 से 5 हजार एकड़ क्षेत्रफल की भूमि पर प्राकृतिक केंद्रों की स्थापना की जानी चाहिए जिससे नगरों एवं बस्तियों केपास ही पर्यावरण की शिक्षा प्राकृतिक स्थितियों में दी जाये।

4.  नेचर क्लबों, नेचर केंद्रों छळव् आदि की स्थापना एवं संगठित किा जाना चाहिए जो विभिन्न क्षेत्रों में जाकर आम नागरिकों की भागीदारी प्राप्त कर सके तथा आवश्यक जानकारियों उन्हें प्रदान की जा सके।

 

वास्तव में संरक्षण प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग को प्रशस्त करता है। यह कार्य नीति एवं नियोजन द्वारा ही संभव है जो अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर किया जा सकता है। प्रकृति के संबंध में संजोए अनुभवों को बांटने, पर्यावरणीय समस्याओं को समझने-सुलझाने में ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाना चाहिए जो अपने क्षेत्र-विषय विशेष में दक्षता रखते हों तथा कर्मठ कार्यकर्ता के रूप में जुड़ सकते हों। केवल नियम एवं नीतियां ही संरक्षण के लिए पर्याप्त नहीं अपितु इसकी सफलता संपूर्ण मानव जाति पर निर्भर है।

 

संदर्भ ग्रंथ

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Received on 25.06.2024         Modified on 16.08.2024

Accepted on 10.10.2024         © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences. 2024; 12(3):143-153.

DOI: 10.52711/2454-2679.2024.00024