छत्तीसगढ़ में कल्चुरि कालीन सांस्कृतिक दषा-एक ऐतिहासिक पुनरावलोकन

 

डॉ.डी.एन. खुटे

सहायक प्राध्यापक, इतिहास अध्ययनषाला, पं. रविषंकर शुक्ल विष्वविद्यालय रायपुर, ..

*Corresponding Author E-mail: dnkhute@gmail.com

 

ABSTRACT:

किसी भी देष प्रांत के क्षेत्र के सम्पूर्ण विकास के लिये प्रषासन अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आवष्यक अंग होता है। प्राचीन छत्तीसगढ़ में प्रषासनिक व्यवस्था की जो परिपाटी थी वह प्रायः कल्चुरि काल में विद्यमान थीं। छत्तीसगढ़ में लम्बे समय तक कल्चुरि राजवंष की अधिसत्ता रही है। इस राजवंष ने 11वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी मध्यान्त तक शासन किया था। दक्षिण कोसल के कल्चुरि, चेदि कल्चुरियों के वंषज थे, जिनकी राजधानी पुरानी शहर त्रिपुरी थी। इन कल्चुरियों ने छत्तीसगढ़ के इतिहास में एक नए काल की शुरूआत की है। लक्ष्मण राज ने त्रिपुरी से अपने पुत्र कलिंगराज को भेजा। कलिंगराज ने केवल तुम्माण को अपने अधिकार में किया वरन अपने बाहुबल से दक्षिण कोसल का जनपद भी जीत लिया। उसने तुम्माण को अपनी राजधानी बनाया और दक्षिण कोसल में कल्चुरियों की वास्ताविक सत्ता की स्थापना की एवं नये सिरे से कल्चुरि राज्य की नींव 1000 . में डालकर अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली। कुछ समय बाद कल्चुरि राज्य रतनपुर और रायपुर दो भागों में विभाजित हो गया। रतनपुर में कल्चुरि शासन 1741 . तक रहा। रायपुर में इनकी एक शाखा आई जिसे लहुरी अर्थात कनिष्ठ शाखा भी कहते हैं। कल्चुरि कालीन छत्तीसगढ़ का समाज श्रम विभाजन के आधार पर बंटा हुआ था। उसके अधिकार और कर्तव्य बंटे हुए थे। प्राचीन छत्तीसगढ़ में वर्ण व्यवस्था अपना स्थान प्राप्त कर चुके थे किंतु कट्टरता का अभाव था। छत्तीसगढ़ के कल्चुरि नरेष धर्म परायण थे और जनहित के कार्यों में रूचि रखते थे। इन्होंने अपने शासनकाल में शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध धर्माें को संरक्षण ही नहीं दिया अपितु उन्हें पुष्पित पल्लवित भी किया। हिंदू समाज का स्वरूप संकुचित होकर व्यापक था। यही कारण है कि शक, कुषाण, गुर्जर आदि विदेषी जातियों को हिंदू समाज में समाहित कर लिया गया।

 

KEYWORDS: कल्चुरि, पुराणकालीन, हैहय, रतनपुर, माहिष्मति, तुम्मान, कोकल्ल

 


 


प्रस्तावना:-

कल्चुरियों का उद्भव:-

भारत वर्ष के इतिहास में कल्चुरि नरेषों का स्थान कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। 550 . से 1740 . तक लगभग बारह सौ वर्षों तक कल्चुरि नरेषों ने भारत के उत्तर अथवा दक्षिण किसी किसी प्रदेष में अपना राज्य चलाया है। इस वंष का संस्थापक कौन था? इस विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है।(1) भारतीय राजवंषों में कल्चुरि राजवंष बहुत पुराना है।(2)

विस्तृत क्षेत्रों और विभिन्न लेखों, ताम्रपत्रों में इस राजवंष का नाम कटच्छुरि, कलत्सुरि, कल्चुर्य, कलचुति एवं कल्चुरि आदि मिलता है। वस्तुतः यह तुर्क शब्द कुलचुर से संबंधित बताया गया है, जो एक उच्च पद का द्योतक है।(3) अर्थात् कल्चुरि निष्चयतः उच्च कुल के रहे होंगे। चेदि प्रदेष पर शासन करने के कारण उन्हें चेदि, वैद्य तथा चेदिकुल भी कहा गया है।(4) कुछ स्थानों पर उन्हें अहिहय भी कहा गया है।

 

पांचवीं-छठवीं . शताब्दी बाद भारतीय राजा गण पुराण कालीन सुप्रसिद्ध राजवंषों से अपना संबंध जोड़ने में गौरव का अनुभव करने लगे। किसी ने बड़े अभिमान से राजा नल के वंष से अपना संबंध बताया, तो किसी ने पांडव कुल से संबंध जोड़ने का प्रयास किया। कल्चुरि नरेष भी इसका अपवाद नहीं थे, उन्होंने अपना संबंध पुराण प्रसिद्ध कार्तवीर्य हैहय से जोड़ा। हैहय वंष का वृत्तान्त पुराणों एवं प्राचीन साहित्यों में मिलता है। प्राचीन दक्षिण कोसल की राजधानी रतनपुर के हैहय वंषी राजाओं ने अपना जो इतिहास (बाबू रेवाराम कृत रतनपुर का इतिहास) लिखवाया उसके अनुसार इस वंष का विवरण इस प्रकार है- ब्रह्म के पुत्र अत्रि हुए, उसके पुत्र सोम हुये जिनसे सोमवंषी उत्पन्न हुए। इस वंष में ऐल नामक राजा हुआ था जिसके वंष ययाति, यदु और पुरू थे। यदु का पुत्र हैहय था जिसके अपना राज्य नर्मदा तट पर माहिष्मति में स्थापित किया।(5)

 

डॉ.मिराषी के अनुसार- कल्चुरि नरेष अपने को हैहय सहसार्जुन कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे इसलिये षिलालेखों में उनका उल्लेख हैहय वंष के रूप में हुआ है।(6) कुछ इतिहास कार विषेषकर डॉ.देवदत्त पन्त भण्डारकर ने चन्दबरदाई कृत पृथ्व ीराज रासो के आधार पर इन्हें विदेषी मानते है, किन्तु डॉ. मिराषी ने इसका खण्डन किया है। कल्चुरि कौन थे? इसका निराकरण नहीं हो पाया है। लेकिन कल्चुरि और हैहयवंषी एक ही थे। इतिहास कारों ने इन्हें चन्द्रवंषी क्षत्रिय माना है। कल्चुरि राजवंष की प्रथम राजधानी माहिष्मति थी। यहां राज्य करते हुए कल्चुरि इतने समृद्ध और शक्तिषाली हो गये थे कि इनका राज्य विस्तार गुजरात, महाराष्ट्र और मालवा पर ही नहीं अपितु कोंकण तक अपनी प्रभुसत्ता स्थापित किये। उन्होंने कालिंजर, प्रयाग, त्रिपुरी, काषी, तुम्माण, रतनपुर, खल्लारी, रायपुर में अपनी राजधानी स्थापित किये।(7)

 

छत्तीसगढ़ के कल्चुरिः-

त्रिपुरी के कल्चुरियों की एक शाखा छत्तीसगढ़ में बसी। बिलासपुर जिले में प्रायः गोलाकार एक पत्थर श्रेणी है जिसके भीतर लगभग 30 गांव बसे है। मुख्य गांव तुम्मान है जिसके कारण पर्वत से घिरे हुए समूचे स्थल का नाम तुम्मान खोज रख लिया गया है। षिलालेखों में इस ग्राम या पुर का नाम तुम्मान लिखा हुआ मिलता है।(8)

 

डॉ. मिराषी ने लिखा है- ईसा पष्चात् 9वीं शताब्दी के अंत में त्रिपुरी के कल्चुरियों ने दक्षिण कोसल में अपनी शाखा स्थापित करने का श्रेय प्राप्त किया था। अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि प्रथम कोकल्ल के पुत्र द्वितीय शंकरगण ने कोसल नरेष से पालि देष जीत लिया था। यह पालि देष बिलासपुर जिले के पाली नामक स्थान के आसपास का प्रदेष होगा।(9)

 

तुम्माण में आगमन:-

दक्षिण कोसल के कल्चुरि, चेदि कल्चुरियों के वंषज थे, जिनकी राजधानी पुरानी शहर त्रिपुरी थी (जिले वर्तमान में तेवर कहा जाता है) इन कल्चुरियों ने छत्तीसगढ़ के इतिहास में एक नए काल की शुरूआत की है। 9वीं शताब्दी के अंत में त्रिपुरी के कल्चुरियों ने दक्षिण कोसल में अपनी शाखा स्थापित करने का प्रयत्न किया। इस समय कोकल्ल के द्वारा मध्य भारत के पूर्वी भाग में एक बहुत ही सुदृढ़ शासन की स्थापना की गई थी। जहां पहले वाकाटक परिव्राज्क तथा उच्छकल्प के शासक गुप्तों के पतन के बाद शासन करते थे। कोकल्ल का उल्लेख सबसे पहले उसके दामाद कृष्णराज द्वितीय के जो कि मान्यखेट के राष्ट्रकूट वंष के थे षिलालेख में वर्णित है।(10) अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि कोकल्ल प्रथम के पुत्र शंकरगण द्वितीय अर्थात् मुग्धतुंग प्रसिद्ध धवल ने कोसल नरेष से पालि प्रदेष (बिलासपुर के पालि के आसपास का क्षेत्र) जीत लिया था। इस समय वहां बाणवंषी विक्रमादित्य प्रथम राज्य कर रहा था। इसके अथवा इसके उत्तराधिकारी से शंकरगण द्वितीय ने यह प्रदेष जीता होगा। पाली रतनपुर के उत्तर पूर्व में 12 कि.मी. दूर बिलासपुर जिला में स्थित है। यह स्थल 6वीं शताब्दी . से दक्षिण कोसल का प्रमुख राजनीतिक केन्द्र रहा है। पाली के षिवमंदिर के गर्भगृह के द्वार पर लगे षिलालेख जिसका उल्लेख भी मिराषी ने स्टडीज इन इण्डोलाजी में रूल आफ बानकिंग आफ महाकोसल के पृष्ठ 68 में तथा कार्पस इन्सक्रिप्षन इंडिकरम वाल्युम चार के पृष्ठ 10 में, बालचंद जैन के उत्कीर्ण लेख के पृष्ठ 24 में एवं मिराषी ने कल्चुरि नरेष और उनके काल, पृष्ठ 39 में किया है।

 

मंडलेष्वर का यह वंष 125 वर्षों तक तुम्माण में चलता रहा परन्तु बाद में कमजोर होने पर सोमवंषियों ने वहां अपना अधिकार कर लिया था। तभी लक्ष्मण राज ने त्रिपुरी से अपने अन्य पुत्र कलिंगराज को भेजा। कलिंगराज ने केवल तुम्माण को ही फिर से अपने अधिकार में किया वरन अपने बाहुबल से दक्षिण कोसल का जनपद भी जीत लिया। उसने तुम्माण को अपनी राजधानी बनाया और दक्षिण कोसल में कल्चुरियों की वास्ताविक सत्ता की स्थापना की एवं नये सिरे से कल्चुरि राज्य की नींव 1000 . में डालकर अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली।(11)

 

रतनपुर में कल्चुरि शासन 1741 . तक रहा। रायपुर में इनकी एक शाखा आई जिसे लहुरी अर्थात कनिष्ठ शाखा भी कहते हैं। 1375 . में कनिष्ठ शाखा ने रायपुर राजधानी से शासन प्रारंभ किया।12

                   

कल्चुरि कालीन सांस्कृतिक दषा:-

धार्मिक दषा:- छत्तीसगढ़ के कल्चुरि नरेष धर्म परायण थे और जनहित के कार्यों में रूचि रखते थे। इन्होंने अपने शासनकाल में शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध धर्माें को संरक्षण ही नहीं दिया अपितु उन्हें पुष्पित पल्लवित भी किया।

 

शैवधर्म:-

रतनपुर के कल्चुरि नरेष परम शैव थे। उनके द्वारा राजधानी तुम्माण में बंकेष्वर महादेव मंदिर का निर्माण इसका प्रमाण है।(13) इसी प्रकार रतनपुर के रत्नेष्वर महादेव और षिवमंदिर तथा वृद्धेष्वर महादेव भी छत्तीसगढ़ की शैव परम्परा के प्रतीक है। जाजल्ल प्रथम ने जाजल्लपुर नामक नगर बसाकर वहां एक षिवालय और मठ बनवाया था। पाली के षिवमंदिर में उन्होंने पुराने षिवमंदिर का जीर्वोंद्धार कराया। रतनपुर रायपुर के कल्चुरि शासकों ने माण्डलिकों मंत्रियों ने मल्हार, सोंठीपुर, नारायणपुर, षिवरीनारायण, पोरथा, भोरमदेव आदि में देवालय बनवाये थे।(14) शैवधर्म के प्रचार-प्रसार में कल्चुरि नरेषों के अतिरिक्त शैव गुरूओं का भी योगदान रहा। जाजल्ल देव प्रथम के रतनपुर अभिलेख में उनके गुरू रूद्रषिव का उल्लेख मिलता है, बिलाईगढ़ ताम्रपत्र से शैवाचार्य ईषान देव का भी उल्लेख प्राप्त होता है। षिव के साथ षिव परिवार की मूर्तियां यथा उमा-महेष्वर, गणेष, कार्तिकेय, नंदी भी मल्लार, पाली, जांजगीर, रतनपुर आदि स्थानों से प्राप्त हुई है, जो उनकी उपासना के घोतक है।(15)

 

वैष्णव धर्म:-

कल्चुरि कालीन छत्तीसगढ़ में वैष्णव धर्म का भी विकास हुआ। पृथ्वीदेव प्रथम के अमोदा ताम्रपत्र लेख (कल्चुरि संवत 831) में भगवान विष्णु का उल्लेख मिलता है।(16) जाजल्लदेव प्रथम के रतनपुर षिलालेख (कल्चुरि संवत् 866) में विष्णु एवं लक्ष्मी का नामोल्लेख मिलता है।(17) इनके ही राजिम षिलालेख (कल्चुरि संवत् 896) में सामंत जगतपाल द्वारा भगवान विष्णु के देवालय का जीर्णोंद्धार कराया गया उसने अपने लेख मे उस देवता को राम कहा है किन्तु वहां की मूर्ति चतुर्भुज विष्णु की है। रतनपुर षिलालेख में (कल्चुरि संवत् 915) में शेष सैय्या पर लेटे हुए नारायण एवं उसके पैरों की सेवा करती हुई लक्ष्मी का बड़े ही सुंदर ढंग से वर्णन किया गया है।(18) सामंत गोपाल देव के पुजारी पाली लेख में ब्रह्म एवं महेष के साथ विष्णु की वंदना की गई है। इसी लेख में गरूड़ का भी नामोल्लेख मिलता है।

 

लक्ष्मी नारायण रूप में बिष्णु की मूर्तियां षिवरीनारायण एवं गतौरा से उपलब्ध हुई है। गरूड़ासन लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा भोरमदेव में मिली है। रतनपुर से प्राप्त काले पाषाण में निर्मित बिष्णु की एक सुंदर मूर्ति घासीदास संग्रहालय रायपुर (..) मंे सुरक्षित है। कल्चुरियों की लहुरि शाखा खल्लारी में देवपाल मोची द्वारा नारायण मंदिर का निर्माण करवाया गया।(19)

 

यह सभी प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि कल्चुरि कालीन छत्तीसगढ़ में वैष्णव धर्म को पर्याप्त संरक्षण प्राप्त हुआ था।

 

शाक्त धर्म:-

कल्चुरि युगीन छत्तीसगढ़ में शाक्त पूजा का भी प्रचलन था। लोगों को यह विष्वास था कि वैष्णवी, वराही, नरसिंही, चामुण्डा इत्यादि शक्ति की कृपा से विजय प्राप्त होती है। दक्षिण कोसल के कल्चुरि कालीन प्राप्त अनेक अभिलेखों में पार्वती, दुर्गा गौरी तथा एक वीरा के मंदिरों के निर्माण का उल्लेख मिलता है। जाजल्लदेव द्वितीय के षिवरीनारायण षिलालेख (कल्चुरि संवत् 919) में विकन्न देव द्वारा दुर्गा मंदिर निर्माण का ब्यौरा मिलता है। रत्नदेव तृतीय के खरौद षिलालेख (कल्चुरि संवत् 933) में सामंत गंगाधर द्वारा दुर्ग में देवी मंदिर निर्मित कराने का उल्लेख है। पृथ्वीदेव द्वितीय के बिलाईगढ़ ताम्रपत्र (कल्चुरि संवत् 896) से ज्ञात है कि माण्डलिक ब्रह्मदेव ने अपने गुरू देल्हूक से शाकम्भरी विद्या सीखकर गुरू के सभी शत्रुओं को परास्त कर दिया। गोपाल देव का पुजारी पाली (सारंगढ़ से 35 कि.मी. दूर) जिला रायगढ़ के षिलालेख में विभिन्न रूपों की देवी शक्तियों, उनके स्वरूप आदि का वर्णन है।(20)

 

रतनपुर में महामाया देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। इसकी मूर्ति के पीछे महाकाली एवं महालक्ष्मी के शीर्ष भाग दृष्टिगत होते है जिससे बलि परम्परा का भी बोध होता है।(21) सिरपुर में महिषासुर मर्दिनी की कुछ प्रतिमाएं प्राप्त हुई है।(22) इस प्रकार की प्रतिमाओं में दुर्गा को महिषासुर के साथ युद्ध करते हुए प्रदर्षित किया गया है।(23) कल्चुरि कालीन पार्वती की एक विषाल प्रतिमा रतनपुर से प्राप्त हुई है।(24) इन मंदिरों में पषुबलि भी दी जाती थी। दक्षिण कौसल में देवी पूजा के प्रति अटूट श्रद्धा और भक्ति थी। संभवतः युद्धों में शक्तियों की कृपा से ही उन्हें विजय मिलती है ऐसी भावना रही होगी। नवरात्रि के शुभ अवसर पर शक्ति पूजा विषेष तौर पर की जाती रही हैं। इस प्रकार हम कह सकते है कि कल्चुरि कालीन छत्तीसगढ़ में शाक्त धर्म का पर्याप्त प्रसार था।

 

बौद्ध धर्म:-

छत्तीसगढ़ में कल्चुरि शासकों के पूर्व से बौद्ध धर्म विकसित अवस्था में था। सम्पूर्ण क्षेत्र में लगभग 100 से अधिक विहार थे। सिरपुर, आरंग, मल्हार आदि स्थानों में बौद्ध देवालयों और मठों के अवषेष प्राप्त हुए है। सिरपुर इसका प्रमुख केन्द्र था। किन्तु कल्चुरि काल में बौद्ध धर्म का पतन होने लगा था। रतनपुर षिलालेख से यह ज्ञात होता है कि जाजल्लदेव प्रथम के राजगुरू रूद्र्रषिव ने दिग्नागादि बौद्ध दार्षनिकों के गं्रथ का अध्ययन किया था।(25) पृथ्वीदेव द्वितीय के कोनी पाषाण अभिलेख का रचयिता कौषल बौद्ध धर्म के त्रिरत्न एवं बौद्धधर्म के आगमों का ज्ञाता था।(26)

 

जैन धर्म:-

कल्चुरि शासकों के प्राप्त विभिन्न अभिलेखों में जैन धर्म का उल्लेख नहीं मिलता है। आरंग, सिरपुर, मल्लार, धनपुर, रतनपुर, पदमपुर आदि स्थानों से जैन तीर्थकरों की मूर्तियां प्राप्त हुई है जो कल्चुरि काल के पूर्व के है।(27) कल्चुरि काल में जैन मतावलम्बी निवासरत थे तथा सीमित मात्रा में ही सही धर्म का प्रसार अवष्य ही हुआ होगा तभी तो आरंग, नगपुरा आदि के जैन मंदिर संरक्षित रह पाए।

 

अन्य धर्म:-

कल्चुरि काल में लोगों में अंधविष्वास उनके अनेक देवी देवताओं की पूजा के रूप में प्रकट हुआ। चिथड़ा देव, औरंगन पाट और ठाकुर देव की पूजा आदि उनके अंधविष्वास के उदाहरण थे। हर गांव में ठाकुर देव स्थापित था जो ग्राम देवता कहलाता था। प्रत्येक मांगलिक कार्य के आरंभ में उसकी पूजा अनिवार्य रूप से की जाती थी।(28)

 

कल्चुरि काल में सूर्योपासना भी की जाती थी। पाली, जांजगीर के मंदिरों में सूर्य की प्रतिमाएँ मिली है। कल्चुरि शासक सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, मकर संक्रांति, अक्षय तृतीया आदि अवसरों पर ब्राह्मणों को दान देते थे। ये शासक प्रायः भूमिदान देते थे जिसके प्रमाण ताम्रपत्रों एव अभिलेखों में मिलता है। इस युग के 16 दानपत्र लेख प्राप्त हुए है। उनमें से पांच चंद्रग्रहण, चार सूर्यग्रहण, मकर संक्रांति एक अक्षय तृतीया तथा शेष अन्य विविध अवसरों पर जारी किये गये थे।(29)

 

छत्तीसगढ़ में महाप्रभु बल्लभाचार्य जैसे संत को भी जन्म दिया है। इनका जन्म राजिम के पास चंपारण्य नामक स्थान में संवत् 1535 (1593.) में हुआ था। वे पुष्टि मार्ग के संस्थापक थे। रामानंदी मठ की परम्परा यहां है। रायपुर का दूधाधारी मठ थी इसी परम्परा के अंतर्गत् आता है।(30)

 

षिक्षा:-

अभिलेखीय साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि कल्चुरि कालीन छत्तीसगढ़ षिक्षा एवं साहित्य की दृष्टि से समृद्ध था। इस काल में मल्लार, रतनपुर, सिरपुर, आरंग, राजिम, रायपुर एवं खैरागढ़ षिक्षा के महत्वपूर्ण केन्द्र थे। यहां नीति शास्त्र, धर्म, दर्षन, ज्योतिष, गणित आदि की षिक्षा दी जाती थी।(31) मल्लार षिलालेख (कल्चुरि संवत 916) से पूर्व मध्ययुगीन दर्षन शास्त्र के नियमों का ज्ञान होता है, जो यह इंगित करता है कि प्रधान अध्यापक सोमराज कष्यप का सिद्धान्त, सांख्य, मीमांसा, अधपाद, चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्षन का अध्यापक करता था। इसके अतिरिक्त वह पुराण एवं स्मृतियों का ज्ञाता था।(32)

 

राजिम षिलालेख में रामायण और महाभारत का उल्लेख किया गया है।(33) पृथ्वीदेव द्वितीय के बिलाईगढ़ ताम्रलेख (कल्चुरि संवत् 896) से शाकम्भरी विद्या का पता चलता है।(34) डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र के अनुसार- नालंदा और तक्षषिला के पहले भी रतनपुर में एक विष्वविद्यालय की स्थापना हुई थी। (35) पाठषालाओं और महाविद्यालय राजकीय अनुदान से संचालित किन्तु षिक्षा नियंत्रण से मुक्त थी। तुरतुरिया ग्राम प्राचीन बौद्ध षिक्षा का केन्द्र था।(36) कल्चुरि शासकों ने षिक्षा के लिये अनेक मठों का निर्माण कराया था। यहां गुरू आश्रम की परम्परा विद्यमान थी।

 

साहित्य:-

साहित्यिक दृष्टि से भी कल्चुरि काल में छत्तीसगढ़ अत्यन्त समृद्ध था। नारायण, अल्हन, कीर्तिधर, वत्सराज, धर्मराज, भागे, सुरगण, रतनसिंह, कुमारपाल, त्रिभुवण पाल, देवपणि, नरसिंह और दामोदर मिश्र जैसे कवियों का उल्लेख कल्चुरि लेखों में प्राप्त होते है।(37) कल्चुरि शासक साहित्य प्रेमी थे। उनके दरबार में उच्चकोटि के संस्कृत के कवि रहते थे। पुजारी पाली षिलालेख से यह ज्ञात होता है कि नारायण नामक एक संस्कृत भाषा के कवि ने रामाभ्युदय‘‘ नामक काव्य गं्रथ की रचना की थी।(38)

 

कल्चुरि शासकों ने प्राकृत भाषा के कवियों को भी राजाश्रय प्रदान किया। रतनपुर के पास एक पहाड़ी पर एकवीरा देवी का मंदिर है, उसमें प्राकृत भाषा में लिखा एक षिलालेख है जिससे ज्ञात होता है कि उस काल में प्राकृत भाषा में काव्य रचना होती थी। 17वीं शताब्दी में गोपाल मिश्र प्रसिद्ध काव्य रचनाकार हुए उन्हें राजा राजसिंह देव ने राजाश्रय प्रदान किया था। उन्होंने हिन्दी में कई गं्रथों की रचना की जैसे- खूब तमाषा, जैमिनी, अष्वमेघ, सुदामा-चरित, चिंतामणि, रामप्रताप इत्यादि।(39)

 

कल्चुरि कालीन साहित्य की प्रमाणिकता बाबू रेवाराम द्वारा लिखित ग्रन्थ तवारिख--हैहयवंषी राजाओं की के द्वारा होती है। यह गं्रथ इस अंचल की प्रथम लिपिबद्ध ऐतिहासिक रचना है।(40) इनके 13 गं्रथों का पता लगता है- सार रामायण दीपिका, ब्राह्मण स्त्रोत, गीता माधव, महाकाव्य, विक्रम विलास, गंगालहरी, नर्मदा कण्टक दोहावली, रत्नपरीक्षा, माता के भजन, कृष्ण लीला के भजन लोक लावण्य वृत्तान्त, रतनपुर का इतिहास, रामाश्रमेघ आदि।(41) छत्तीसगढ़ी भाषा में उनकी एक कृति है जो अब तक अज्ञात है।

 

इसके अतिरिक्त पं. षिवदत्त शास्त्री ने इतिहास समुच्चय नामक पुस्तक की रचना की है। उन्होंने रतनपुर के इतिहास के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ की जमींदारियों के बारे में भी लिखा है।(42)

 

इस काल में कवि गोपालचन्द्र मिश्र का उल्लेखनीय योगदान है। हिन्दी काव्य परम्परा की दृष्टि से इनका नाम प्रसिद्ध था। उन्होंने रतनपुर राज्य में राजसिंह देव 1689-1712 . के दरबार में राजाश्रय प्राप्त किया थां। उनके ग्रंथों में प्रमुख है -खूब तमाषा, जैमिनी, अष्वमेघ, सुदामा चरित, चिन्तामणि-कृष्ण प्रबंध काव्य, रामप्रताप-राम प्रबंध काव्य आदि। उनके कृतित्व की उत्कृष्टता देखते हुए उन्हें महाकवि की संज्ञा दी जानी चाहिए। खूब तमाषा इसका एक प्रमुख उदाहरण हैं इसकी रचना 1746 . में की थी जिसमें उन्होने इस अंचल को छत्तीसगढ़ सम्बोधित किया था।43

 

कल्चुरि काल में साहित्यकारों की अपेक्षा प्रषस्तिकार कवि अधिक थे, जो ब्राह्मण कायस्थ होते थे। प्रकृति विज्ञान आयुर्विज्ञान की दृष्टि से यह क्षेत्र विकसित था। यहां छत्तीसगढ़ी बोली का प्रचार-प्रसार था किन्तु राजकीय कार्य संस्कृत भाषा में होता था।(44) यहां का साहित्यक इतिहास एक प्रकार से अंधकारमय है। तत्कालीन कृतियां या तो नष्ट कर दी गई या व्यक्तिगत रूप से रख ली गई थीं, जो कालांतर में यहां से बाहर चली गई।(45)

 

षिल्प, स्थापत्य कला और मूर्तिकला:-

कल्चुरि शासकों ने अनेक मंदिरों, धर्मषालाओं, अध्ययन शालाओं, मठों इत्यादि का निर्माण करवाया, जिनकी कारीगरी विषेष छटा दिखलाती है। यह कल्चुरि षिल्प के नाम से जानी जाती है। इनके मंदिरों के द्वार पर गजलक्ष्मी या षिव की मूर्ति पायी जाती है। गजलक्ष्मी कल्चुरि की कुल देवी थी और उनका कुल षिव उपासक था। इनका ताम्रपत्र हमेषा ओम नमः षिवाय से आरंभ होता है।(46)

 

कल्चुरियों के शासनकाल में स्थापत्य कला का भी खूब विकास हुआ। तुम्माण में बंकेष्वर मंदिर, रतनपुर में महामाया मंदिर तथा बुढ़ेष्वर महादेव मंदिर, खरौद में लक्ष्मणेष्वर मंदिर, जाजल्लपुर में षिवमंदिर, राजिम के रामचंद्र का मंदिर, खल्लारी में नारायण मंदिर, एवं हाटकेष्वर महादेव तथा अन्य मंदिरों का निर्माण तथा जीर्णोंद्धार कार्य हुए है। इस समय स्थापत्य कला के प्रमुख केन्द्र रतनपुर, पाली, तुम्माण, जांजगीर, राजिम, मल्हार आदि थे।(47)

 

इस समय के मंदिरों में शैव, वैष्णव और शाक्त धर्म की मूर्तियां प्राप्त होती है। रतनपुर के अभिलेखों में मन्यक, छीतक और मंडल षिल्पकारों के नाम मिलते है। छीतक एक प्रतिभाषाली कलाकार था वह षिल्पषास्त्र का बड़ा ज्ञानी था।(48) स्पष्टतः कल्चुरिकाल में मूर्तिकला का विकास शासकों की निजी अभिरूचि एवं कलाकारों का कौषल का परिणाम कही जा सकती है।

 

निष्कर्षः-

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि छत्तीसगढ़ का कल्चुरि राजवंष के शासनकाल में चतुर्दिक विकास हुआ। जनता समृद्ध सुखी थी एवं शांतिपूर्ण ढंग से जीवन यापन कर रही थी। मंदिर निर्माण स्थापत्य कला, मूर्तिकला का सुंदर स्वरूप इस युग में विद्यमान था जिस पर स्थानीय परिवेष का प्रभाव था। इस समय के मंदिरों में शैव, वैष्णव और शाक्त धर्म की मूर्तियां प्राप्त होती है। साहित्यिक दृष्टि से भी कल्चुरि काल में छत्तीसगढ़ अत्यन्त समृद्ध था। कल्चुरि शासक साहित्य प्रेमी थे। उनके दरबार में उच्चकोटि के संस्कृत के कवि रहते थे। अभिलेखीय साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि कल्चुरि कालीन छत्तीसगढ़ षिक्षा एवं साहित्य की दृष्टि से समृद्ध था। कल्चुरि शासकों ने षिक्षा के लिये अनेक मठों का निर्माण कराया था। यहां गुरू आश्रम की परम्परा विद्यमान थी। यह क्षेत्र बाहय आक्रमणों से सुरक्षित था। यहॉं प्राचीन परंपरा के अनुरूप सांस्कृतिक विकास होता रहा। यहा की सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक दषा उन्नत थी।

 

संदर्भ:-

1.       मिराषी, वासुदेव विष्णु, कापर्स इन्क्रिप्षन इंडीकेरम उटकमंड भाग-4, 1955, पृ. 9, 

2.       रायबहादुर, हीरालाल, एपीग्राकिया इंडिका, पृ. 40

3.       पूर्वोक्त, पृ. 41

4.       कनिंघम, अलेक्जेंडर, इन आर्केयोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट, खंड 17, 1878, पृ. 69

5.       यदु, हेमू, छत्तीसगढ़ का गौरवषाली इतिहास, बी. आर. पब्लिषिंग कार्पो. दिल्ली, 2006,पृ. 41

6.       वर्मा, भगवान सिंह, छत्तीसगढ़ का इतिहास, मध्यप्रदेष हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल, 2003,पृ.34

7.       वीरेन्द्र सिंह, छत्तीसगढ़ विस्तृत अध्ययन, अरिहंत पब्लिकेषन मेरठ, 2008, पृ. 227

8.       बेहार, रामकुमार छत्तीसगढ़ का इतिहास, छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी गं्रथ अकादमी रायपुर, 2009, पृ. 80

9.       पाण्डेय, ऋषि राज, दक्षिण कोसल के कल्चुरि, छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी गं्रथ अकादमी रायपुर, 2008, पृ. 63

10.    पूर्वोक्त, पृ. 64-65

11.    वीरेन्द्र सिंह, पूर्वोक्त, पृ. 227

12.    वर्मा, राजेन्द्र, रायपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, 1973, पृ.61

13.    शुक्ला, सुरेषचंद्र, पूर्वोक्त, पृ. 26

14.    पूर्वोक्त, पृ. वही

15.    मिश्र, रमेन्द्रनाथ पूर्वोक्त, पृ. 41

16.    एपीग्राफिया इंडिका, जिल्द 19, पृ. 75

17.    एपीग्राफिया इंडिका (संपादक) कीलहार्न, भाग 1, पृ. 33

18.    मिराषी, वा.वि., कार्पस इन्सिक्रप्षन इंडिकेरम, भाग 4, खण्ड 2, पृ. 501

19.    शुक्ला, सुरेषचंद्र, पूर्वोक्त, पृ. 26

20.    पाण्डेय, ऋषिराज, पूर्वोक्त, पृ. 173

21.    सागर, मुनिकांत, खण्डहरों का वैभव, 1959, पृ. 348

22.    ठाकुर, विष्णु सिंह, राजिम, मध्यप्रदेष हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल, 1972, पृ. 117-118

23.    मिश्र, इन्दुमति, प्रतिमा विज्ञान, 1972, पृ. 117

24.    पाण्डेय, ऋषिराज, पूर्वोक्त, पृ. 174

25.    शुक्ला, सुरेषचंद्र, पूर्वोक्त, पृ. 27

26.    पाण्डेय, ऋषिराज, पूर्वोक्त, पृ. 174

27.    शुक्ला, सुरेषचंद्र, पूर्वोक्त, पृ. वही

28.    वर्मा, भगवान सिंह, पूर्वोक्त, पृ. 46

29.    शुक्ला, सुरेषचंद्र, पूर्वोक्त, पृ. 27

30.    वर्मा, भगवान सिंह, पूर्वोक्त, पृ. वही

31.    शुक्ला, सुरेषचंद्र, पूर्वोक्त, पृ. 27

32.    पाण्डेय, ऋषिराज, पूर्वोक्त, पृ. 180

33.    एपीग्राफिया इंडिका, वाल्युम-1, पृ. 39

34.    मिराषी, वा.वि.,कार्पस इंस्क्रिप्सनम, इंडिकेरम, खंड-4, 1955, पृ. 421

35.    पाण्डेय, ऋषिराज, पूर्वोक्त, पृ. वही

36.    पूर्वोक्त, पृ. वही

37.    वीरेन्द्र सिंह, पूर्वोक्त, पृ. 235

38.    शुक्ला, सुरेषचंद्र, पूर्वोक्त, पृ. 27-28

39.    पूर्वोक्त, पृ. वही

40.    गुप्त, प्यारेलाल, प्राचीन छत्तीसगढ़, पं.रविषंकर शुक्ल विष्वविद्यालय रायपुर, 1973, पृ. 305

41.    वर्मा, भगवान सिंह, पूर्वोक्त, पृ. 44

42.    पूर्वोक्त, पृ. वही

43.    वीरेन्द्र सिंह, पूर्वोक्त, पृ. 236

44.    वीरेन्द्र सिंह, पूर्वोक्त, पृ. 235

45.    वर्मा, भगवान सिंह, पूर्वोक्त, पृ. 44

46.    वर्मा, भगवान सिंह, पूर्वोक्त, पृ. 43

47.    पाण्डेय, ऋषिराज, पूर्वोक्त, पृ. 176-177

48.    पूर्वोक्त, पृ. 179

 

 

 

Received on 09.12.2023         Modified on 07.02.2024

Accepted on 16.03.2024         © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences. 2024; 12(2):77-84.

DOI: 10.52711/2454-2679.2024.00014