पंचायतीराज व्यवस्था में महिलाओं पर वैश्वीकरण का प्रभाव
डॉ. तरूण प्रताप सिंह1, निधि सिंह2
1प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष (समाजशास्त्र), एस.जी.एस. शास महाविद्यालय, सीधी (म.प्र.)
2शोधार्थी (समाजशास्त्र), शास ठा.र.सिंह महाविद्यालय, रीवा (म.प्र.)
*Corresponding Author E-mail:
ABSTRACT:
भारत गांवों का देश है। गॉवों की उन्नति और प्रगति पर ही भारत की उन्नति प्रगति निर्भर करती है। गॉधी जी ठीक कहा था कि ‘‘यदि गॉव नष्ट होते है तो भारत नष्ट हो जाएगा।’’ भारत कें संविधान-निर्माता भी इस तथ्य से भलीभांति परिचित थे। अतः हमारी स्वाधीनता को साकार करने और उसे स्थायी बनाने के लिए ग्रामीण शासन व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान दिया गया। हमारे संविधान में यह निदेश दिया गया है कि ‘‘राज्य ग्राम पंचायतों के निर्माण के लिए कदम उठाएगा और उन्हें इतनी शक्ति और अधिकार प्रदान करेगा जिससे कि वे (ग्राम पंचायत) स्वशासन की इकाई के रूप में कार्य कर सकें।’’ वस्तुतः हमारा जनतंत्र इस बुनियादी धारणा पर आधारित है कि शासन के प्रत्येक स्तर पर जनता अधिक से अधिक शासन कार्यो में हाथ बंटाए और अपने पर, राज करनेकी जिम्मेदारी स्वयं झेले। भारत में जनतंत्र का भविष्य इस बात पर निर्भर काता है कि ग्रामीण जनों का शासन से कितना अधिक प्रत्यक्ष और सजीव सम्पर्क स्थापित हो जाता है? दूसरे शब्दों में, ग्रामीण भारत के लिए पंचायती राज ही एकमात्र उपयुक्त योजना है। पंचायतें ही हमारे राष्ट्रीय जीवन की रीढ़ है। दिल्ली की संसद में कितने ही बड़े आदमी बैठें। लेकिन असल में ‘पंचायतें’ ही भारत की चाल बनाएंगी। पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने ठीक ही कहा था कि ‘‘यदि हमारी स्वाधीनता को जनता की आवाज की प्रतिध्वनि बनना है तो पंचायतों को जितनी अधिक शक्ति मिले, जनता के लिए उतनी ही भली है।
KEYWORDS: ग्रामीण विकास, पंचायतीराज, आधारभूत सुविधाएँ।
प्रस्तावना:-
पंचायती राज के पीछे जो विचारधारा निहित थी, वह यह है कि गांवों के लोग अपने ऊपर शासन करने का उत्तरायित्व स्वंय संभालें। यही एक महान् आदर्श है जिसे प्राप्त किया जाना था। यह आवश्यक है किं गावांे में रहने वाले लोग कृषि, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा सिंचाई पशुपालन, आदि से सम्बन्धित विकास क्रियाओं सें सक्रिय रूप से भाग लें। ग्रामीण लोग न केवल कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में ही भाग लंे, अपितु उन्हें यह अधिकार भी होना चाहिए कि वे अपनी आवश्यकताओं और अनिवार्यताओं के विषय में स्वयं ही निर्णय की शक्ति भी प्रदान करें। लोग अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से स्थानीय नीतियों का निर्धारण करें और जनता की वास्तविक आवश्यकओं का ध्यान रखते हुए उनके अनुसार ही अपने कार्यक्रमों को लागू करें। इस प्रकार, देश की जड़ो तक लोकतंत्र को प्रवेश कराया गया। इसके अन्तर्गत जनता के नीचे से नीचे स्तर पर स्थित लोग भी देश के प्रशासन से सम्बद्ध हो जाते। पंचायती राज की संस्थाओं के माध्यम से स्थानीय लोग न केवल नीति का निर्धारण करते अपितु उसके क्रियान्वयन तथा प्रशासन का नियन्त्रण एवं मार्गदर्शन भी करते। भारत गावों का देश है, इसी कारण से स्वतंत्रता के पश्चात ग्रामीण विकास शासन की प्राथमिकताओं में प्रमुख रहा है। गॉंवों के विकास पर ही भारत का विकास निर्भर है। भारत देश में ग्रामीण, नगरीय एवं जनजातीय संस्कृतियॉं पाई जाती है भारत गावों की तथा लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की सफलता के लिए पंचायती राज महत्वपूर्ण साधन है इसीलिए गावों को ज्यादा से ज्यादा अधिकार संपन्न बनाने की आवश्यकता है ग्राम सभा विकास की अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभा सके इसके लिए जरूरी है कि हम सभी समझ लें कि विकास आखिर है क्या? विकास का मतलब है गरीबों और पिछड़े लोगों की स्थिति में सुधार लाना ओर समाज में उनका दर्जा बेहतर बनाना पंचायत एवं ग्रामीण विभाग के अन्तगर्त पंचायत राज संचालनालय की स्थापना का उद्देश्य ग्राम पंचायतों को सशक्त बनाना है। संविधान के अनुच्छेद 40 में लिखा गया है। कि राज्य पंचायतों के निर्माण का कदम उठायेगा और उन्हे शक्ति एवं अधिकार प्रदान करेगा।
वर्तमान में वैश्वीकरण, निजीकरण, मुक्त बाजार व्यवस्था, पूंजी तथा श्रम का पलायन संरचनात्मक, समायोजन, विकेन्द्रीकरण, पुर्नसंरचना विनियमन तथा स्थानीय विकास आदि के युग में जनकल्याणकारी नीतियों का निर्धारण व क्रियान्वन अधिकतर गैर सरकारी संस्थाओं के माध्यम से किया जाता है। अतः प्रशासन के मूलभूत सिद्धांत है-समानता, न्याय, सम्पन्नता, लोकतंत्र तथा इन्हें सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है सहभागिता, विकेन्द्रीकरण, उत्तरदायित्व एवं पारदर्शिता। पिछले कुछ समय से विश्व बैंक व आर्थिक विकास सहयोग संगठन सुशासन को प्रचारित करने में सबसे आगे हैं। विश्व बैंक ने सुशासन को परिभाषित करते हुए तीन पहलुओं से संबंधित किया।
1. राजनीतिक शासन प्रणाली का रूप।
2. विकास हेतु देश के आर्थिक और सामाजिक संसाधनों के प्रबंधन में प्राधिकार प्रयोग की प्रक्रिया।
3. नीति-प्रारूपण, नीति निर्माण एवं नीति क्रियान्वन में सरकार की योग्यता।
विश्व बैंक की तरह ही आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ने भी विकासशील देशों को विकास संबंधी सहायता देने के लिए सुशासन की शर्तें रखी। इन दो संस्थाओं के अलावा वैश्विक सुशासन से संबंधित आयोग, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम व यूनेस्को जैसी संस्थाओं ने भी सुशासन के तत्वों और लक्षणों को प्रस्तुत किया। 1955 में ‘कमीशन ऑन ग्लोबल गवर्नेंस’ ने सुशासन को प्रबंधन की संपूर्णता से संबंधित किया तथा स्पष्ट किया कि लोकनीति व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक नियमों, संस्थाओं तथा घटनाओं को प्रभावित करती हैं। 1999 में दक्षिण एशिया में मानव विकास पर प्रतिवेदन से स्पष्ट होता है कि वैश्विक स्तर पर सुशासन में परिवर्तन तथा 90 के दशक में उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रभाव से वैश्विक आर्थिक व्यवस्थ में व्यापक परिवर्तन हुआ। परिणामतः वैश्विक संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नागरिक घोषणा पत्र के माध्यम से प्रशासन को सरल संवेदनशील, जबावदेह और पारदर्शी बनाने का प्रयास शुरू हुआ। आज 21वीं सदी में यह मत व्याप्त है कि सुशासन किसी राष्ट्र एवं क्षेत्र विशेष से जुड़ी अवधारणा नहीं बल्कि एक वैश्विक अवधारणा है जो गतिशील तथा परिवर्तित हो रही वैश्विक परिस्थितियों को सकारात्मकता प्रदान करने से संबंधित है। अतः उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस वातावरण में संयुक्त समन्वित मानवीय प्रयास के माध्यम से सुशासन को प्राप्त कर वैश्विक गांव को विकसित करने में सफलता प्राप्त होगी और संपूर्ण मानव समाज का विकास संभव होगा।
देश में पंचायतीय राज का शुभारंभ तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा 2 अक्टूबर 1959 को किया गया था। पंचायतीय राज की 50वीं सालगिरह को भारत सरकार ने वर्ष 2009-10 में ग्राम सभा वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया संविधान के 73 वें संशोधन अधिनियम 1992 के तहत मध्यप्रदेश राज्य मे त्रिस्तरीय पंचायतीय राज व्यवस्था लागू किये जाने के पश्चात पंचायतीय राज संस्थाओं के माध्यम से प्रदेश के ग्रामीण अंचलों के समय विकास की दृष्टि से विभिन्न विभागों द्वारा संचालित योजनाओं/कार्यक्रमों के क्रियान्वयन का दायित्व पंचायतीय राज संस्थाओं को सौंपा गया है। ग्रामीण क्षेत्र की योजनाओं के क्रियान्वयन का दायित्व पंचायतीय राज संस्थाओं को सौंपा गया है। ग्रामीण क्षेत्र की योजनाओं के क्रियान्वयन, पर्यवेक्षण और अनुश्रवण के साथ-साथ बजट और अमला भी पंचायतीय राज संस्थाएॅं ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं के निराकरण में अपनी अह्म भूमिका निभा रही है।
लोकतंत्र में सत्ता, लोक में निहित होती है, और तंत्र अथवा प्रशासन उसके अधीन होता है। हमारे देश ने आजादी केबाद लोकतंत्र कोअपनाया, लेकिन ने जाने किस तरह इसके विपरीत स्थिति होती चली गयी। सत्ता, प्रशासन के हाथों में केन्द्रित होती चली गयी, और लोक अथवा जनता अपने आप को छला सा महसूस करने लगी। विकास का पहिया तेजी से घूमे, लोगों को उनके हक मिले, अब तक उपेक्षित और वंचित लोग समाज में अपनी जगह बना सकें, प्रशासनिक व्यवस्था सही ढंग से अपना कार्य करें, इसके लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण और विकास योजनाओं में जन सहभागिता एक अनिवार्यता भी है, जिसके लिए समय-समय पर प्रयोग भी किये गये इन्हीं प्रयोगों का परिणाम था -
पंचायती राज व्ययवस्था, जिसका उल्लेख संविधान में भी किया गया था, और जो भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में आदिकाल से ही अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता रहा था। पंचायती राज व्यवस्था भी अपने मूल स्वरूप में ग्रामीण विकास को गति देने और प्रशासन में जन सहभागिता प्राप्त करने में अपेक्षानुरूप सफलता न प्राप्त कर सकी। इसीलिए समय-समय पर इस व्यवस्था की समीक्षा कीगयी और इसके स्वरूप में परिवर्तन भी होते रहें। 72वें एवं 73वें संविधान संशोधन (1993) के उपरांत पंचायतों के स्वरूप में व्यापक और क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ।
इसी प्रकार पंचायती राज संस्थानों और स्थानीय नौकरशाही के बीच सम्बन्धसूत्रता के बारे में भी अधिनियम चुप्पी साधे हुए है। एक महत्वपूर्ण कमी पंचों एवं सरपंचोें के लिए ‘साक्षरता’ का निर्बन्धन हटा देने की है। पुराने पंचायती राज कानून में सरपंच के प्रत्याशी के लिए साक्षर होना आवश्क था। यह व्यवस्था तर्कसंगत थी। वर्तमान कानून में इेस स्थान नहीं देने के कारण शयद यह हो सकता है कि इसमें अनुसुचित जाति एवं जनजाति के लोगों के लिए स्थान आरक्षित किए गए है और गांवो मे आज भी यह वर्ग सामान्यतः अशिक्षित या निरक्षर है, लेकिन यह व्यवस्था तो की हो जा सकती है कि एक बार कोई व्यक्ति पंच या सरपंच निवंचित हो जाने पर वह दुबारा इस पद के लिए तभी पात्र होगा जब वह पांच वर्षो मे साक्षर हो जाएगा। नये पंचायती राज कानून मे एक महत्वपूर्ण कमी यह है कि इसमें ‘न्याय पंचायतों’ की व्यवस्था नहीं की गई है। लेखक की मान्यता है कि 73 वां संविधान संशोधन अधिनियम बन जाने के बावजूद पंचायती रा सम्बन्धों की सफलता राज्य सरकारों की इच्छा पर निर्भर करती है।
साहित्य की समीक्षा:-
पंचायती राज संस्थाओं का ग्रामीण विकास में योगदान जिन-जिन लेखकों का रहा है उसका कुछ स्वरूप निम्न प्रकार है:-
जसप्रीत कौर सोनी (2006)1, ग्लोबलइजेशन: ब्रिजिंग डिवाइड विटवीन सिविल सोसाइटी एण्ड गुड गवर्नेंस प्रस्तुत लेख में लेखक ने सुशासन की महत्ता को स्वीकारा है। सुशासन और नागरिकों के मांगों के संबंध में प्रस्तुत लेख वैश्वीकरण और लोकतंत्र के बीच संबंध को समझने की कोशिश करता है। लेखक के अनुसार लोकतंत्र के तीन मुख्य आधार है, सरकार व्यवसायिक समुदाय और समाज। समाज के उद्देश्यों की पूर्ति व नागरिकों के दैनिक जीवन में आने वाली सामान्य जरूरतों की पूर्ति में स्थानीय नेतृत्व की अहम् भूमिका होती है साथ ही इसमें लेखक ने पंचायतीराज व्यवस्था की महत्ता को भी स्पष्ट किया है।
बी.एम. शर्मा, रूप सिंह बारेठ (2004)2, गुड गवर्नेंस, ग्लोब्लाइजेशन एण्ड सिविल सोसाइटी प्रस्तुत पुस्तक राष्ट्रीय सेमीनार में प्रस्तुत शोधपत्रों का संकलन है। यह पुस्तक सुशासन वैश्वीकरण और नागरिक समाज इन तीनों अवधारणाओं का भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में नवोदित वैश्विक व्यवस्था के संदर्भ में विश्लेषण करने का प्रयास करती है। इस पुस्तक में सुशासन वैश्वीकरण तथा नागरिक समाज की संकल्पनाओं को परिभाषित, परीक्षण व परिष्कृत करने का प्रयत्न किया गया है। विशेष रूप से भारत जैसे विकासशील देश पर इनका प्रभाव तथा इक्कीसवीं शताब्दी की चुनौतियों का इस पुस्तक में विस्तार से वर्णन किया गया है। पुस्तक में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि किस प्रकार शासन विशेष रूप से शासन में सुधार तथा इसके समाज के संबंध में बात करना आजकल परिपाटी हो गया है। इस पुस्तक में सुशासन के विभिन्न आयामों जैसे-विकास, संगठनात्मक प्रभाव, आमजनता के जीवन स्तर को सुधारने की वचनबद्धता, पारदर्शिता, सहभागिता, सामाजिक न्याय व प्रशासनिक सुधार को बहुत प्रभावशाली व सुरूचिपूर्ण ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया है।
सी.पी. बर्थवाल (2003)3, गुड गवर्नेंस इन इण्डिया प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने सुशासन’ की अवधारणा पर अत्यधिक बल दिया है। पुस्तक में लेखक ने सुशासन का अर्थ परिभाषित करते हुए उसकी प्रशासन व समाज में उसकी भूमिका को भी स्पष्ट किया है। साथ ही भारत में सुशासन, पंचायतीराज व सुशासन व वैश्वीकरण, सुशासन व लोकतंत्र, सुशासन व मानवाधिकार आदि विषयों को प्रस्तुत किया है।
पूजा शर्मा (2015)4 इन्होने अपने लघुशोध प्रबंध ग्रामीण विकास पंचायतीराज की भूमिका-महमूदपुर विकासखण्ड के विशेष संदर्भ में’’ में पंचायती राज से संबंधित पिछले कुछ वर्षो के शासन आदेशों पर अगर गौर किया जाये तो यह स्पष्ट होता है कि कई ऐसे मामलों में सरकार खुद कोई पहल नहीं करना चाहती है और कई मामलों में यदि वह पहल की इच्छुक होती है तो कई बार ऐसा लगता है कि विभिन्न शासनादेश जारी करके सरकार ऐसा दिखाना चाहती है कि वह पंचायतों की उनके अधिकार और विभाग देने के मामले में ज्यादा गंभीर है। इसी लिए जो योजना पंचायत में चलाई जाती है उसका ज्यादा से ज्यादा बी.पी.एल. वालों को लाभ समय से दिया जाना चाहिए। अतः यह कहा जा सकता है कि भारत जैसे देश में जहॉं पंचायती राज व्यवस्था लागू होती है, यदि पंचायती स्तर पर हमारा विकास होगा तो हम अवश्य ही राष्ट्रीय स्तर पर विकास करेगें क्योकि पंचायती स्तर सबसे छोटा स्तर या विकास की पहली सीढ़ी होती है, यदि पंचायती स्तर पर विकास होगा तो राष्ट्रीय आय, प्रति व्यक्ति आय, इत्यादि में वृद्धि होगी जिससे भारत के विकास में वृद्धि होगी। पंचायती व्यवस्था के अंतगर्त मिलने वाली सेवाओं या योजनाओं का लोगों तक सही से पहॅंुचने एवं उसका सही तरह से प्रयोग करने से अवश्य ही पंचायती व्यवस्था विकास करेगी, जिससे भारत विकास करेगा।
बिन्दु सिंह (2014)5 इन्होने भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण एवं पंचायती राज’’ पंचायती राज संस्थाओं के भारतीय संविधान का हिस्सा बन जाने से अब कोई भी पचायतों को दिए गए अधिकरों, दायित्वों और वित्तीय साधनों को उनसे छीन नहीं सकेगा। 73वां संविधान संशोधन न केवल पंचायती राज संस्थाओं मे संरचनात्मक एकरुपता लाने का प्रयास है बल्कि यह सुनिश्चित भी करता है कि इसमें एक ऐसा भी प्रावधान रखा गया है जिसके अन्तर्गत राज्य विधानमण्डल, यदि उचित समझें तो पिछड़ी जातियों के नागरिकों के लिए आरक्षण का प्रावधान रख सकते हैं। अब तक पंचायती राज संस्थाओं की विफलता का कारण उनके चुनाव समय पर न कराना और उन्हे बार-बार भंग या स्थागित किया जाना रहा है वर्तमान अधिनियम में इस समस्या पर समुचित ध्यान दिया गया है और उम्मीद है कि पंचायती राज संस्थान निचले स्तर पर लोकतन्त्र के कारगर उपकरण साबित होंगे क्योंकि उनके निर्वाचनों की निश्चित अवधि पर समयबद्ध व्यवस्था की गई है। इन संस्थानों को अब छह महीने से अधिक समय के लिए भंग या स्थागित नहीं किया जा सकता।
बी.मुखर्जी (1962)6, कम्युनिटी डवलपमंेट एण्ड पंचायती राज, दी इण्डियन जर्नल ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन’’ वाल्यूम 8 नं. 4 अक्टूबर-दिसम्बर 1962, पृ. 579-80 में बताया गया है कि पंचायती राज को वर्तमान भारत में लोकतंत्र के विकास के लिए आवश्यक प्रक्रिया के रूप में अपनाया जाना है।
जयप्रकाश नारायण(1961)7, स्वराज फॉर दी पीपुल’’ वाराणसी, अखिल भारत सर्व सेवा संघ, 1961, पृ. 7-8 में कहा गया है कि पंचायती राज प्रशिक्षण देकर नेतृत्व तैयार करने तक ही नहीं माना जा सकता ना ही सामुदायिक रूप में इसे सर्वोदय कार्यक्रम के रूप में अपनाया गया।
अध्ययन का उद्देश्य:-
प्रस्तुत अध्ययन के उद्देश्य निम्नलिखित हैः-
ऽ भारत में पंचायती राज व्यवस्था की संरचना, संगठन व कार्यों का अवधारणात्मक व व्यावहारात्मक विष्लेषण तथा अध्ययन करना।
ऽ पंचायती राज के माध्यम् से महिला नेतृत्व की सामाजिक, आर्थिक स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन करना।
ऽ पंचायती राज के माध्यम् से महिला नेतृत्व की राजनीतिक व प्रषासनिक स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन करना।
ऽ पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के विकास को प्रभावित करने वाले सकारात्मक एवं नकारात्मक कारकों का अध्ययन करना।
ऽ इसके प्रति भ्रान्त धारणा को स्पष्ट करना एवं जनसहभागिता को बढ़ाने का प्रयास करना
ऽ पंचायतीराज संस्थाओं के बीच समन्वयक स्थापित करते का प्रयास करना एवं उनके बीच पाये जाने वाले अन्य सम्बन्धों के बारे में जानना।
ऽ संविधान के 73 वें संषोधन अधिनियम के तहत पारित राज्यों के पंचायती राज अधिनियमों की प्रभावषीलता का महिला नेतृत्व के विकास के संदर्भ में अध्ययन करना।
ऽ पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के नेतृत्व के समग्र ग्राम पंचायत विकास में दिए जा रहे योगदान के विभिन्न आयामों का अध्ययन करना।
ऽ पंचायती राज व्यवस्था में चुने गये महिलाओं द्वारा अपने वैधानिक कार्यों को करने में सामना की जा रही समस्याओं की पहचान करना।
शोध प्रविधि:-
प्रस्तुत अध्ययन प्राथमिक एवं द्वितीयक समंको पर आधारित है। प्राथमिक आंकड़ों के संकलन के लिये विचार पूर्वक निदर्शन प्रविधि का उपयोग किया गया है। चयनित सूचनादाताओं से साक्षात्कार अनुसूची द्वारा सूचनायें संकलित की गयी है तथा सहभागी अवलोकन का भी यथा स्थान उपयोग किया गया है।
द्वितीयक आंकड़ो के लिये समाचार पत्र पत्रिका, सरकारी, सांख्यिकी आंकड़े, पुस्तके व इन्टरनेट का प्रयोग किया गया है।
तथ्यों का विश्लेषण:-
प्रस्तुत शोध पत्र में पंचायतीराज व्यवस्था में अनुसूचित जाति/जनजाति की भूमिका के बारे में जानकारी एकत्र की गयी है -
प्र. 1.: क्या आप पंचायतीराज के विषय में जानते है।
सारणी क्र. 1ः पंचायतीराज के बारे में जानकारी
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उपयुक्त तालिका से यह स्पष्ट होता है कि अनुसूचित जाति/जनजाति के लागों से पंचायतीराज के विषय में पूछने मंे पता चला कि इस बारे में लोग की 85 प्रतिशत हॉ में और 15 प्रतिशत नहीं में थी।
प्र. 2.: पंचायतीराज का गठन होने के बाद गांव का विकास हो रहा है।
सारणी क्र. 2: पंचायतीराज गठन पश्चात गांव का विकास
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उपर्युक्त तालिका में पंचायतीराज का गठन होने के बाद गांव का विकास हो रहा इस बारे में लोगो का 90 प्रतिशत हॉ में जबाब मिला और 10 प्रतिशत नहीं में जबाव प्राप्त हुआ।
प्र. 3.: पंचायतीराज के द्वारा प्रदत्त ग्राम पंचायतो के कार्य के बारे में आप जानते है।
सारणी क्र. 3: ग्राम पंचायतो के कार्य के बारे में जानकारी
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उपर्युक्त निष्कर्ष से यह स्पष्ट होता है, कि पंचायती राज के द्वारा प्रदत्त ग्राम पंचायतो के कार्यो के बारे में 65 प्रतिशत लोगो का मत हाँ है और 35 प्रतिशत लोगो का मत नही है।
प्र. 4.: क्या आप ग्राम पंचायतो को दी गई शक्तियों के बारे में जानते है।
सारणी क्र. 4: ग्राम पंचायतो के शक्तियों के बारे में जानकारी
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उपर्युक्त स्पष्ट होता है कि ग्राम पंचायतो को ही गई शक्त्यिों के बारे में 85 प्रतिशत लोगो का मत है और 15 प्रतिशत लोगो का मत नही है।
प्र. 5.: क्या आप ग्राम विकास के लिये बनने वाली योजना में ग्रामीणो से विचार विमर्श करते है।
सारणी क्र. 5: ग्राम विकास योजना की जानकारी
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उपर्युक्त स्पष्ट है कि ग्राम विकास के लिये बनने वाली योजना में ग्रामीणो से विचार विमर्श करते है, जिसमें 65 प्रतिशत लोगो का मत हाँ है और 35 प्रतिशत मत नही है।
प्र. 6.: क्या आप ने अभी तक ग्राम विकास के लिये कोई योजना तैयार कर विकासखण्ड अधिकारी या जिला अधिकारी को भेजा है।
सारणी क्र. 6: ग्राम विकास की योजना तैयार करना
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उपरोक्त सारणी से स्पष्ट है कि अभी तक ग्राम विकास के लिये जो योजनाऐं तैयार कर विकासखण्ड अधिकारी या जिला अधिकारी को भेजा है जिसमें 40प्रतिशत मत हॉ है और 60 प्रतिशत मत नहीं है।
प्र. 7.: क्या आप ग्राम पंचायत में मौजूद माध्यमिक या प्राथमिक विद्यालय का निरीक्षण या भ्रमण करने जाते है।
सारणी क्र. 7: ग्राम पंचायत में मौजूद माध्यमिक या प्राथमिक विद्यालय का निरीक्षण
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उपरोक्त सारणी से स्पष्ट है कि ग्राम पंचायत में मौजूद माध्यम से या प्राथमिक विद्यालय का निरीक्षण या भ्रमण करने जाते है जिसमें 65 प्रतिशत मत हॉ है और 35 प्रतिशत मत नहीं है।
सारणी क्र. 8: न्यादर्शों के मतांतर का सम्मिलित परिदृश्य
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विश्लेषण - उपर्युक्त आंकड़ो के विश्लेषण से निम्न महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हुये:-
ऽ प्रदर्शित ग्रामीणों में 90 प्रतिशत ग्रामीणों के घर में शौचलाय निर्मित है जबकि 10 प्रतिशत ग्रामीणों के घर पर नहीं। चयनित प्रतिदर्शित व्यक्तिक ग्राम पंचायत देवरा में सर्वाधिक 95 प्रतिशत खटखरी - 90 प्रतिशत तथा धरमपुरा में 75 प्रतिशत ग्रामीणों के घर घरेलू शौचालय है। इसी कारण देवरा ग्राम पंचायत को निर्मल ग्राम घोषित किया गया है।
ऽ 75 प्रतिशत प्रतिदर्शित ग्रामीण घरेलू शौचालय का उपयोग प्रतिदिन करते हैं जबकि 15 प्रतिशत कभी-कभी तथा 10 प्रतिशत ग्रामीणों ने घरेलू शौचालय का उपयोग कभी नहीं किया। शौचालय उपयोग न करने वालों में सर्वाधिक 40 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के है जिसका प्रमुख कारण जन्म से खुले मैदान में शौचालय जाना बताया गया। शौचालय उपयोग करने वालों मे सर्वाधिक देवरा ग्राम पंचायत के प्रतिदर्शित ग्रामीण है जिसका प्रमुख कारण जागरुकता है।
ऽ घरेलू शौचालय निर्माण के प्रेरक कारक के संबंध में सर्वाधिक 62 प्रतिशत प्रतिदर्शित ग्रामीणों ने सी.डी. या पिक्चर से प्रेरित हुये और सबसे कम 13 प्रतिशत ग्रामीणों ने कला जत्था से प्रेरित होकर शौचालय निर्माण करवाया। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग द्वारा उपर्युक्त प्रेरक कारकों का उपयोग ग्रामीणों को प्रेरित करने हेतु समय समय पर किया जाता है।
ऽ अध्ययन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न के प्रतिउŸार में 57 प्रतिशत प्रतिदर्शित ग्रामीणों ने शौचालय का आकार (जो 1 वर्ग मीटर निर्धारित है) छोटा होने के कारण ग्राम में अधिकाधिक लोगों ने घरेलू शौचालय का निर्माण नहीं कराना बताया, जबकि 28 प्रतिशत ग्रामीणों ने छत का ना होना (जो हितग्राही द्वारा स्वयं बनाने का प्रावधान है।) तथा 15 प्रतिशत ग्रामीणों ने घर गंदा होने के भय या दुर्गन्ध को घरेलू शौचालय निर्माण न कराने का प्रमुख कारण माना गया। उपर्युक्त तीनों कारकों में कुछ ग्रामीणों के दृष्टिकोण में परिवर्तन स्पष्ट परिलक्षित हुआ। जो शासन की इस महत्वाकांक्षी योजना की सार्थकता इंगित करता है।
ऽ 77 प्रतिशत प्रतिदर्शित ग्रामीण मानते है कि घर के बच्चों में घरेलू शौचालय उपयोग की प्रवृŸिा में वृद्धि हुयी है जबकि 14 प्रतिशत ग्रामीण, बच्चों के शौचालय उपयोग की प्रवृŸिा को यथावत मानते है। ग्रामीण परिवेश के नई पीढ़ी में यह परिवर्तन घरेलू शौचालय की उपयोगिता सिद्ध करता है।
निष्कर्ष एवं सुझाव:-
पंचायती राज व्यवस्था के प्रारम्भ से ही पंचायत प्रतिनिधियों एवं नौकरशाही और पंचायत प्रधासन के पदाधिकारियों के मध्य संबंध, एक ज्वलन्त् समस्या के रूप में विद्यमान रहे है। पंचायत व्यवस्था की कमियों के लिए प्रायः दोनों पात्र एक-दूसरे पर दोषारोपण करते आए है। नौकरशाह जन प्रतिनिधियों पर अनभिज्ञता एवं अज्ञानता का दोष लगाते है वही जन प्रतिनिधि नौकरशाहों पर असहयोग और उनमें हाथ से सत्ता जाने के भय के पंचायत राज की असफलता का कारण बतातें है। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत गैर-सरकारी संगठनों का भी शासकीय मशीनरी तथा पंचायतों द्वारा शंका की दृष्टि से तथा अपने एक प्रतिद्वन्दी के रूप में देखा जाता है। यह माना जाता रहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न कारणों के चलते विकास कार्यो को अंजाम देना एक दुरूह कार्य है। ऐसे कारणों में नौकरशाहों और प्रवृसकों की अल्परूचि, ग्रामीण समाज में साक्षरता की अल्प दर, मध्यान, गरीबी वे पिछड़ापन आदि उल्लेखनीय है नवीन पंचायत राज व्यवस्था में ग्राम सभी एवं ग्राम पंचायतें बहुत अधिक शक्तिशाली बनाई गई है। पंचायतो को अपने क्षेत्र में अनेक कार्यो से पेशित किया गया है अतः योजना के विभिन्न तत्वों जैसे किसी योजना के उद्देश्यों को और उन्हे लागू करने के ढंग तथा उसके लाभार्थियों के बारे में जानकारी पंचायतों को होना बहुत ही आवश्यक है। गैर सरकारी संगठन इस कार्य में अपने अनुभव से पंचायतों को योजनाओं के निर्माण में सहायता कर सकते है। इस हेतु ग्राम सभा एवं ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर वे वार्षिक, पंच वर्षीय एवं दीर्घकालीक योजनाओं के माडल्स का निर्माण कर पंचायतों को उपलब्ध करा सकते है। स्वंतत्र भारत की आजादी के पश्चात महात्मा गॉंधी ने अपने स्वतंत्रता आन्दोलन के अनुभवों के आधार पर अपने चिंतन पर आधारित, उन्होने एक ऐसे देश के रूप में भारत को देखना चाहा था। जिसकी शासन व्यवस्था के संचालन नीति-निर्धारण जैसे अत्यन्त महत्वपूर्ण मुद्दों में ग्रामीण अंचल को प्रभावी, सक्रिय एवं रचान्तमक सहभागिता का समावेश हो।
जनतांत्रिक व्यवस्था में गणों के तंत्र में ग्रामीण के द्वारा निर्वाचित गण अर्थात पंच एवं सरपंच अपने अपने ग्रामों के विकास के मुददो, योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन के प्रति अपनी जिम्मेदारी के प्रति जागृत होकर कार्य करने लगे। यथार्थ में इस पंचायतीराज को विशुद्व पंचायती राज ही बना रहने दिया जाए तो देश के ग्रामीण अंचलों को समुन्नत बनाए जाने की प्रक्रिया को अनवरत रूप से संचालित किया जा सकता है।
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Received on 21.04.2023 Modified on 04.06.2023 Accepted on 23.07.2023 © A&V Publication all right reserved Int. J. Ad. Social Sciences. 2023; 11(3):147-156. DOI: 10.52711/2454-2679.2023.00023 |