डाॅ. कुन्तल गोयल - सेवा से सृजन तक

 

डाॅ. बृजेन्द्र पाण्डेय1, शैली ओझा2

1सहायक प्राध्यापक, मानव संसाधन विकास केन्द्र, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (Ÿाीसगढ़)

2शोध-छात्रा, साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (Ÿाीसगढ़)

*Corresponding Author E-mail:   brijpandey09@gmail.com

 

सारांश

नारी सुलभ चेतना एवं समस्याओं पर केन्द्रित उनकी रचनाएँ हृदय को छू जाती है।  बातों ही बातों में यह पता ही नहीं चलता है कि कहानियों में कब समस्याओं ने भावना का रूप धारण कर चक्षुओं का सजल कर दिया।

 

शब्दकुंजीकुन्तल गोयल

 

 

 

 

हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में Ÿाीसगढ़ के साहित्यकारों ने भी अपना अमूल्य योगदान दिया है। जिनमें प्रमुख रूप से छायावाद के पं. मुकुटधर पाण्डेय, पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय, गजानन माधव मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, .. के गांधी पं. सुन्दर लाल शर्मा, डाॅ. खूबचंद बघेल, माधवराव सप्रे, शंकर शेष, हबीब तनवीर, सुरेन्द्र दुबे, विनोद शंकर शुक्ल, डाॅ. सत्यभाभा आडिल, डाॅ. निरूपमा शर्मा, जया जादवानी, डाॅ. स्नेह मोहनीश, अनुरूूईया अग्रवाल, दुर्गा हाकरे तथा तुलसीदेवी तिवारी है। इन प्रमुख साहित्यकारों में .. प्रान्त के कोरिया स्टेट के बैकुंठपुर नामक नगर में 31 दिसम्बर सन् 1935 को श्रीमती विमला देवी एवं श्री बाबूलाल जैनजलजके यहाँ लक्ष्मी रूप में पुत्री कुन्तल का जन्म हुआ। यथा नाम तथा काम को चरितार्थ करते हुए कुन्तल ने अपने क्रियाकलाप से बाल्यावस्था में ही हम उम्र बालक-बालिकाओं से कुछ अलग करने की चाह के कारण आकर्षण का केन्द्र बनी रहती थी। अध्ययन की उत्कृष्ट लालसा एवं नित नूतन कार्य करने की ललक ने मन में सेवाभाव को जन्म दिया। सेवाभाव एवं कर्Ÿाव्य परायणता के कारण विवाहोपरांत भी उनके अध्ययन में कहीं कोई रूकावट नहीं हुई और अध्ययन में विद्यावाचस्पति तक का सफर निर्बाध रूप से तय किया। पारिवारिक परिवेश साहित्यिक होने के कारण कुन्तल का साहित्य से नाता जन्म से ही रहा।  उनके परिवार में पिता बाबू लाल जैनजलजहिन्दी के प्रमुख जाने माने कवि के रूप में विख्यात थे। विरासत में मिली साहित्यिकता कुन्तल की सेवा में सृजनात्मकता का रूप ले लिया। जिसका प्रतिफल है समाज को केन्द्र बिन्दु में रखकर की गई रचनाएँ विशेष कर डाॅ. श्रीमती कुन्तल गोयल की कहानियों का प्रथम संकलनफूलों का गंधसन् 1968 में सुधि पाठकों के मध्य आता है। इस कहानी संग्रह में कुल पन्द्रह कहानियाँ है।

नारी सुलभ चेतना एवं समस्याओं पर केन्द्रित उनकी रचनाएँ हृदय को छू जाती है।  बातों ही बातों में यह पता ही नहीं चलता है कि कहानियों में कब समस्याओं ने भावना का रूप धारण कर चक्षुओं का सजल कर दिया।

 

कुन्तल गोयल के कहानी संग्रह में प्रवास कहानी संग्रह हैफूलों का गंध यह कहानी संग्रह कुल पन्द्रह कहानियों का गुलदस्ता है। जिसमेंदो किनारे’, ’छिजते हुए क्षण’, ’जागी आँखों का सपना’, ’दायरा’, ’आवरण’, ’और इसके बाद’ ’मुक्ति’, ’आरंभहीन अंत’,’फैसला’, ’एक गाँठ उलझी हुई’, ’सन्नाटा’, ’जख्म’, ’दीवार के आर-पार’, ’एक अधूरी कहानीफूलों का गंध और उदास मनहै जो विविध रूपों में मन को चेतनता प्रदान करती हैं।दो किनारेकहानी में लेखिका ने नारी मन की विवशता, उलझन उसके अंतद्र्वन्द को दर्शाने का सफल प्रयास किया है। जीवन के यथार्थ आदर्श के दो किनारों पर खड़ी नारी के अंतर्मन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए लेखिका कहती है कि ’’कहते हैं नारी को समझ पाना कठिन होता है, पर पुरूषों को समझ पाना भी तो कितना जटिल है। कब कौन सा रंग सामने आएगा कौन जाने।  और चुप-चुप रह कर अखिल के इन्हीं रूपों को समझ पाने का प्रयत्न करते-करते अपने को अधिकाधिक उलझाती जा रही हूँ।’’1

 

कहानीछिजते हुए क्षणएक रोगग्रस्त स्त्री की मनोवैज्ञानिक व्यथा है।  लेखिका ने इस कहानी के माध्यम से नारी हृदय में झांकने की कोशिश की है।  रूग्णावस्था में रहते हुए पति की विवशता अपनी अक्षमता से ग्रस्त नायिका का मन छीजते क्षण के साथ धीरे-धीरे छीजता जाता है। नारी के हृदय की दुर्बलता को व्यक्त करते हुए लेखिका कहती है कि ’’इस समय भी राशि का मन भर आया। जी चाहा कि हरीश को अपने पास बैठाकर प्यार से पूछे कि आपको मुझसे जरा भी सुख नहीं है ! बहुत दुखी हैं आप! सच ही, कुछ भी तो नहीं दे पायी हूँ मैं। उठती उमंगों में आग लगा दी है मैंने और अब बिस्तर पर पड़ी-पड़ी उससे धुँआ उठते देखती हूँ।’’2  

 

दायराकहानी मध्यमवर्गीय आर्थिक समस्याओं से जूझती नारी दो पीढ़ियों के विचारधाराओं की टकराहट को लेखिका ने इस कथा के माध्यम से व्यक्त किया है अपनी आकांक्षओं को दरकिनार कर बच्चों के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने के बाद भी माता-पिता को उपेक्षा के अतिरिक्त कुछ भी हासिल नहीं होना। इस कहानी में लेखिका ने चाची के माध्यम से नारी की मार्मिक दशा को उभरते हुए कहती हैं कि ’’मनुष्य एक-दूसरे से इतने स्नेह की कामना ही क्यों करता है कि मिलने पर रह-रह कर प्राण कसक उठते है।  क्या सबके साथ ऐसा ही होता है।’’3

 

जागती आँखों का सपनाकथा में एक नौकरी-पेशा नारी की विवशताओं समस्याओं को तथा एक ऐसे पुरूष की व्यथा को कथा के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया गया है जो नौकरी पेशा पत्नि की बेरूखी अपने काम को अधिक महत्व देने की प्रवृŸिा के कारण क्षुब्ध है। इन्ही समस्याओं से दाम्पत्य जीवन में दरार पड़ जाती है। आधुनिक परिवेश में बदलते दृष्टिकोण, घुटन-टूटन आदि समस्याओं पर लेखिका प्रकाश डालते हुए लिखती हैं ’’इसलिए कि मैं घर को घर जैसा रखना चाहता हूँ।  इससे घर लाॅज में फर्क ही क्या है? सारे-सारे दिन हम बाहर रहें और रात को थके मांदे अपनी जिन्दगी की एकरसता में डूब जायें। जिंदगी का यही अर्थ तो नहीं होता अनु!’’4

 

आवरणइस कहानी में लेखिका ने आधुनिक समाज की विचारधाराओं उसमें लिप्त आधुनिक नारी जो नारी-सुलभ गुणों का त्याग एवं पाष्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण कर अपने दायित्व का सफल निर्वहन नहीं कर पाती, ऐसे सामाजिक पारिवारिक समस्याओं को इस कहानी के माध्यम से उठाया गया है। आधुनिकता के आवरण में ढकी नारी कर्Ÿाव्य विमुख होकर अपने मातृत्व धर्म की अवहेलना तक करती है। लेखिका ने चमकते आवरण को काम करते हुए कहा है कि ’’सम्पूर्णता में जीना चाहती है मीराउसने भी तो इसी की चाहना की है पर यह सिर से पैर तक ओढ़ा गया चमचमाता आवरण इसे ही नहीं सह पा रहा है। जो कुछ भीतर है- घृणा, असंतोष और असहयोग के छोटे-बड़े रेंगतें कीड़े उजागर रूप में वह सबको सह लेगा पर इस छलावे को नहीं।’’5

 

पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वहन अपने दायित्व को पूर्ण करने के लिए अपने प्रेम की बलि देने वाले प्रेमी-पे्रमिका की कथा को लेखिका नेऔर इसके बादकहानी द्वारा बड़ी मार्मिकता से व्यक्त की है। नायिका विभा की दायित्वों के बोझ तले दबे विपिन को अपने मनःस्थिति से अवगत कराते हुए कहती हैं कि- ’’मैं जानती हूँ कि तुम्हारे कंधों पर पारिवारिक दायित्वों का बोझ है और यह भी कि बीच में अन्य कोई विकल्प नहीं आना चाहिए। पर तुम इसे व्यवधान क्यों समझते हो।  मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूँ विपिन कि तुम्हारी भावनाओं और तुम्हारी पारिवारिक स्थिति को अनदेखा कर जाऊँ।’’6

 

मुक्तिनामक कथा में रचनाकार ने मुक्त विचारधारा से नारी के व्यक्तित्व को धंुधला पड़ने देने अपने अस्तित्व को बनाए रखने में प्रयासरत रहने वाली स्त्री की मनोव्यथा को चरितार्थ किया है।  अपने व्यक्तित्व एवं विचारों के विपरीत पुरूष से विवाह पश्चात् स्वर्णा परिस्थितिवश आधुनिक विचार से मुक्त हो जाती है।  सुकुमार के माध्यम से लेखिका कहती हैं कि ’’कितनी कमजोर निकली स्वर्णा जो अपनी स्वर्ण किरणों में सहेजती अपना व्यक्तित्व ओर जिन्दगी जीने की प्रबल आकांक्षओं को एक संकुचित दायरे मे मिटा गई। सच ही वह स्वर्णा को मुक्ति मिल गई।  काश! स्वर्णा को भी मुक्ति मिल पाती।’’ 7

 

लेखिका ने अपनेआरंभहीन अंतकहानी द्वारा विवश नारी की व्यथा का चित्रण किया है। नारी की समझ को परिवार-समाज, मान-मर्यादा, सम्मान, कर्Ÿाव्य-दायित्व जैसे विचार में रखकर उसे मूक पशु बना दिया जाता है।  अपनी इच्छाओं का गला घोंटकर वह खामोशी से पारिवारिक सामाजिक शोषण को शिकार हो जाती है।  शुभा और राज को परिवारिक दबाव के फलस्वरूप अपने प्रेम की तिलांजली देनी पड़ती है।  शुभा अपने इच्छा विरूद्ध दूसरे पुरूष से विवाह को मृत्यु समान मानते हुए कहती है ’’जो मुझे जानता-पहिचानता तक नहीं, जिसे मैं पसन्द नहीं करती, कैसे उसे अपनी पूरी जिन्दगी दे दूँजिन्दगी देना क्या इतना आसान होता हैइस तरह अनिच्छा से दूसरे को जिंदगी देकर क्या मै मृत्यु को नहीं पा लूँगी? फिर उस मृत्यु को अपनाने में भय क्या जिसमें अनिच्छा का प्रश्न ही रह जाये।’’ 8

 

यह कथा पूर्णरूपेण नारी की विवशता को चित्रित करती हैफैसलाकहानी समाज परिवार में व्याप्त कुरूतियों पर प्रकाश डालती है। पुत्र-पुत्री में भेदभाव जैसी कुप्रथा को इस कथा में लेखिका ने रानू के माध्यम से उजागर किया है। कदम-कदम पर उसे एहसास दिलाया जाता है कि वह पुत्र का स्थान नहीं ले सकती।  विवाहित रानू माता-पिता भाई के प्रति अपने कर्Ÿाव्यों का पूर्णतया पालन करती है किन्तु फिर भी पिता द्वारा पुत्री को धन-दौलत की लोभी कहने पर वह अंतिम फैसले के रूप में वहाँ से चुपचाप चले जाने का निर्णय लेती है। व्यथित रानूू के मनोभाव से व्यक्त करते हुए लेखिका कहती है कि ’’कैसे बदल जाता है पुरूष का मन। क्या उसमें ऐसा कुछ भी नहीं होता जो भावनाओं से बनता है और जरा-सा ठेस लगते ही टूट-टूट कर बिखर जाता है। ममता की सी छुअन भरी एक तरलाहट। कैसे कहे गये थे बाबू के ये शब्द। कहने से पूर्व उन्होंने उसे घर की देहरी से ढकेल दिया होता बाहर तो शायद कुछ भी लगता।’’ 9

 

एक गाँठ उलझी हुईकहानी में नारी के अंर्तव्यथा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। अकारण विवाह टूट जाने से क्षुब्ध अपमानित महसूस करती रेणू के चरित्र को लेखिका ने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। अस्वीकार किए जाने पर रेणू पिता से अपनी मनोव्यथा व्यक्त करते हुए कहती है कि ’’मुझे इसमें अपमान महसूस होता है।  संबंध तय करना फिर एकाएक तोड़ देना और वह भी अकारण। विवाह नहीं जिन्दगी से मजाक करने की आदत होती है किसी-किसी की।’’ 10

 

सन्नाटानामक पारिवारिक कहानी नारी के अस्तित्व को प्रकट करती है।  परिवार में नारी का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। यदि उसके स्थान पर किसी अन्य को प्रमुखता दी जाए उसे पग-पग पर अपमानित होना पडे़ तो उसका संपूर्ण जीवन सोचनीय बन जाता है। पति-पत्नि के पवित्र अटूट संबंध के बीच कोई अन्य जाए तथा पति द्वारा अनदेखा करना नारी-मन को अकेलापन सन्नाटे से भर देता है। नारी के मन की स्थिति को व्यक्त करते हुए कहती हैं कि ’’सच पूछा जाय तो वैवाहिकी जीवन के इन छै वर्षों में उसने कुछ ऐसा नहीं पाया है जिसकी याद उसके मन में गुदगुदी मचा दे।  बस जब वह ब्याह कर आई थी तभी कुछ माह जीवन की उद्दाम लहरों पर अठखेलियाँ करते मन के भीतर सतह पर उसने देवेश का पूर्ण समर्पण पाया था’’ 11

 

इसी तरहजख्मकहानी रेवती नामक स्त्री की है जो परिवार समाज द्वारा दिए गए जख्मों से घायल है। विधवा संतानहीन रेवती पर देवर की बुरी नजर एवं उसके संपŸिा पर अधिकार करने की मंशा रेवती को क्रोधित करती है। देवर की बुरी नीयत पर रेवती कहती है कि ’’लाल जी....’’ रेवती का स्वर काँप जाता है- ’’मैं ठीक हूँ।  उनका दिया हुआ सुख भोगा है। उनका दिया हुआ दुख भी भोग लूँगी। आप चिन्ता करें।  अपने कमरे में जायँ।’’ 12

 

दीवार के आर-पारपारिवारिक संबंधों, भाई-बहन के पवित्र-रिश्ते पर लिखी गई कथा है। रिश्तों में अपनापन, मान-सम्मान, प्रेम आदि महत्व रखते हैं, वह रिश्ता चाहे खून का हो अथवा मुँहबोला। नायिका विनी की कथा भी इसी विचारधारा को व्यक्त करती है। सगे भाई अतुल भाभी से अपनेपन की आकांक्षा रखने वाली विनी को मुँहबोले भाई अजय भाभी से प्रेम अपनापन मिलता है। अजय भैया का स्वयं को करीब कहने पर विनी, भाई के प्रति अपने अगाध प्रेम को व्यक्त करते हुए कहती है कि ’’अब कहा तो कहा फिर ऐसा कभी मत कहना। बहन के लिए भाई कभी गरीब नहीं होता। बहिन का मन तभी टूटता है जब उके स्नेह को वह ऐश्वर्य से तौलता है।’’13

 

रचनाकार ने नारी के दो अलग-अलग व्यक्तित्व कोएक अधुरी कहानीके माध्यम से उजागर किया है। एक ओर रानू परिवार के पालन-पोषण के लिए स्वयं शराबी व्यक्ति के हाथों बिक जाती है, वहीं दूसरी ओर उसे राजेश के परिवार से अपनेपन की जो अपेक्षा थी वह अधुरी ही रह जाती है। राजेश जब रानू को अपने घर ले जाने आता है तो परिस्थितियों से जूझती रानू उससे कहती है ’’राज तुम इस हालत से निकाल कर कहाँ ले जाओगे? तुम्हारे मन में मेरे लिए केवल प्यार है। यदि उस दुनियाँ वालों से लोहा लेने की शक्ति हो तो वह मिट्टी के ढेले की तरह व्यर्थ ही होता है।’’14 स्त्री की शंकालु प्रवृŸिा यहाँ भी भारी पड़ती है और वास्तविकता से अनभिज्ञ होने के कारण नीलम उसे परायी स्त्री समझकर तथा बहन-भाई के स्नेह को जानते हुए प्रतिशोध की अग्नि में जलकर रानू को विषम परिस्थितियों में बेघर कर देती है। नीलम की नासमझी राजेश को पश्चाताप की ज्वाला में जलने के लिए विवश कर देती है और इस तरह बहन-भाई के स्नेह की कहानी अधूरी रह जाती है।

 

लेखिका ने कहानी संग्रहफूलों का गंधऔरउदास मनमें स्त्री के हृदय की कोमल भावनाओं को व्यक्त किया है। साधन सम्पन्न शैली तमाम खुशियों के बीच भी उदासी का अनुभव करती है। पुरानी स्मृतियाँ उसे सुखमय प्रतीत होती हैं।  शैली की मनोदशा इस प्रकार उजागर होती है, वह सोचती है ’’जीवन जीन के आकांक्षी ये कलियाँ और बोझिल उदास पुष्प का मन। किताबों में रखे सूखे फूल मुझे अतीत में लौटते हैं और आँगन में खिलते फूलों की गंध से मेरा वर्तमान सुवासित हो उठता है।’’15

 

डाॅ. कुन्तल गोयल ने अपनी कहानी संग्रहफूलों का गंधमें पारिवारिक, सामाजिक मनोवैज्ञानिक पहलुओ सभी को दर्शाने का सफल प्रयास किया है। इन्होंने जीवन के सभी पक्षों को पाठकों के समक्ष रखा है। सभी पक्ष हमारे यथार्थ जीवन से जुड़े प्रतीत होते हैं। आधुनिक जीवन शैली, बदलते रिश्ते, घुटन, असंतोष का भाव, उत्पीड़न संत्रास, नैतिकता का अवमूल्यन आदि के साथ-साथ नारी मन की कोमल भावनाएँ, स्नेह, प्रेम, त्याग आदि विषयों को भली-भाँति प्रस्तुत किया है। स्वयं नारी होने के कारण नारी के प्रति इनका दृष्टिकोण बड़ी सहजता से दृष्टिगत होता है।  इनकी कहानियों में नारी विमर्श बहुत हद तक दिखाई देते है। इनके साहित्य को नारी विमर्श केनींव का पत्थरकहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।  यह है डाॅ. कुन्तल गोयल केसेवा से सृजनतक के सफर का प्रथम भाग।

 

संदर्भ सूची:

1.            गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’दो किनारप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 2.

2.            गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’छिजते हुए क्षणप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 17.

3.            गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’दायराप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 37.

4.            गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’जागी आँखों का सपनाप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 21.

5.            गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’आवरणप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 43.

6.            गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’और इसके बादप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 46.

7.            गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’मुक्तिप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 63.

8.            गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’आरम्भहीन अंतप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 66.

9.            गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’फैसलाप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 74.

10.          गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’एक गाँठ उलझी हुईप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 78.

11.          गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’सन्नाटाप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 89.

12.          गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’जख्मप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 98.

13.          गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’दीवार के आर-पारप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 110.

14.          गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’एक अधुरी कहानीप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 119.

15.          गोयल, डाॅ. कुन्तल, ’’फूलों का गंध’’ ’फूलो का गंधप्रथम संस्करण, जैन पब्लिशिंग हाऊस, 1968, पृ.क्र. 132.

 

Received on 10.03.2018        Modified on 18.04.2018

Accepted on 25.04.2018        © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences. 2018; 6(2):91-95.