नारी मूर्तियों में केशविन्यास आभूषण वस्त्र एवं भाव-पक्ष राजीवलोचन मंदिर राजिम के विशेष संदर्भ में
सुरेश कुमार साहू1 डा मोना जैन2
1शोध छात्र प्रा. भा. इ. सं. एवं पुरातत्व, अ. श., पं. र. वि. वि., रायपुर, (छ.ग.)
2सहायक प्राध्यापक, प्रा. भा. इ. सं. एवं पुरातत्व, शास. जे. योगानन्दम् छत्तीसगढ़ महाविद्यालय,
रायपुर, (छ.ग.)
’ब्वततमेचवदकपदह ।नजीवत म्.उंपसरू
शोध सारांश
प्रथम अभिसारिका के चेहरे पर प्रेम की दिव्य आभा विराजमान है। नायिका सज-संवर कर अपने प्रियतम से मिलने जाने की आतुर है तो वही दूसरी नायिका पूर्ण श्रृंगार कर नायक के आने के इंतजार में जृंभा क्रिया में है। दोनों नायिका अपने नायक के लिए श्रृंगार करते हंै।
शब्द कुंजीरू केशविन्यास, आभूषण, वस्त्र एवं भाव-पक्ष, राजीवलोचन मंदिर, राजिम
प्रस्तावना:
छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व के पुरास्थल महान् नदियों के संगम स्थल पर स्थित है। उनमें धर्मनगरी राजिम प्रमुख है। सोंढूर एवं पैरी नदी के महानदी से मिलन होने के कारण यह स्थल त्रिवेणी संगम के नाम से जाना जाता है। महानदी के तट पर राजिम बसा है, जहाँ राजीव लोचन मंदिर है। यह छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 46 किमी. दूर पूर्व दिशा में स्थित है। वर्तमान में यह गरियाबंद जिले के क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।
राजिम प्राचीन काल से शरभपुरीय एवं पाण्डुवंशीय शासकों का कला केन्द्र रहा है, यहाँ धार्मिक तथा धर्मेतर मूर्तियों का अंकन मिलता है। ए. कनिंघम1 के द्वारा सर्वप्रथम राजिम एवं यहाँ के मंदिरों का उल्लेख किया गया। विष्णुसिंह ठाकुर2 की राजिम पुस्तक में मूर्तिकला का वर्णन मिलता है। राजीवलोचन मंदिर के प्रवेश द्वार पर प्रकोष्ठ के भित्तिखंभों में नायिका मूर्तियाँ अंकित है। इन मूर्तियों का केशविन्यास, आभूषण, वस्त्र एवं भाव-पक्ष कलात्मक है-
प्रथम नायिका:
राजीवलोचन मंदिर के प्रवेश द्वार पर प्रकोष्ठ के श्वेत भित्तिखम्भों पर उकेरी गई पाण्डुवंशीय नायिका श्रृंगार युक्त है। नायिका के पाश्र्व में सुग्गे का शिल्पांकन है, अतः यह अभिसारिका है। नायिका के चेहरे पर प्रेम की दिव्य आभा विराजमान है। नायिका के सज-संवर कर अपने प्रियतम से मिलने की आतुरता को इन शिल्प में अंकित किया है।
नायिका का केशविन्यास:
नायिका केशों को सिर के ऊपर वलय आकार और फूलों की माला से बांध कर जूड़ा बनाया है। केश महिन है। कालिदास श्रृंगार रस के कवि है, जिनके साहित्य में श्रृंगार का वर्णन मिलता है। केशों को फूलों की माला से बांध कर जूड़ा बनाया गया है। (चूड़ापाशे नवकुरबकं चारू,-मेघदूतम्, उत्तरमेघः 2) (रेखाचित्र 1)
नायिका के आभूषण:
नायिका शीर्ष पर स्वर्ण निर्मित भालपट्ट जिसमें रत्न और मोती जड़ित है, कानों में कुण्डल, कण्ठ में मुक्तावली व दोनों स्तनों के मध्य झूलते एक लड़ी वाले मुक्ताकलाप को कवि ने स्तनबन्धु कहा है।3 भुजाओं में लता आकृतियों वाला रत्न व मोती जड़ित बाजूबंद, हाथों में रत्न जड़ित कंकण, अंगुली में रत्न जड़ित अंगुलीय और पैरों में पाजेब धारण की है।(रेखाचित्र 2)
नायिका के वस्त्र:
ग्रीष्म काल में नारियाँ दुकुल वस्त्र धारण करती थी। (ऋतुसंहार, 1/14) दुकुल वस्त्र में विभिन्न प्रकार की आकृतियाॅ बनी होती है। नायिका अधोवस्त्र लहंगा धारण की है, जिसमें जरी का काम होता था। (ऋग्वेद, 2/3/6) लहंगे में जाली लगी हुई हैै। लहंगा अनेक प्रकार के पुष्प-पत्रों, लताओं, तथा वर्गाकार छींट से आकल्पित है। उत्तरीय वस्त्र दुपट्टे को पीठ की तरफ से ओढ़ी है तथा दुपट्टे में सलवटें है। नायिका लहंगे एवं दुपट्टे के साथ शिल्पांकित है।(रेखाचित्र 3)
भाव-पक्ष:
सुग्गा चोंच से नायिका के लहंगे के छोर को खींच देता है, जिससे लहंगा खुल जाता है और खुले हुए लहंगे को सजे हुए हाथों से बांधते दिखाया है। काम-भावना से अभिभूत नायिका श्रृंगार कर अपने प्रियतम से मिलने के लिए आतुर है। नायिका के पाश्र्व में सुग्गा का शिल्पांकन है। सुग्गा कामदेव का वाहन है4 अर्थात् सुग्गा काम-वासना का प्रतीक है। प्राचीन काल में संचार (संदेश) सम्प्रेषण सुग्गा के माध्यम से होता था। सुख-दुःख तथा संयोग-वियोग का संदेश सुग्गा के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाता था। नायिका नायक को संदेश सुग्गा के माध्यम से प्रेषित करती थी। नारी अपनी वेदना सुग्गा को सुनाती थी। नारी की वेदना तथा विरह पीड़ा छत्तीसगढ़ के लोक सुआगीतों5 में परिलक्षित होती है। सुग्गा चोंच से नायिका के लहंगे के छोर को खींच देता है, जिससे कि लहंगा खुल जाता है और खुले हुए लहंगे को सजे हुए हाथों से बांधते दिखाया है।
द्वितीय नायिका:
राजीवलोचन मंदिर के प्रवेश द्वार पर प्रकोष्ठ के श्वेत भित्तिखम्भों पर उकेरी गई एक अन्य पाण्डुवंशीय नायिका की मूर्ति में है, जिसमें नायक के आगमन होने की स्थिति में नायिका पूर्ण श्रृंगार कर अपने नायक का इंतजार करती है। पल्लव, पुष्प व वल्कल प्राकृतिक संसाधन का प्रयोग मण्डन तथा कस्तूरी, कुंकुम व अलक्तक का प्रयोग अंगराग के रूप किया है।6
नायिका का केशविन्यास:
नायिका ने केशों को सिर के ऊपर वलय आकार में फीते से बांध कर जूड़ा बनाया है। (रेखाचित्र 4)
नायिका के आभूषण:
नायिका शीर्ष पर स्वर्ण निर्मित भालपट्ट, कानों में कुण्डल, कण्ठ में कण्ठहार व लटकते हुए स्तनहार और कानों में चक्र कुण्डल, हाथों में कंगन, भुजाओं में बाजूबंद, कमर में करधन, उरोदाम तथा पैरों में वलय धारण किए हंै।
नायिका के वस्त्र:
नायिका कमर से ऐड़ी तक शतिका (साड़ी) और उत्तरीय चुस्त अर्धबाँहों वाली कण्चुकी पहनी है। ऊपर दुपट्टे को पीठ की तरफ से ओढ़ी है और उसे एक हाथ से लपेटकर रखा है।(रेखाचित्र 5)
भाव-पक्ष:
नायिका प्रतीक्षा में व्याकुल होकर आलस्य का अनुभव करती है। डाॅ. मुकेश गर्ग के अनुसार- ‘‘नारी की अलसाई चेष्टाएॅं रीति कवियों को इतनी प्रिय है कि मतिराम और पùाकर ने भरतकृत नाट्यशास्त्र में बताए आठ सात्विक अनुभावों में जृंभा नामक नौवां सात्विक अनुभाव और जोड़ दिया है।...प्रिय के वियोग या मोह और आलस्य के कारण क्षण-क्षण में शरीर को उभारने वाली जॅभाई, अंगड़ाई आदि क्रियाओं का स्वतः प्रकट हो जाना जृंभा है।’’7 त्रिभंगी मुद्रा में नायिका बायें हस्त को वक्ष स्थल के समीप रखे है तथा दायें हस्त को ऊपर कर अंगड़ाई ले रही है। अनुराग की स्मृतियों तथा स्वप्नों में अलसाई देह का श्रृंगार8 और काव्यमय मूर्तांकन है-
शिथिल अलसाई पड़ी छाया निशा की कांत,
सो रही थी शिशिर-कण की सेज पर विश्रांत।
उसी झुरमुट में हृदय की भावना थी भ्रांत,
जहाॅ छाया सृजन करती थी कुतूहल कांत।।9
- कामायनी वासना सर्ग
इस प्रकार नायिका पूर्ण श्रृंगार कर नायक के आने के इंतजार में जृंभा क्रिया स्वतः ही प्रकट हो जाती है।
निष्कर्ष:
नायिका सुन्दर बनने के लिए अपने रूप को सँवारती है।10 पुराकाल में नायिका अपने केशों का जूड़ा बनाती तथा विभिन्न प्रकार के पुष्पों से सजाती थी। अनेक प्रकार के आभूषण धारण करती थी तथा शतिका, कण्चुकी, दुपट््टा और लहंगा पहनती थी। वस्त्र सादे तथा लतापुष्प व छीट से आकल्पित होते थे।
प्रथम अभिसारिका के चेहरे पर प्रेम की दिव्य आभा विराजमान है। नायिका के सज-संवर कर अपने प्रियतम से मिलने की आतुरता और द्वितीय नायिका नायक के आने का इंतजार में नायिका का जृंभा अनुभाव इन शिल्प में प्रदर्शित है।
सन्दर्भ:
1. कनिंघम, ए. आर्केयोलाजिकल सर्वे आॅफ इण्डिया रिपोर्ट, वाल्यूम गअपप, दिल्ली, पुर्नमुद्रित 2000, पृ. 6-19
2. ठाकुर, विष्णुसिंह, राजिम, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, 1972 पृ. 126
3. कुमारसम्भवम्, 1/42
4. ठाकुर, विष्णुसिंह, राजिम, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, 1972, पृ. 126
5. हिन्दी में सुग्गा तथा छत्तीसगढ़ी में सुआ कहते है। छत्तीसगढ़ की नारियाँ दीवाली के पूर्व मिट्टी के सुग्गा बना कर टोकनी में रखकर गीत गाती है। नारियाँ टोकरी के बाहर गोलाकार आवृत्त में होते हैं और इसप्रकार गीत गाती है- ‘‘डाला रे डाला मोटर डाला सुआ ले जा संदेश दुरूग वाला।’’ दूसरी बानगी देखिए- ‘‘गोला रे गोला चांदी के गोला तोला देखे बर तरसे रे मोर चोला।’’
6. गुप्ता, शालिग्राम, श्रृंगार परम्परा और कला उपासना, साहित्य भवन, प्रा. लिमिटेड, इलाहाबाद, 2002, पृ. 36
7. गर्ग, मुकेश, साहित्य और सौन्दर्य बोध, कनिष्का पब्लिशर्स, डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली, 2002, पृ. 23
8. सेठी सुमनिका यक्ष संस्कृति शिल्प एवं साहित्य, राधाकृष्ण, दिल्ली, 2003 पृ. 157
9. प्रसाद, जयशंकर, कामयनी, प्रखर प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ. 73
10. आचार्य, भावना, प्राचीन भारत में रूप श्रृंगार, पब्लिकेशन स्कीम, जयपुर, 1995, पृ. 56
Received on 22.09.2017 Modified on 20.10.2017
Accepted on 02.11.2017 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Ad. Social Sciences. 2017; 5(4):265-268.