मानव जीवन में योग का महत्व
डा- श्याम सुन्दर पाल
सहायक प्राध्यापक] योग विभाग] इंदिरा गाॅधी राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति विश्वविद्यालय
अमरकंटक (म-प्र½
प्रस्तावना:
अनेक मनीषियो और अन्य उपासको की दृष्टि से जीव और परमात्मा का मिलन ही योग बताया गया है। अतः युजिम् योगे धातु से योग षब्द निष्पन्न माना जाता है परन्तु महर्षि पतंजलि ने समाधि अर्थ में योग षब्द का प्रयोग किया है। क्योकि] योग तो वैदिक परम्परा से लेकर आज तक चला आ रहा है। गीता में भगवान कृष्ण अनेक प्रकार के योगों का ज्ञान अर्जुन को प्रदान करते है और उनमें से सांख्य दर्षन तथा योग दर्षन को प्रमुख बताते हुए योग की महत्ता का प्रतिपादन करते है।
योग के बिना तो संांख्य की साधना करना कठिन है। योग से युक्त होकर अर्थात् योग निष्णात होकर मुनि लोग शीघ्र ही ब्रह्म का साक्षात्कार करते है। योग के द्वारा ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग सरल हो जाता है। योग षब्द संस्कृत के युज धातु]]से बना हुआ है जिस का सामान्य रूप से योग षब्द का अर्थ मिलना या जुड़ना होता है और यदि व्याकरण की दृष्टि से देखे तो पाण्निि के अनुसार युज् धातु तीन गुणों में पायी जाती है। युज् समाधौ दिवादिगणं] युजिर् योगे युधादिगणं और युज् संयमने चुरादिगण। क्रमषः इन तीनों धातुओं से बने योग षब्द के अर्थ भिन्न-भिन्न है। वेदान्तियों और अन्य उपासकों की दृष्टि से जीव और परमात्मा का मिलन होता है। अतः युजिर् योगे धातु षब्द निष्पन्न माना जाना चाहिए। परन्तु महर्षि पतंजलि ने समाधि अर्थ से योग षब्द प्रयोग किया है। संस्कृत वाडग्मय में इन तीनों अर्थो में योग षब्द का प्रयोग प्रायः होता रहा है। क्योंकि योग तो वैदिक परम्परा से लेकर आज तक चला आ रहा है। जैसा कि ऋग्वेद में दृष्टव्य है-’’इन्द्रः क्षेमे योग हव्य इन्द्रः’’2 और याज्ञवल्वयस्मृति में उल्लेख मिलता है कि-
’’हिरण्यगर्भो योगस्य वक्तामान्यः पुरातनः।3
हिरण्यगर्भ ही योग के सबसे प्राचीन वक्ता है। इनसे पहले योग को कहने वाला और कोई भी नहीं है इसलिए हिरण्यगर्भ को योग का आदि वक्ता तथा गुरू माना जाता है। गीता में भगवान कृष्ण अनके प्रकार के योगों का ज्ञान अर्जुन को प्रदान करते है और उनमें से सांख्य तथा योग को प्रमुख बताते हुए योग की महत्ता का प्रतिपादन करते है-
’’सन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुयोगतः।
योगयुक्तो मुनिब्र्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।4
कि योग के बिना तो सांख्य की साधना करना कठिन है। योग से युक्त होकर अर्थात् योग निष्णात] होकर मुनि लोग षीघ्र ही ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेते हैं। योग के द्वारा ब्रह्म प्राप्ति का उपाय सरल हो जाता हैं। इसलिए भगवान कृष्णा योग के महत्व को समझाते हुए अर्जुन को योगी बनने की प्रेरणा देते है।
’’तपस्विभ्योऽषिको योगी ज्ञानिभ्योऽपिमतोधिकः।
कर्मिभ्यष्चधिकों योगी तस्माद्योगी भावार्जुन।।5
हे अर्जुन! तप करने वाले ज्ञानियों और सकाम कर्म में युक्त हुए इन सभी में से योगी श्रेष्ठ है। अतः तुम योगी बन जाओं। भगवान श्रीकृष्ण के कथनों से प्रमाणित होता है कि महाभारत काल में योग का स्थान महत्वपूर्ण था।
सांख्य मतानुसार-
’’पुत्रकुत्योर्वियोगेऽपि योग इत्याभिधाीयते।।’’6
पुरूष तथा प्रकृति का पृथकत्व स्थापित कर दोनों का वियोग करके पुरूष का स्वरूप स्थित होना योग है। इसी क्रम में महर्षि पतंजलि योग परिभाषित करते हुए कहते है-’’योगष्चितवृत्तिनिरोधः।’’7 चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। अर्थात प्राप्त विषयों के अतिरिक्त विषयों से चित्त या मन को रोकर अन्तर्मुख करके अपने कारण चित्त में लीन कर देना ही योग है। अतः मन की एकाग्रता को सभी दर्षनों में ब्रह्य साक्षात्कार के लिए आवष्यक माना जाता है। योग के द्वारा ही हमारे ऋषियों तथा मुनियों ने लैकिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के सुखों को प्राप्त किया है। महर्षि पतंजलि ने इन सुखों की प्राप्ति के लिए योग के लिए योग के आठ अंगों के अनुष्ठान की प्रक्रिया बताई है-
’’यमनियमासनप्राणायाम प्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो अष्टा अग्डानि।’’ 2/29 (पतंजलि योग सूत्र)
यम] नियम] आसन] प्राणायाम] प्रत्याहार] धारणा] ध्यान ओैर समाधि ये योग के आठ अंग माने गये है। इन आठ अंगो को विवेक ख्याति का साधन माना गया है। इनके सम्यक् प्रकार के अनुष्ठान से चित्त की षुद्धि होती है और मन एकाग्र होता है और योगी के लिए मन का एकाग्र होना आवष्यक है।
पतंजलि द्वारा बताये गये योग के आठों अंग बहुत महत्वपूर्ण है। जिनमें ये यम के बिना कोई अभ्यासी योग का अधिकारी नहीं बन सकता है। यम के पालन से हमारे सामाजिक और नैतिक मूल्यों की वृद्धि होती है। यम के पाँच अंग बताये गये है-
’’अहिंसासतयास्तेयब्रह्यचर्या परिग्रहायमाः’’12
अहिंसा] सत्य] अस्तेय ब्रह्यचर्य और अपिग्रह इन सभी का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है तथा हमारे वेदों में भी उल्लिखित है। ’सत्यं वद् धर्म पर’ पतंजलि के अनुसार-
’’अहिंसा प्रतिष्ठायां सन्निधौ वैरत्यागः’’13
अहिंसा का भाव दृढ़ हो जाने पर निकटवर्ती समस्त जीव वैरभाव त्याग देते है। तथा ’’सत्यप्रतिष्ठायां-क्रियाफलाश्रयत्वम्’’14 कि सत्य की स्थिति दृढ़ हो जाने पर क्रियाफल के आश्रय का भाव जाता है। अतः सभी प्राणियों का हित करने वाला सत्य बोलना चाहिए। अस्तेय अर्थात चोरी न करना यह बौद्ध दर्षन में भी पंचषील सिद्धान्त के वर्णन में प्राप्त होता है। पतंजलि के अनुसार अस्तेय-’’अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोंपस्थानम्।’’15 ब्रह्यचर्य के विषय कहते है- ब्रह्यचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः।’’16 सब इन्द्रियों को निरोधपूर्वक ’उपस्थेद्रिय’ के संयम का नाम ब्रह्यचर्य है। अथर्ववेद में भी कहा गया है-
’’ब्रह्यचर्येण तपसादेवा मृत्युमुपध्नत।
इन्द्रो ह ब्रह्यचर्येण देवेभ्यः स्वराभरत।’’17
अर्थात ब्रह्यचर्य के पालन द्वारा देवताओं ने मृत्यु को जीत लिया तथा इन्द्र ब्रह्यचर्य के द्वार देवताओं में श्रेष्ठ बना। ब्रह्यचर्य के द्वार देवताओं में श्रेष्ठ बना। ब्रह्यचर्य के पालन से योग पूर्णता को प्राप्त होता है। इसके बाद अपिग्रह को बताते हुए कहते है कि आवष्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रहण न करना अपिग्रह है। संग्रह करना लोभ है जो योगी का गुण नहीं है।
नियम भी प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आवष्यक है तभी उसे समस्त सुखों की प्राप्ति हो सकती है। महर्षि पंतजलि के अनुसार नियम भी पाँच प्रकार के होते है- ’’षौचसन्तोषतपः स्वध्यायेष्वर प्रणिधनानिनियमाः।’’18 षैच] सन्तोष] तप] स्वाध्याय और ईष्वर प्रणिधान से नियम है। जिनमें षैच दो प्रकार का बताया गया है- आभ्यन्तर तथा ब्रह्म] योग भाष्य में भगवान वेदव्यास कहते है- ’’षौचं मृज्जलादिजनितंमेध्याभ्यवहरणादि च बाह्मम्] आभ्यन्तरं चित्तमलानामाक्षालनम्।’’19 कि मिट्टी तथा जल से षरीर तथा घर आदि की सफाई करना बाह्म षुद्धि है तथा असूया] ईष्र्या] मद मात्सर्य आदि चित्त के मल है इनका प्रक्षालन करना आन्तरिक षुद्धि है। षौच से मन एकाग्र तथा इन्द्रियाँ वष में हो जाती है। योगी के लिए संतोष भी आवष्यक है। महर्षि पतंजलि के अनुसार] ’’सन्तोषादनुत्तम सुखलाभः।’’20 अर्थात् संतोष से ही सबसे उत्तम सुख प्राप्त होता है। जब पूर्ण संतोष प्राप्त कर साधक का मन स्थिर हो जाता है तो समस्त तृष्णाओं का नाष हो जाता है और तप के द्वारा अषुद्धि का नाष होने से षरीर और इन्द्रियों की षुद्धि होती है। ’’कायेन्द्रियसिद्धिः अषुद्धिःक्षयात् तपसः।’’21 महाभारत में भी तप की महिमा को कुछ इस प्रकार कहा गया हैे।-
’’मनष्चेन्द्रियाणां चाप्यैकाग्रयं निष्चितं तपः।22
अर्थात् मन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही निष्चित रूप से तप है। स्वध्याय स्व अर्थात आत्मा (मैं) का अध्ययन चिन्तन मनन करना ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय से ही इष्ट देवता के दर्षन होते है।’’16 इसी क्रम में ईष्वर प्रणिधन को बताते हुए महर्षि पतंजलि कहते है- ’’समाधि सिद्धिरीष्वर प्रणिधानात्।’’17 अर्थात समाधि की सिद्धि ईष्वर प्रणिधान से होती है। समाधि की सिद्धि के लिए योगी को आसन की आवष्यकता होती है महर्षि पतंजलि ने तो अनेकों प्रकार के आसनों का उल्लेख किया है परन्तु कहते है- स्थिरसुखमासनम् 2/46 (पतंजलि का सूत्र) अर्थात् जिस आसन में सुखपूर्वक बैठकर देर तक साधना की जा सके वही आसन है। आसन की सिद्धि होने पर ष्वास-प्रष्वास की गति को रोकना प्राणायाम कहलाता है। ’’तस्मिन् सतिष्वास प्रष्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायाम्। 2/49 वेदान्तसार में रेचक] कुम्भक और पूरक के द्वारा प्राणवायु को निगृहित करने के उपाय को प्राणायाम बताया गया है।
’’रेचकपूरककुम्भकलक्षणाः प्राणनिग्रहोपायाः प्राणायामः।
प्राणायामक के पश्चात् साधक प्रत्याहार का अभ्यास करता है।वेदान्तसार में इसे स्पष्ट किया गया है- ’’इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यः प्रत्याहरणं प्रत्याहारः।’’21 अर्थात् इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटा लेना प्रात्याहार है। इन्द्रियों को विषयों से हटाकर मन को ईष्वर में लगाना परम लक्ष्य है। इस प्रकार आसन] प्राणायाम] प्रत्याहार आदि के द्वारा जब चित्त स्थिर हो जाए तब उसको अन्य विषयों से हटाते हुए एक ध्येेय में वृत्ति मात्रा द्वारा स्थापित करना ही धारण है। जैसा कि महर्षि पतंजलि ने कहा हैे- ’’देषबन्धः चित्तस्य धारणाः’’ और धारणा में चित्त जिस वृत्ति से ध्येय में लगता है जब वह वृत्ति इस प्रकार समान प्रवाह से लगातार उदय होती रहे कि और कोेई दूसरी वृत्ति बीच में न आये तब उसे ध्यान कहते है। ’’तत्र प्रतययैकतानताध्यानम्। 3/2 जब ध्यान में केवल ध्येय मात्र का बोध रह जाता है और स्वरूप षून्य-सा हो जाता है। वह अवस्था समाधि कहलाती है। महर्षि पतंजलि के अनुसार -
’’तदेवार्थमात्रनिर्भासं-स्वरूपशून्यमिव समाधि।’’3/3
ध्यान की अन्तिम अवस्था का नाम समाधि है। समाधिस्य साधक आत्म साक्षात्कार के द्वारा ईष्वर को प्राप्त कर लेता है इसी प्रकार गीता में ’’समत्वं योग उच्यते। तथा ’’योगः कर्मसु कौषलम्। कहकर योग की महत्व का प्रतिपादन किया गया है तथा श्रीमद्भागवत् में भगवान श्रीकृष्ण उद्धव जी को उपदेष देते हुए कहते है-
जितेन्द्रियस्य युकृतस्य जितश्रवासस्य योगिनः।
मयि धारयतष्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धः।
जब योगी इन्द्रिय प्राण और मन को वष में करने हेतु अपने चित्त को मुझमें लगाकर मेरी धारणा करने लगता है तो उसको समस्त सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है। महर्षि पतंजलि भी कहते है कि -’’समाधिभावनार्थः क्लेषतनूकरणार्यष्च।’’ यह क्रिया योग समाधि को सिद्ध करने वाला तथा अविद्या से उत्पन्न सभी कष्टों को दूर करने वाला है। इस प्रकार निष्कर्षतः हम देखते है कि भारतवर्ष में प्राचीन काल से योग का विकास हुआ है। हमारे संस्कृत वाग्डमयों में योग विद्या मोती के समान बिखरे हुए है परन्तु महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र की रचना करके अपने अनुरूप उन्हेे एक माला में पिरो दिया है। योग पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये है लेकिन पतंजलि योग का महत्व अधिक है। योग की विभिन्न पद्धतियाँ एवं उपासना आदि के द्वारा मनुष्य अपने चित्त को निर्मल कर अन्तःचेतना को जागृत कर सकता है जो ज्ञान को वृद्धि तथा चरित्र निर्माण मेें उपयोगी है जैसा कि यम] नियम आदि के पालन से क्षमा] दया] करूणा आदि के भाव स्वतः उत्पन्न हो जाते है तथा विभिन्न प्रकार के आसनों और प्राणायाम को अपनाकर मनुष्य निरोग रह सकता है धारणा] ध्यान और समाधि इन तीनों को संयम कहा गया है इसके सम्यक् रूप से पालन के द्वारा ईष्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है हमारे ऋषियों ने योग के द्वारा ही ब्रह्म साक्षात्कार को प्राप्त किया साधक योग के द्वारा ही अपने इन्द्रियों को विषयों से हटाकर तथा मन को एकाग्र कर ईष्वर में लगाता है। अतः योग साधना के द्वारा ही मानव का चतुर्दिक् विकास सम्भव है जिसके द्वारा सम्पूर्ण मानव समाज का कल्याण होगा।
सन्दर्भ ग्रंथ सूचीः
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Received on 19.01.2017 Modified on 20.02.2017
Accepted on 14.03.2017 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Ad. Social Sciences. 2017; 5(1): 29-32.