कलिकथाः वाया बाइपास’-एक नये संदर्भ में

 

शिप्रा बेग1, अलका श्रीवास्तव2

 

1शोधार्थी, .रविशंकर शुक्ल विश्व विद्यालय, रायपुर ..

2प्राचार्यशा. गोबरा महाविद्यालय, नवापारा, रायपुर (..)

 

 

अलका सरावगी के पुरस्कृत उपन्यासकलिकथाः वाया बाइपासको नये समकालीन परिपेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है। समकालीन जटिल यथार्थ की ओर इंगित करता यह उपन्यास समय को भेदने की कोशिश कर, वर्तमान बाजारवादी एवं उपभोक्तावादी संस्कृति को भविष्य के संदर्भ में जीवनगत मूल्यों को सहेजता दिखायी देता है। कलिकथाः वाया बाइपास मेंबाइपासका अर्थ आज के युगधर्म की विडम्बनाओं की ओर संकेत करना एवं उससे उत्पन्न समस्या की तरफ ध्यान आकर्षित करता है। अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के तानें बानों से बुना यह उपन्यास आधुनिकता की चुनौतियों से टकराता, और उसका हल ढूंढता एवं मानवोचित् संवेदना का मंडन करता दिखायी देता है।

 

बाइपास, भूमंडलीकरण, व्यामोह, आर्षवाक्य, जटिल यथार्थ, उपभोक्तावाद, बाजारवाद।

 

 

 

प्रस्तावना                                                                    

नवमें दशक की आधुनिक समकालीन लेखिका अलका सरावगी ने हिन्दी साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति गरिमा के साथ दर्ज करायी है। उन्होंने इस धारणा को तोड़ा है कि महिला लेखिकाएॅं या तो, घर परिवार या नारी के संबंध में लिखती है, या अपनी ही कल्पना में जीती हैं। उन्हांेने इन तमाम वर्जनाओं को तोड़ते हुए दर्शा दिया कि, प्रत्येक क्षेत्र में उनकी निरीक्षण क्षमता एवं समझ सूक्ष्म और पैनी है। उक्त आधुनिक समसामयिक विषयों को उठाकर नये प्रतिमानों का सृजन किया है।

 

दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य है, मानव! मानव अपनी भोगी हुई पीड़ा या प्रसन्नता को पूर्ण न्याय के साथ सदैव प्रकट नहीं कर पाता है। इस समकालीन जटिल समाज में मानव ने अपने आप को खो सा दिया है। अपने जीवनगत मूल्यों से दूर भागता, खुद को आधुनिकता की चादर में ढंककर, यथार्थ से आॅंखे फेरकर, उपभोक्तावादी संस्कृति के हिंडोले में बैठकर, भौतिकतावादी शिखर तक पहुॅंचने का असफल प्रयास करता दिखायी देता हैं। इसी जटिल यथार्थ से साक्षात्कार कराती लेखिका अलका सरावगी ने कलिकथाः वाया बाइपास मेंबाइपासआर्षवाक्य द्वारा नये जीवन की आकांक्षा को प्रदीप्त किया है।

जिसमें नायक किशोर बाबू और उसके मारवाड़ी परिवार की चार पीढ़ियों की सुदूर रेगिस्तान प्रदेश, राजस्थान से, पूर्व प्रदेश कलकत्ता की ओर पलायन और उससे जुड़ी उम्मीदें, पीड़ा और अन्तद्र्वन्द्व की कथा सम्मिलित है। जिसमें मानवोचित् स्वाभाविक विषमताओं, कुठाओं, और द्वन्द के साथ ही कलकता की संस्कृति एवं मारवाड़ी समाज की संस्कृति की सकारात्मक, और नकारात्मक दोनों दृष्टिकोणों को समग्रता के साथ उभारा है।कलिकथामें एक ओर मानव जीवन का मनोविज्ञान एवं उसके संवेदनशील स्वरूप को प्रस्तुत किया हैं, तो वहीं दूसरी तरफ अस्थिर राजनीतिक परिवेश, सामाजिक विडम्बना, भारतीय अर्थव्यवस्था, भूमंडलीकरण एवं पाष्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण की वास्तविकता को गहराई से अनुभव किया जा सकता है।

कलिकथाः वाया बाइपास उपन्यास के मुख्य पात्र किशोर बाबू असाधारण व्यक्तित्व के हैं। उनकी तुलना 80 वर्ष पार मुख्यमंत्री ज्योति बसु से की जा सकती हैं। परन्तु हार्ट अटैक आने के पश्चात् उनकी बाइपास सर्जरी के बाद उनकी मानसिक अवस्था असंतुलित हो जाती है। और इसी असंतुलन की दशा में वे रोज शाम होते ही पैदल-पैदल सड़क पर घूमने निकल जाते और घूमते हुए अतीत, की स्मृतियों में डूबते उतराते रहते हैं। जो उन्हें उनके कैशोर्य की दुनिया में ले जाती है, जहाॅं गांधीवादी दोस्त अमलोक और सुभाश भक्त शांतनु एवं स्वंय किशोर बाबू इन तीनों मित्रों की कहानी के साथ-साथ कलकता में अंग्रेजों के शासनकाल को दर्षाया है। जिसमें बंग-भंग आंदोलन, बंगाल का भीषण अकाल, हिन्दू - मुस्लिम दंगे, भारत - विभाजन और भारत की आजादी का स्वाभाविकता के साथ सजीव चित्रण दर्शाया है।

उपन्यास में अलका सरावगी ने भूत, वर्तमान एवं भविष्य के वर्तुलाकार चक्र को तीन कालखंडों में विभाजित किया है। जो किशोर बाबू की तीन जिंदगियों की ओर इंगित करती है। पहली जिंदगी जो वर्तमान में अपने परिवार के साथ जी रहे होते हैं। दूसरी जिंदगी जब वे मानसिक असंतुलन की दशा में अतीत की स्मृतियों में जीते हैं और तीसरी जिंदगी भविष्य की भयावह और त्रासदपूर्ण जीवन दृष्टि के प्रति है। भविष्य की इन्हीं जटिल, सामाजिक राजनैतिक, सांस्कृतिक और वैष्विक कटुतम् यथार्थ को लेखिका ने अपने इस उपन्यास में उजागर किया है। जिसमें पूंजीवाद के विस्तार तथा बहुराष्ट्रीय निगम के बढ़ते हुए प्रभाव को 21वीं सदी के परिपेक्ष्य में वर्णित किया हैं। भूमंडलीकरण के द्वारा बाजारवादी संस्कृति के आगमन को एवं उसके प्रभाव को अलका सरावगी ने बखूबी अपने इस उपन्यास में दर्षाया हैं।

‘‘हमारा समाज आज पूर्ण रूप से बाजारवादी और उपभोक्ता वादी संस्कृति के गिरफ्त हैं। यह परिघटना अचानक नहीं हुई, असल में इस लम्हें के लिये धीरे-धीरे कई साल से राष्ट्रातीत और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक जमीन पक रही थी यह भूमंडलीकरण तब आया जब साकार राष्ट्र की वैकासिक आधुनिकता अपने वायदों को पूरा करने में नाकाम हो गई। साथ ही भारतीय अभिजन अपने पष्चिमीकरण को अमेरिकीकरण के रूप में देखने के लिये तैयार हो गये।’’(1) सबसे बड़ी गंभीर चुनौतियों और प्रतिरोध का कोई प्रयत्न तक नहीं है। समाज एवं व्यक्ति को हाशिये पर ढकेलकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा स्वार्थ से परिपूर्ण लोभ एवं लालच की संस्कृति को परोसा जा रहा है। जिसके लिये राजनीतिक, सामाजिक एवं सांसकृतिक विघटन उत्तरदायी हैं। उपन्यास में अलका सरावगी द्वारा उक्त विघटन को किशोर बाबू के अन्र्तद्वन्द के रूप में व्यक्त किया है। देश की निरन्तर पतनषील राजनीतिक व्यवस्था को स्वतंत्र भारत के परिपेक्ष्य में निर्भिकता से प्रस्तुत किया हैं। इसी प्रक्रिया के संदर्भ में उपन्यास में एक स्थान पर लिखा है कि ‘‘लोगों ने यह भी समझ लिया है कि आधुनिकता एवं भौतिकता की आड़ में जिन सुविधाओं को भोग करने की आदत पड़ गई हैं, अब वही उनके कष्ट का कारण है। ऐसे लोग जो अपने गाॅंव के अमूल्य हवा, पानी, आकाश को छोड़कर शहरों में नरक जैसा जीवन बीताने आये थे। वे ऊब कर वापस गाॅंव की ओर लौट पड़े। वापस अपनी धरती की गोद में चले गये।’’(2) अतः अलका सरावगी द्वारा कंलिकथा उपन्यास में आधुनिकता की त्रासदी को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया हैं। समकालीन ज्वलंत समस्या और उसकी जड़े कितनी गहरी है इसे एक नये दृष्टिकोण से दर्शाया है। इसे भविष्य के लिये खतरे की घंटी के रूप में महसूस किया है। इसलिये उन्होंने समकालीन जटिल यथार्थ संबंधी गवेषणा को आकर्षण एवं विकर्षण दोनों रूपों मंे व्यक्त किया है। इसी संदर्भ में लेखिका ने उपन्यास में औद्योगिकीकरण के द्वारा हरियाली एवं श्रमषक्ति के हास को उल्लेखित किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘‘पृथ्वी को बचाने का अब एक ही तरीका है।’’ मशीनों के स्थान पर आदमी का श्रम ले ले और यह श्रम अधिक से अधिक हरियाली के उत्पादन में लगे। ऐसी हरियाली जिसमें किसी प्रकार के रसायन का प्रयोग हो। तब पेड़-पौधे से उत्पन्न होने वाली आक्सीजन ही इस पृथ्वी को बचा सकती है।(3) उक्त कथन द्वारा लेखिका ने वर्तमान समय की जटिलता को प्रस्तुत कर उसका समाधान भी बताया है। कि व्यक्ति आज यथार्थ की विडम्बनाओं से पलायन नहीं कर सकता। इस गंभीर वास्तविकता का सामना कर उसका समाधान ढूंढना आवष्यक है। वरना आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के लिये उनके हाथ खाली रह जायेंगे। इसके अतिरिक्त पाष्चात्य आधुनिकीकरण एवं बाजारवाद का प्रभाव राजनैतिक परिस्थितियों की देन है, इस संदर्भ में अलका सरावगी ने उपन्यास में लिखा है कि ‘‘ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत को जितना लूटा था। उससे हजार गुना लूट अब विदेशी कम्पनियाॅं हमारे देश में लूट मचा रही है।’’(4) उपन्यास के पात्र किशोर बाबू सोंचते है कि आज प्रकृति को छोड़कर सब कुछ बनावटी है। आधुनिक संस्कृति में माल, वस्तुएॅं या हथियार, नशा ही नहीं बिकता है, बल्कि आचार विचार, व्यवहार और जीवन शैली भी बिक रही है। इस कथन द्वारा अलका सरावगी जीवन मूूल्यों एवं आदर्षो को नये सिरे से स्थापित करती परिलक्षित होती है और सांस्कृतिक संपृक्ति के संदर्भ में नयी दिशा बोध प्रदान करती दिखायी देती है।

उपन्यास में लेखिका द्वारा मषीनों के कम उपयोग एवं श्रम शक्ति के अधिक उपयोग पर प्रकाश डाला गया है। भविष्य के प्रति लोगों को अगाह करते हुए अलका सरावगी ने उल्लेखित किया है कि यांत्रिकता की अतिशयोक्ति घोर एकाकी पन को बढ़ावा देगी। वहीं औद्योगिकरण के कारण बाजारवादी सामाजिक सांस्कृतिक अधोपतन का मूल्य मानव जाति को भविष्य में चुकाना पड़ेका। मानव के इसी पतन एवं भटकाव को उपन्यास कलिकथा में प्रस्तुत किया गया है। जिसमें अलका सरावगी ने अतीत को साथ लेती हुए, वर्तमान की जटिलता और भविष्य की भयावह वास्तविकता को नये कलेवर के साथ प्रस्तुत किया है।

‘‘भूमंडलीकरण एक ऐसा व्यामोह है, जो अन्तर्राष्ट्रीय, आर्थिक पूंजीवादी साम्राज्य के रूप में विकसित होता दिखाई दे रहा है। पूंजी के इस खगोलीकरण से सहज ही एक विस्थापित सांसकृतिक चेतना’’ का विकास हुआ है। जिसमें मानवउत्पादन और उपभोग करने वाला प्राणी मात्र बनकर रह गया है। जिसने अपनी राष्ट्रीय संस्कृति को नष्ट करके अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अपनी समस्त अर्जित उच्च चेतना बेचकरमाॅस कल्चर’’ की सक्रिय सदस्यता ग्रहण कर ली है।’’(5)

इस प्रकार उक्त जटिल यथार्थ द्वारा अलका सरावगी अपने उपन्यास कलिकथाः वाया बाइपास में भविष्य की इसी संभावना एवं उससे उत्पन्न अराजकता के प्रति गहरी चिंता व्यक्त करते दिखायी देती है। इस जटिल यथार्थ को सबके समक्ष उपस्थित कर एक आंदोलन को पोषित करने का महती कार्य किया है। जो इस मकड़जाल में उलझे मानव को निकालने का और उसकी कशमकश को नवीन संदर्भ में प्रस्तुत करने का सार्थक प्रयास करती परिलक्षित होती है।

कलिकथाः वाया बाइपासमेंबाइपास उपन्यास का बीज शब्द है। जिस प्रकार व्यक्ति को दिल का दौरा पड़ने पर उसके हृदय की अवरूद्ध नलियोें के स्थान पर अन्य दूसरी उप नलियों से जोड़कर एक नवीन मार्ग तैयार किया जाता है। जिससे रक्त का संचार नियमित और सुचारू रूप से हो सकें। और व्यक्ति को प्राण वायु की प्राप्ति होती है। उसी प्रकार उपन्यास के संदर्भ में जब देश में आधुनिकता एवं बाजारवादी संस्कृति से व्याप्त अराजकता, समस्याओं और विडम्बनाओं से नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की गति अवरूद्ध हो जाती है, तो नये संभावनापूर्ण उपमार्गो की तलाश कर देश, समाज एवं व्यक्ति के संदर्भ में विकास को सुचारू रूप से गति प्रदान कर स्वस्थ वातावरण निर्मित किया जाना आवष्यक है। परन्तु अपने देश के संसाधनों को बायपास कर विदेशी फंड और संसाधनों को महत्व प्रदान नहीं किया जाना चाहिये।

अतः जिस उपन्यास का अंत उक्त आर्शवाक्य से हो उसकी रचना प्रक्रिया स्वतः स्फूर्त हो जाती है। इसलिये पाठकों को यह उपन्यास अवष्य प्रभावित करेगा। और लंबे समय तक उनकी स्मृतियों में विद्यमान रहेगा। क्योंकि अलका सरावगी उपन्यास में बहुत कुछ अनकहा छोड़ देती है। जो इस उपन्यास की विशेषता है।

इस प्रकार अपनी कृति कलिकथाः वाया बाइपास के द्वारा अलका सरावगी ने समसामयिक एवं ज्वलंत यथार्थ को नये दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। अपने निर्भिक विचारों को सबके समक्ष रखते हुए आधुनिक यथार्थ का छिन्द्रान्वेषी अन्वेषण, अध्ययन एवं विवेचन प्रस्तुत कर भविष्य के संभावनापूर्ण जीवन दृष्टि को पुनः स्थापित करने का महती कार्य किया है।

संदर्भ ग्रन्थ -

1    दुबे अभय कुमार, भारत का भूमंडलीकरण, वाणी प्रकाशन, द्वितीय संस्करण 2007 पृष्ठ -23-24

2.   सरावगी अलका, कलिकथाः वाया बाइपास, आधार प्रकाशन, चतुर्थ संस्करण 2009, पृष्ठ - 215

3.   वही पृष्ठ - 214

4.   वही पृष्ठ - 18

5. कौशिक शिवशरण, दसवें दशक के हिन्दी उपन्यास और भूमंडलीकरण, अध्ययन पब्लिशर्स प्रथम संस्करण 2001, पृष्ठ - 49

 

 

Received on 18.10.2016       Modified on 20.11.2016

Accepted on 05.11.2016      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences. 2016; 4(4):175-178.