छत्तीसगढ़ की विकास के यथार्थ, सापेेेक्षिक तथा क्षेत्रीय आयाम
Absolute, Relative and Regional Dimensions of Development in Chhattisgarh
श्रीकमल शर्मा
यू.जी.सी. इमेरिटस फेलो
से.नि. प्राध्यापक, विभागाध्यक्ष एवं निदेशक जनसंख्या शोध संस्थान, सामान्य एवं व्यावहारिक भूगोल विभाग, डाॅक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) 470 003
*Corresponding Author E-mail: shrikamal.sharma@rediffmail.com
सारांश -
संसाधन-सम्पन्न छत्तीसगढ़ राज्य में निर्माण के बाद उनके दोहन की गति बहुत तेज हुई है। वर्ष 2011-12 में समस्त उत्पादित खनिजों का मूल्य देश के कुल ईंधनरहित खनिज मूल्य का 7 प्रतिशत है। वन, भूमि और जल संसाधन भी प्रचुर हैं। इसी परिपेक्ष्य में इस राज्य के विकास के तीन पक्षों - विकास की वर्तमान यथार्थ दषा एवं निर्माण के बाद प्रगति की दिषा, देष के संदर्भ में विकास की वर्तमान स्थिति तथा स्वयं राज्य में क्षेत्रीय विभिन्नता - को देखने का प्रयास किया गया है। वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अधोसंरचना स्थापित की र्गइं, योजनाएँ बनीं, फलतः वृद्धि भी हुई। प्रचलित भावों के आधार पर पिछले डेढ़ दषक में औसत वार्षिक वृद्धि 14.3 प्रतिशत और स्थिर भावों के आधार पर पिछले एक दषक में औसत वार्षिक 13.3 प्रतिषत हुई। इसी अवधि में स्थिर भावों पर आधारित प्रति व्यक्ति आय में केवल 5.0 प्रतिशत औसत वार्षिक समच्चयी वृद्धि हुई। यह राज्य की अर्थव्यवस्था के मंद वृद्धि का द्योतक है। कृषि के क्षेत्र में वृद्धि 11.8 प्रतिषत ही हुई। निर्माण उद्योगों के क्षेत्र में हुई मंद वृद्धि (12.8 प्रतिषत) राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए शुभ लक्षण नहीं है। प्रति व्यक्ति मासिक व्यय में छत्तीसगढ़ देष के औसत से काफी पीछे है। राज्य की भारी जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे है। फसलों की उत्पादकता देष की तुलना में बहुत कम है।
विकास के स्तर तथा गति में यह राज्य विकसित राज्यों से पीछे होने के साथ ही देष के औसत से काफी पीछे है। राज्य उन सभी समंकों में देष के औसत से पीछे और काफी पीछे है जो विकास के सकारात्मक सूचकांक हैं। जैसे कि प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय, कृषीय उत्पादकता, निर्माण उद्योग द्वारा विवर्धित मूल्य, शौचालय जैसी मूलभूत सुविधा, परिवहन तथा संचार के साधनों की उपलब्धि सभी में राज्य देष के औसत से बहुत पीछे है। दूसरी ओर राज्य उन समंकों में देष के औसत से काफी आगे है जो पिछड़ेपन के सूचक हैं, जैसे, गरीबी रेखा के नीचे जनसंख्या का अनुपात, कृषि श्रमिकों का अनुपात, जल-स्रोत की दूरी, भोजन पकाने में ईंधन के रूप में लकड़ी का उपयोग, जन्म, मृत्यु और प्रजननता दर आदि। इस तरह राज्य को देश की औसत दषा पाने के लिए लम्बा मार्ग तय करना है। विकास के सूचकांकों की मदद से क्षेत्रीय विशमता स्पष्ट है। जिलास्तर पर सिंचाई, साक्षरता, मानव विकास के सूचकांकों आदि में बहुत अधिक अन्तर है। यह वृद्धि असंतुलित, अपर्याप्त तथा क्षेत्रीय और अन्तर-समाज विषमता पैदा करने वाली रही है। इसका तात्पर्य है कि राज्य को विकास के मार्ग पर अभी काफी दूर जाना शेष है।
मूल शब्द - विकास के अवधारणा, डोमिनेंट-डिपेण्डेंट’, ‘क्रोड-सीमान्त’, संपोषित विकास, मानव विकास, अर्थव्यवस्था, प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति व्यय, सकल घरेलू उत्पाद, प्राथमिक आर्थिक क्रियाएं, जीवनस्तर, कृषीय उत्पादकता, साक्षरता, जन्म दर, मृत्यु दर, शिशु मृत्यु दर।
विकास के साथ असमानता का काफी घनिष्ठ सम्बन्ध है। विकास के अवधारणाओं के मंथन से स्पष्ट है कि सभी के मूल में ‘विकास का आरम्भ बिन्दु-केन्द्रित होना है‘ जहाँ से यह उस केन्द्र के प्रभाव क्षेत्र में फैलता है। इस प्रक्रिया में क्रोड-सीमान्त की स्थिति विकसित होती है। इस असमानता की स्थिति को कम करने के लिए विशेष प्रयत्न की आवश्यकता होती है। देश के वर्तमान शासन तंत्र में राजनैतिक सजगता भी एक निर्णायक कारक है जो विकास की दशा और दिशा दोनों को प्रभावित करती है। वास्तव में समान प्रादेशिक विकास के लिए नियोजन करते समय वहाँ के लोगों की आकांक्षा, क्षमता तथा उपलब्ध संसाधनों पर विचार करना चाहिए। परन्तु वास्तविकता इसके विपरीत है। राजनीतिक सजगता कम होने पर उस क्षेत्र का संसाधन सजग क्षेत्रों को निर्यात् हो जाता है और संसाधन-सम्पन्न क्षेत्र विपन्न बना रह जाता है।
ऐसे परिदृश्य विश्वस्तर से लेकर राष्ट्र, राज्य तथा बड़े प्रदेशों में देखा जा सकता है (संयुक्त मध्यप्रदेश की दशा का चित्रण देखें शर्मा 1994 तथा 2000)। इसी परिक्रल्पना के परिपेक्ष्य में छत्तीसगढ़ राज्य के विकास के तीन पक्षों - विकास की वर्तमान यथार्थ दशा एवं दिशा, देश के संदर्भ में स्थिति तथा स्वयं राज्य में क्षेत्रीय स्वरूप - को देखने का प्रयास किया गया है।
नियोजन काल में देश में प्रगति
नियोजित विकास के परिणाम मिश्रित प्रकार का रहा है। इन बहुआयामी प्रयत्नों के परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के बाद भारत ने सभी दिशाओं में बड़ी तेजी से प्रगति किया। अर्थव्यवस्था न केवल सुधरी बल्कि उसमें संरचनात्मक परिवर्तन आया। कृषि में क्रान्ति आई और देश खाद्यान्नों के आयतक से बदल कर निर्यातक बन गया। उद्योगों की स्थापना और विस्तार हुआ। फलतः देश से कच्चे माल के निर्यात के स्थान पर कारखानों में निर्मित वस्तुओं का निर्यात होने लगा। परिवहन एवं संचार के साधनों के विकास के साथ दूरियाँ कम हुईं। सामाजिक कल्याण में वृद्धि हुई। इस प्रकार लोगों का जीवनस्तर ऊँचा उठा। इन बहु आयामी विकास के समानान्तर कई समस्याएँ भी जन्मी और बढ़ रही हैं। जैसे कि विकास व्यक्तिपरक और क्षेत्रपरक रहा है। देश के सभी नागरिकों और सभी क्षेत्रों को विकास का समान लाभ नहीं मिला है। धनी और गरीबों के बीच अन्तर बढ़ा है और गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम चलाने के बाद भी देश की एक-चैथाई से अधिक जनसंख्या निर्धन है। विकास के स्तर में असमानता उभर कर आई है। इससे आगे की समस्या अधिक गंभीर है। सामाजिक-आर्थिक विकास के कारण लोगों का जीवनस्तर ऊँचा उठा। फलतः वस्तुओं की मांग बढ़ी, जिसे पूरा करने के लिए मशीनों पर आधारित बड़े पैमाने पर उत्पादन आरम्भ किया गया। खनिजों और ईंधनों का उत्खनन अभूतपूर्व गति से किया जाने लगा (शर्मा 1987)। औद्योगीकरण विकास का रामबाण माना जाने लगा। इससे उपयोगी वस्तुएँ सुलभ हुईं, साथ ही पर्यावरण का अवनयन और प्रदूषण का सिलसिला शुरू हुआ। यह प्रदूषण पर्यावरण के पुनस्र्थापित करने की क्षमता से बहुत अधिक हो रहा है जिससे विकास के आधार और उद्देश्य दोनों को खतरा उत्पन्न हो गया है ( ॅम्ब्क्ए 1987ए चच 1.2ए शर्मा 2011)।
विकास की अवधारणा
विकसित एवं विकासशील सभी प्रकार के क्षेत्र विकास के लिए प्रयत्नशील हंै। सम्प्रति ‘विकास’ शब्द काफी प्रचलित है तथा इसका अभिप्राय इतना विस्तृत साथ ही इतना विशिष्ट लिया जाता है कि आम आदमी और विषय-विशेषज्ञ दोनों ही अपने-अपने संदर्भों में इसका उपयोग करते हैं। पिछले पांच दशकों में विकास की अवधाररणा में गंभीर और आधारभूत परिवर्तन हुए हैं ;त्नककसम ंदक त्वदकपदमससपए 1983द्ध। सामान्य व्यवहार में इसका ‘वृद्धि’ के अर्थ में प्रयोग किया जाता है, जिसका मतलव है महत्वपूर्ण समझी जाने वाली वस्तु की संख्या अथवा मात्रा में सकारात्मक विस्तार। आमतौर पर ‘विकास’ शब्द के पूर्व कुछ शब्द जोड़े जाते हैं, जैसे कि आर्थिक (विकास), सामाजिक, प्रादेशिक, औद्योगिक, कृषीय विकास आदि। इन शब्दों के प्रयोग से विकास शब्द का अर्थ मानव के विशिष्ट क्रिया-क्षेत्र तक ही सीमित हो जाता है। परन्तु वास्तविकता यह है कि मानव की क्रियाओं के सभी क्षेत्र आपस में अन्तर्सम्बन्धित हैं। फलतः एक खण्ड (सेक्टर) का विकास बिना अन्य खण्डों को विकसित किए हुए संभव नहीं है। अस्तु विकास को मानव की समग्र प्रगति के अर्थ में प्रयोग किया जाने लगा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सामाजिक विकास संस्थान ने विकास को परिभाषित करने में काफी काम किया जिसे ड्र्यिूनोवस्की ने (1974, 94-95) सार रूप में प्रस्तुत किया है कि ‘विकास सामाजिक एवं आर्थिक वास्तविकता के गुणात्मक परिवर्तन तथा मात्रात्मक वृद्धि की प्रक्रिया है’। इस वास्तविकता को समाज अथवा अर्थव्यवस्था कहते हैं। वे समाज की अन्र्तनिहित सृजन की संभावनाओं को विकसित करने को ही विकास मानते हैं। अस्तु वे दशाएं एवं परिस्थितियाँ जो सृजनशीलता को बढ़ा कर जनकल्याण को बढ़ावा देती हैं, उन्हें ही विकास कह सकते हैं। इस प्रकार ‘सम्पूर्ण समाज और सामाजिक व्यवस्था का श्रेष्ठतर दशा अथवा अधिक मानवीय दशा की ओर सतत उत्थान करना ही विकास है’।
इन अर्थो में विकास आर्थिक वृद्धि, आधुनिकीकरण आदि अवधारणाओं से नितान्त भिन्न हैै तथा इसके अर्थ में विकास के तीन नाभिक मूल्योंः जीवन-निर्वाह, आत्म-सम्मान और दासता से मुक्ति समाहित है। आज विकास के चिन्तन में पर्यावरण की गुणवत्ता को अहम् स्थान मिला है तथा अब पर्यावरण संतुलन को विकास का एक अंग के रूप में स्वीकारा गया है। इसके लिये यह आवश्यक है कि ये परिस्थितियाँ ऐसी हो जिनमें समाज का प्रत्येक सदस्य अर्थपूर्ण समग्र सामाजिक-आर्थिक कार्यो में अपने इच्छानुसार सहभागी हो सके और जिससे समाज के अन्य सदस्यों पर अथवा पर्यावरण पर अनावश्यक दबाब न पड़े ;त्पेजए 1980ए 103द्ध।
सम्पोषित विकास की अवधारणा
विकास का पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को सीमित करने तथा संसाधनों की अविरल आपूर्ति बनाए रखने के उद्देश्य से सन् 1990 के दशक से इसकी सम्पोषकता पर जोर दिया जाने लगा और ‘संपोषित’ ;ैनेजंपदंइसमद्ध शब्द विकास का एक महत्वपूर्ण विशेषण बन गया। संपोषित विकास की अवधारणा का मूल मंत्र है प्राकृतिक संसाधनों का उनकी पुनः भरपाई की क्षमता के अनुसार इस तरह उपयोग करना जिससे इसकी सतत् आपूर्ति बनी रहे ;प्न्ब्छए 1987द्ध। अधिकांश प्रकार के विकास उन पर्यावरणीय संसाधनों का क्षरण करते हैं जिन पर वे निर्भर होते हैं ;ॅब्म्क्ए 1987द्ध। यह न केवल वर्तमान आर्थिक-विकास को दुर्बल बनाता है बल्कि भविष्य की संभावनाओं को अत्यधिक घटा देता है। इस कारण संपोषित विकास में मूलतः दो बातों पर जोर दिया गया है- मानव की मूल आवश्यकताओं की संतुष्टि तथा दूसरे पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना। सामाजिक संदर्भो में संपोषकता का तात्पर्य उत्पादन-संरचना और संबंधों वाली ऐसी प्रगतिशील अर्थव्यवस्था और सामाजिक तंत्र से है जो आय, शक्ति और अवसरों का समान वितरण सुनिश्चित करके सामाजिक शांति को आधार प्रदान करता हो (कायस्थ 1993, 63)। इसे परिभाषित करते हुए कहा गया कि ‘संपोषित विकास प्रगति का वह मार्ग है जो भविष्य की संततियों की आवश्यकताओं की पूर्ति की क्षमता को बिना जोखिम में डाले हुए वर्तमान आवश्यकताएं पूरा करता है।‘ वास्तव में यह जनसाधारण-उन्मुख और प्रकृति-उन्मुख विकास की अवधारणा है जिसमें सामाजिक न्याय, जनकल्याण, जीवन की गुणवत्ता तथा पर्यावरणीय संरक्षण को आर्थिक वृद्धि के समकक्ष रखा गया है।
मानव-विकास
सन् 1990 में यूएनडीपी ने पहिली वार ह्यूमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट प्रकाशित किया था जिसमें एक परिवर्तनकारी विचार रखा गया कि राष्ट्रीय विकास को केवल राष्ट्रीय आय के आधार पर नहीं नापा जाना चाहिए, बल्कि जीवन-प्रत्याशा तथा साक्षरता को भी आधार माना जाना चाहिए। विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया का केन्द्रबिन्दु मानव है और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में केवल मानव ही सक्रिय तत्व है तथा अन्य सभी संसाधन निष्क्रिय हैं। इसीलिए आर्थिक विकास की तुलना में मानव विकास ;भ्नउंद क्मअमसवचउमदजद्ध को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। मानव की दोहरी भूमिका है। वह उत्पादन की प्रक्रिया में सर्वाधिक क्रियाशील कर्ता है साथ ही विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया का हितग्राही भी है। वह उत्पादन के लिए आवश्यक श्रम प्रदान करता है, तकनीकी का अन्वेषण करता है तथा पूँजी एकत्रित करता है, संस्थाओं की स्थापना करता है, साथ ही निर्मित वस्तुओं को बाजार भी प्रदान करता है। इस दृष्टि से मानव स्वयं विकास का अत्यावश्यक घटक है।
इसमें कहा गया कि मानव विकास का मौलिक लक्ष्य मनुष्य द्वारा ’अवसरों के चुनाव’ की सीमा को बढ़ाना है जिससे विकास अधिक प्रजातांत्रिक तथा सहभागितापूर्ण बन सके। इन अवसरों में प्रमुख हैं - स्वस्थ दीर्घ जीवन के अवसर, शिक्षित होने के अवसर तथा सम्मानजनक जीवन जीने के अवसर। इस अवधारणा का संक्षिप्त सार यह है कि विकास की प्रक्रिया मानव-केन्द्रित होनी चाहिए। कुल मिलाकर मानव के गुणवत्ता को बढ़ाना ही इसका उद्देश्य है जिससे वह अपने विकास के सुअवसरों का अधिक से अधिक लाभ ले सके। यह अवधारणा मानव संसाधन विकास की अवधारणा से अधिक विस्तृत है। मानव की आयु, ज्ञान तथा जीवनस्तर के क्षेत्र में अर्जित उपलब्धियों के आधार पर मानव विकास का स्तर ज्ञात किया जाता है ;प्।डच्त् 2011द्ध।
विकास की प्रक्रिया
उत्पादन-वृद्धि को अगर विकास की आत्मा माना जाय तो यह अन्य बातों के अलावा भूमि, श्रम, पूॅजी, तकनीकी और सांस्कृतिक धरातल पर आधारित माना जा सकता है। इन तत्वों की स्थिति और वितरण (जिसे सामान्यतया संरचना कहा जाता है) का विकास की प्रक्रिया में निर्णायक महत्व है। आर्थिक विकास के आरंभिक चरणों में संसाधनों के दोहन से ही आर्थिक विकास आरम्भ होता है। सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ ही संसाधनों के उपयोग का ढंग अधिक अच्छा, उत्पादन की विधियाँ अधिक कुशल एवं संसाधनों का बहुआयामी और सम्यक् उपयोग होने लगता है। उत्पादन के अन्य उपादानों की सुविधा के कारण कुछ क्षेत्रों में उच्च स्तरीय आर्थिक क्रियाएं विकसित हो जाती हंै। ऐसा होने पर इन क्षेत्रों के स्थानीय संसाधन उद्योगों की आवश्यकता से कम पड़ने लगते हैं और अन्य क्षेत्रों से आयात आवश्यक होता है। दूसरी ओर उद्योगरहित क्षेत्रों में उत्पादित संसाधनों की अधिकता रहती है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के क्षेत्रों के बीच ‘डोमिनेंट-डिपेण्डेंट’ का सम्बन्ध विकसित हो जाता है। इस तरह पिछड़े क्षेत्रों का पिछड़ापन मूलतः आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीति प्रेरित होता है। प्रत्येक राज्य में इस तरह की ‘क्रोड-सीमान्त’ ;बवतम.चमतपचीमतलद्ध की दशा देखी जा सकती है। संसाधन उपस्थिति के क्षेत्र के हिस्से में अपकर्षित पर्यावरण और परतंत्र अर्थव्यवस्था ही है ;ैींतउंए 2000द्ध। इन परिपेक्ष्य में छत्तीसगढ़ राज्य के विकास के स्तर के परीक्षण के लिए अर्थव्यवस्था, समाज तथा तकनीकी में हुए परिवर्तन तथा उनके स्थानिक अभिव्यक्ति की चर्चा अभीष्ट है।
छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था का निष्पादन
छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण नवम्बर सन् 2000 में हुआ। इसके पूर्व यह मध्यप्रदेश का अंग था। निर्माण के बाद इस राज्य ने आशातीत वृद्धि की है। प्रचलित भावों के आधार पर छत्तीसगढ़ राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य वर्ष 1999-2000 में 272.49 अरब रुपए था जो त्वरित अनुमान के अनुसार वर्ष 2013-14 में 1759.6 अरब रुपए आंकलित किया गया है (तालिका 1)। इस तरह पिछले डेढ़ दशक में साढ़े छः गुना (545.8 प्रतिशत) वृद्धि हुई। औसत वार्षिक वृद्धि 14.3 प्रतिशत रही। इसी अवधि में प्रति व्यक्ति आय रु. 13292 से बढ़ कर रु. 56990 हुई, जिसकी औसत वार्षिक वृद्धि (11.0 प्रतिशत) सकल उत्पाद में हुई वृद्धि से कम रही। तथापि यह सराहनीय वृद्धि है। राज्य प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से देश के औसत रु. 74380 से काफी पीछे है। इससे राज्य की गरीबी का आभास मिलता है। सन् 2011-12 के अनुमान के अनुसार राज्य की एक-तिहाई से अधिक (39.9 प्रतिशत) जनसंख्या गरीबी रेशा से नीचे है।
परन्तु यह वृद्धि का वास्तविक चित्र नहीं प्रस्तुत करता, क्योंकि प्रचलित भावों के आधार पर अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद के मूल्य में वृद्धि में मुख्य हिस्सा वस्तुओं के मूल्य वृद्धि का है। इसके विपरीत स्थिर भावों के आधार पर अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य अपेक्षया अधिक वास्तविक चित्र देता है (चित्र 1)। वर्ष 1999-2000 के स्थिर भावों के आधार पर सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य वर्ष 1999-2000 में 272.49 अरब रुपए था जो वर्ष 2004-05 में रु. 359.4 अरब रुपए हो गया। इस तरह औसत वार्षिक समच्चयी वृद्धि 9.9 प्रतिशत हुई। पुनः वर्ष 2004-05 के स्थिर भावों के आधार पर वर्ष 2004-05 में सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य 478.6 अरब रुपए से बढ़ कर वर्ष 2013-14 में 922.1 अरब रुपए है। इस तरह पिछले एक दशक में औसत वार्षिक दर 13.3 प्रतिशत हुई। इसी अवधि में स्थिर भावों पर आधारित प्रति व्यक्ति आय रु. 18559 से बढ़ कर रु. 28708 हुई। पुनः यह देश के औसत से काफी कम है। इसमें केवल 5.0 प्रतिशत औसत वार्षिक समच्चयी वृद्धि हुई। यह राज्य की अर्थव्यवस्था के मंद वृद्धि का द्योतक है।
अर्थव्यवस्था की संरचना
देश के अन्य राज्यों की भांति इस राज्य की अर्थव्यवस्था प्राथमिक आर्थिक क्रियाओं पर आधारित है; यद्यपि इनका हिस्सा घट रहा है। इस सेक्टर का प्रचलित भावों पर आधारित सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा वर्ष 1999-2000 में 37.1 प्रतिशत था जो घट कर वर्ष 2013-14 में केवल 29.9 प्रतिशत हो गया है (तालिका 2)। इसी अवधि में द्वितीयक क्षेत्र का योगदान 23.3 प्रतिशत से बढ़ कर 27.9 प्रतिशत तथा तृतीयक क्षेत्र का हिस्सा 39.6 प्रतिशत से 42.2 प्रतिशत रह गया है। यह चिन्तनीय है कि यह राज्य प्राकृतिक संसाधनों में देश के सम्पन्नतम राज्यों में है तथापि प्राथमिक क्षेत्र में विशेषकर कृषि के क्षेत्र में वृद्धि मंद हुई।
आलोच्य अवधि में प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक सेक्टरों की औसत समुच्चयी वार्षिक वृद्धि दर क्रमशः 12.5 प्रतिशत, 15.7 प्रतिशत तथा 14.8 प्रतिशत आती है (चित्र 2)। प्रचलित भावों पर आधारित सकल घरेलू उत्पाद में वार्षिक वृद्धि 14.3 प्रतिशत हुई; वहीं कृषि के क्षेत्र में वृद्धि 11.8 प्रतिशत ही हुई। कृषि में सलग्न जनसंख्या की दृष्टि से यह मंद वृद्धि चिंतनीय है। इसके विपरीत खनिज संसाधनों में मंद वृद्धि (11.5 प्रतिशत) हुई। द्वितीयक क्षेत्र में निर्माण कार्यों में बहुत तेजी से (23.5 प्रतिशत) वृद्धि हुई। इनकी तुलना में निर्माण उद्योगों के क्षेत्र में हुई मंद वृद्धि (12.8 प्रतिशत) राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए शुभ लक्षण नहीं है। यह उन्नत अर्थव्यवस्था का लक्षण नहीं है। वर्ष 2004-05 से वर्ष 2013-14 तक स्थिर भाव के आधार पर राज्य और देश की अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों की औसत वार्षिक समुच्चयी वृद्धि दर तालिका 3 अंकित है, जिनसे स्पष्ट है कि द्वितीयक क्षेत्र (निर्माण उद्योग) में राज्य विकास दर में देश से पीछे है। दूसरी ओर कृषि-समूह तथा सेवा क्षेत्र में देश से आगे है।
राज्य में प्रमुखतः खनिज आधारित उद्योग भिलाई इस्पात संयंत्र, कोरबा में भारत एल्यूमीनियम संयंत्र तथा बृहद ताप विद्युत संयत्र स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त सीमेंट संयत्र, स्पंज आयरन संयंत्र तथा रिफेक्ट्री संयंत्र भी कार्यरत है। इस राज्य में दो औद्योगिक बेल्ट का विकास हुआ है। छत्तीसढ़ के मध्य में स्थित उदीयमान दुर्ग-रायपुर औद्योगिक क्षेत्र मूलतः स्थानीय खनिजों पर आधारित है। रायपुर में रेल वैगन सुधारने का कारखाना है। राइस मिल्स तथा चमड़ा उद्योग का भी विकास हुआ है। इनके अलावा इलेक्ट्रिकल्स, रसायन उद्योग, इजींनियरिग उद्योग, इलेक्ट्रानिक्स जैसे आधुनिक उद्योग भी यहाँ स्थापित किए गए हैं। हथकरघा उद्योग भी काफी विकसित है। दूसरा क्षेत्र बिलासपुर-कोरबा का है। इस औद्योगिक क्षेत्र का तेजी से विकास भारत ऐलुमिनियम कम्पनी द्वारा कोरबा में ऐल्युमिना तथा ऐलूमिनियम के कारखाना स्थापित करने के साथ हुआ। यहाँ से प्राप्त ऐलुमिनियम पर आधारित कई उद्योग विकसित हुए हैं। कोरबा में ही राष्ट्रीय तापीय विद्युत कारपोरेशन द्वारा सुपर थर्मल पावर स्टेशन स्थापित किया गया है। इसके साथ ही सीमेंट, कागज तथा लुगदी, इलेक्ट्रिकल्स तथा इलेक्ट्रानिक्स, रसायन तथा टसर का हथकरघा उद्योग का विकास यहाँ हुआ है। रायगढ़ में जिंदल ग्रुप का स्पंज स्टील का कारखाना कार्यरत है।
आर्थिक प्रगति के सूचक
आर्थिक प्रगति जानने के लिए चार संकेतकों का सहारा लिया जा सकता है। प्रति व्यक्ति आय की तुलना में प्रति व्यक्ति मासिक व्यय को अधिक सार्थक सूचक माना जाता है। राष्ट्रीय सैम्पुल सर्वे संगठन समय-समय पर इनके आंकड़े एकत्रित करता रहता है। वर्ष 2011-12 में प्रति व्यक्ति प्रति माह व्यय ग्रामीण भागों में रु 904.04 तथा नगरीय भागों में रु 1287.17 था। प्रति व्यक्ति मासिक व्यय में छत्तीसगढ़ देश के औसत (क्रमशः रु 1287.17 तथा रु 2477.02) से काफी पीछे है। दूसरे, नगरीय प्रति व्यक्ति व्यय ग्रामीण क्षेत्र से लगभग दो गुना अधिक है। ऐसा प्रतीत होता है कि आर्थिक सुधारों का प्रभाव नगरों तक सीमित रह गया है और गांव तक पहुचना बांकी है।
चित्र 3 छत्तीसगढ़: दशमक के अनुसार प्रति व्यक्ति मासिक व्यय का औसत, 2011-12
राज्य में ही निम्न व्यय समूह और उच्च व्यय समूह के व्यय में काफी अन्तर है (चित्र 3)। वर्ष 2011-12 में ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति मासिक व्यय का उच्च 5 प्रतिशत लोगों का औसत (रु 1910) निम्न 5 प्रतिशत के औसत व्यय (रु 398) से 4.8 गुना अधिक है। यह अन्तर शहरी तथा ग्रामीणों के अन्तर की तुलना में कम है, परन्तु इसका बढ़ना चिन्तनीय है।
गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों का अनुपात भी आर्थिक दशा का एक प्रमुख संकेतक है। इस राज्य में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों का अनुपात कम हो रहा है। अनुमान है कि यहाँ सन् 1983 में आधे से अधिक (50.6 प्रतिशत) जनसंख्या इस वर्ग में थी जो घटती हुई सन् 2004-05 में 49.4 प्रतिशत तथा सन् 2011-12 में 39.33 प्रतिशत हो गई। फिर भी 104 लाख लोग अभी भी गरीबों की श्रेणी में जी रहे हैं। देश की इस वर्ग में केवल 21.9 प्रतिशत लोग हैं।
ग्रामीण भागों में रोजगार एक विकट समस्या है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार केवल 47.7 प्रतिशत लोग काम करने वालों की श्रेणी आते हैं। क्रियाशील जनसंख्या के तीन-चैथाई (74.7 प्रतिशत) का भाग्य अभी भी कृषि से जुड़ा है। इसमें 41.8 प्रतिशत भूमिहीन कृषक मजदूर हैं। काम की विविधता के बिना इनकी आय नहीं बढ़ाई जा सकती है।
संसाधनों की स्थिति
राज्य प्राकृतिक संसाधनों के भंडार की दृष्टि से काफी सम्पन्न है। इनमें खनिज तथा शक्ति के साधन, वन, भूमि तथा जल संसाधन महत्वपूर्ण हैं। खनिजों में लोह अयस्क, कोयला, बाक्साइट, डोलोमाइट, चूना तथा हीरा मुख्य हैं। साथ ही सोना तथा टिन के भी भंडार हैं। देश का लगभग 18 प्रतिशत लोह अयस्क, 17 प्रतिशत कोयला, 36 प्रतिशत टिन अयस्क तथा 11 प्रतिशत डोलोमाइट का भंडार इसी राज्य में है। समस्त उत्पादित खनिजों का मूल्य वर्ष 2011-12 में 17,480 करोड़ रुपए था जो देश के कुल ईंधनरहित खनिज मूल्य का 7 प्रतिशत है। इस दृष्टि से देश में चैथे स्थान पर खिसक गया है। उल्लेखनीय है कि खनन क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा 12.5 प्रतिशत से घट कर 8.9 प्रतिशत हो गया है।
खनिजों के साथ राज्य के 44 प्रतिशत से अधिक भाग पर वन फैले हैं। इस तरह देश और अनेक राज्यों की तुलना में यह राज्य काफी सम्पन्न है जहाँ देश के 8.4 प्रतिशत वन स्थित हैं। प्रति व्यक्ति वन-क्षेत्र 0.3 हेक्टर आता है। इनसे प्रति वर्ष रु. 200 करोड़ से अधिक राजस्व प्राप्त होता है। वनों के संरक्षण के लिए संयुक्त वन प्रबन्धन समिति जैसी व्यवस्था लागू है तथा यहाँ भी वन विकास निगम कार्यरत है; फिर भी वानिकी का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा केवल 3.6 प्रतिशत है।
राज्य का एक-तिहाई से अधिक भाग (सन् 2009-10 में 34.1 प्रतिशत) पर कृषि की जाती है तथा यह राज्य के तीन-चैथाई (73.7 प्रतिशत) से अधिक कामगारों का आश्रय है। तथापि कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सा केवल 21.5 प्रतिशत है। चावल का कटोरा कहे जाने वाले इस राज्य में चावल के अलावा गेहूँ, और मक्का प्रमुख खाद्यान्न हैं। दालों में तिवड़ा, चना, अरहर और उड़द; तिलहनों में सोयाबीन, राई-सरसों, अलसी तथा रामतिल मुख्य हैं। उल्लेखनीय है कि दलहनों तथा तिलहनों के अन्तर्गत क्षेत्र अपेक्षया बहुत कम है।
अर्थव्यवस्था के अन्य खण्डों की भांति कृषीय उत्पादन भी काफी बढ़ा है। उदाहरण के लिए इस राज्य में सन् 2004-05 में 50.2 लाख टन खाद्यान्नों का उत्पादन हुआ था जो बढ़ का सन् 2012-13 में 76.3 लाख टन हो गया। इसी अवधि में राज्य का देश के खाद्यान्न उत्पादन में हिस्सा 2.53 प्रतिशत से बढ़ कर 2.99 प्रतिशत हुआ। यह वृद्धि मुख्यतः उत्पादकता बढ़ने के कारण हुई है (तालिका 5 )। कुल खाद्यान्नों की तुलना में इस राज्य की सबसे मुख्य फसल चावल का उत्पादन और उत्पादकता अपेक्षया कम गति से बढ़ी है। फिर भी यह गति देश के औसत से अधिक है।
परन्तु यह चिन्तनीय है कि इस राज्य में फसलों की उत्पादकता बहुत कम है। उदाहरण के लिए इस राज्य में चावल की औसत प्रति हेक्टर उत्पादकता वर्ष 2012-13 में 1746 किग्रा है जबकि देश का औसत 2462 किग्रा का है। यही स्थिति अन्य फसलों की भी है (तालिका 6)। इसके कारणों में एक-फसल की प्रधानता, उन्नत बीज (चावल 22.8 प्रतिशत) तथा उर्वरकों का अल्प उपयोग (106.1 किग्रा/हे ) तथा सिंचाई का अभाव (28.3 प्रतिशत) मुख्य हैं। सीमान्त (54.0 प्रतिशत) तथा लघु (19.0 प्रतिशत) जोतकारों की प्रधानता इसके मुख्य कारण हैं जिनकी क्षमता कृषि के नवाचारों के उपभोग की नहीं है। भौतिक दशाएं अनुकूल होते हुए भी कृषि का पिछड़ा होना चिन्तनीय है। यह इसलिए कि क्षेत्रीय विकास को आधार कृषि से मिलता है जिसे मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के उदाहरण से समझा जा सकता है।
सामाजिक विकास की दशा
विकास की प्रक्रिया मानव-केन्द्रित होनी चाहिए। कुल मिलाकर मानव के गुणवत्ता को बढ़ाना ही इसका उद्देश्य है जिससे वह अपने विकास के सुअवसरों का अधिक से अधिक लाभ ले सके। मानव की आयु, ज्ञान तथा जीवनस्तर के क्षेत्र में अर्जित उपलब्धियों के आधार पर मानव विकास का स्तर ज्ञात किया जाता है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की जनसंख्या 2.56 करोड़़ है जिसमें 76.8 प्रतिशत गांवों में रहती है तथा एक-तिहाई (30.6 प्रतिशत) अनुसूचित जनजाति तथा 12.8 प्रतिशत अनुसूचित जाति वर्ग की है। साक्षरता (70.3 प्रतिशत) में राज्य में काफी प्रगति की है। सन् 1991 में कुल साक्षरता केवल 42.9 प्रतिशत थी जो बढ़ कर सन् 2001 में 64.7 प्रतिशत तथा सन् 2011 में 70.3 प्रतिशत तक पहुंच गई। सन् 1991 और 2011 के मध्य कुल पुरुष साक्षरता 58.1 प्रतिशत से 80.9 प्रतिशत तथा महिला साक्षरता 27.5 प्रतिशत से 60.2 प्रतिशत हो गई। तथापि अनुसूचित जनजाति, विशेषकर ग्रामीण महिलाओं में अभी भी साक्षरता की दशा चिन्तनीय है (तालिका 7)। प्राथमिक शालाओं की प्रति लाख जनसंख्या के पीछे संख्या देश के औसत से अधिक है एवं छात्र नामांकन का अनुपात भी अधिक है। परन्तु प्राथमिक शिक्षा के बाद शाला छोड़ने की समस्या बड़ी गंभीर है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र की उपलब्धियों में भी राज्य देश के औसत से काफी पीछे है। यह महत्वपूर्ण है कि सन् 2001 के बाद इन संकेतकों में काफी सुधार हुआ है (तालिका 8)। उदाहरण के लिए सन् 2000 तथा सन् 2011 की अवधि में राज्य में असंशोधित जन्म दर 26.7 प्रति हजार से घट कर 21.7 तथा प्रजननता दर 2.8 से घट कर 2.7 हुई है। फिर भी येे देश के औसत से पर्याप्त अधिक हैं। इसी अवधि में राज्य में असंशोधित मृत्यु दर 9.6 से 7.9 तथा शिशु मृत्यु दर 79 से कम होकर 48 रह गई है। ये दर भी देश के औसत अधिक है। राज्य में जीवन प्रत्याशा भी देश के औसत से काफी कम है। भारत सरकार द्वारा कराए गए जिलास्तरीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वितीय एवं तृतीय से स्पष्ट होता है कि प्रसवपूर्व तथा प्रसवोत्तर स्वास्थ्य सेवाओं में आशातीत वृद्धि हुई, फिर भी वर्तमान स्तर काफी नीचा ही है।
लोगों का जीवनस्तर अपेक्षित स्तर तक उठ नहीं सका है। इस राज्य में सन् 2011 में कंक्रीट की छत के नीचे रहने वाले ;16ण्7ःद्ध, निवास स्थान की परिसीमा में पेय जल की सुविधा वाले ;19ण्0ःद्ध तथा शौचालय की सुविधा वाले ;24ण्6ःद्ध, परिवारों का अनुपात देश के औसत से बहुत नीचे है। तीन-चैथाई से कम ;87ण्1ःद्ध परिवारों का सुरक्षित पेय जल की सुविधा उपलब्ध हो पाई है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात कम ;84ण्9ःद्ध है। आवास एक विकट समस्या है। इस राज्य में सन् 2011 में रिहायसी घरों में से केवल आधे से कम ;44ण्7ःद्ध घर अच्छी दशा में हैं। इन घरों में से 35 प्रतिशत एक कमरे वाले तथा एक-तिहाई (34.9 प्रतिशत) दो कमरे वाले हैं।
राज्य के विकास का देश के औसत से तुलना
राज्य के सामाजिक और आर्थिक समंक प्रगति की दिशा की ओर तेजी से बढ़ने के सूचक हैं। परन्तु इनकी सापेक्षिक दर का अनुमान किसी मानक से तुलना करने पर ही ज्ञात हो सकती है। यह मानक या तो सबसे अधिक विकसित राज्य माना सकता है अथवा देश के औसत को मानक के रूप में लिया जा सकता है। सुविधा के कारण यहाँ देश की औसत दशा को मानक मान कर उससे छत्तीसगढ़ राज्य की तुलना की जा रही है (तालिका 9)। इन सम्बन्धी सूचनाएं वर्ष 2011 से 2013 के मध्य के हैं। तुलना के लिए राज्य के समंकों को देश के औसत के प्रतिशत के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस सूचकांक का 100 से अधिक होने का तात्पर्य है कि राज्य देश की तुलना में अच्छी दशा में है।
उपरोक्त तालिका के विश्लेषण से सुस्पष्ट है कि राज्य उन सभी समंकों में देश के औसत से पीछे और काफी पीछे है जो विकास के सकारात्मक सूचकांक हैं। जैसे कि प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय, कृषीय उत्पादकता, निर्माण उद्योग द्वारा विवर्धित मूल्य, शौचालय जैसी मूलभूत सुविधा, परिवहन तथा संचार के साधनों की उपलब्धि सभी में राज्य देश के औसत से बहुत पीछे है। दूसरी ओर राज्य उन समंकों में देश के औसत से काफी आगे है जो पिछड़ेपन के सूचक है। जैसे, गरीबी रेखा के नीचे जनसंख्या का अनुपात, कृषि श्रमिकों का अनुपात, जल-स्रोत की दूरी, भोजन पकाने में ईंधन के रूप में लकड़ी का उपयोग, जन्म, मृत्यु और प्रजननता दर आदि। इस तरह राज्य को औसत दशा पाने के लिए लम्बा मार्ग तय करना है।
विकास में क्षेत्रीय विभिन्नता
विकास का एक महत्वपूर्ण आयाम इसका क्षेत्रीय स्वरूप भी है। विकास की दशा में क्षेत्रीय अन्तर जगजाहिर है। ‘क्रोड-सीमान्त’ का दृश्य उपस्थित है। विकास के ध्रुव स्थापित हैं जिनकी प्रभाविता सीमान्त पर असरहीन है। अस्तु आवश्यकता है विकास के केन्द्र में जनहित के भाव को स्थापित करने की तथा स्थानीय संसाधनों को स्थानीय विकास में लगाने की। आवास्य से आवासी को अलग देखने पर वृद्धि तो होगी परन्तु विकास नहीं तथा विषमता ही उत्पन्न होगी। विकास के सूचकांकों की मदद से इसका निरूपण किया जा सकता है। इस हेतु सूचना की उपलब्धता के कारण कुछ चुनिन्दे सूचकांकों का ही उपयोग सम्भव है। ऐसे ग्यारह सूचकांक चुने गए हैं जिनकी जिलास्तर पर सूचनाएं उपलब्ध हैं। इन सूचकों में न्यूनतम और अधिकतम मान वाले जिले, उनका मान, विचलक का माध्य, प्रामाणिक विचलन एवं माध्य के प्रतिशत के रूप में प्रामाणिक विचलन को तालिका 10 में प्रस्तुत किया गया है। इनमें जन्म दर, मृत्यु दर, शिशु मृत्य दर तथा कुल प्रजननता दर को छोड़ कर सभी विचलकों में प्रामाणिक विचलन अधिक है जो समंकों के अधिक विचलन के संकेतक हैं। इससे इन विचलकों के क्षेत्रीय विभिन्नता सुस्पष्ट है। इनका मानचित्रीय प्रदर्शन इस विभिन्नता को अधिक स्पष्ट करते हैं।
क्षेत्रीय विभिन्नता दिखाने के लिए चुने गए विचलकों में से चार को मानचित्रित किया गया है; क्योंकि तालिका क्षेत्रीय स्वरूप को नहीं दिखा पातीं। इनमें पहिला मानचित्र (चित्र 4) कुल कृषित भूमि में सिंचित भूमि का प्रतिशत हिस्सा दिखाता है। अभी भी दन्तेवाड़ा, सुकमा, नारायणपुर, कोंडागांव, बस्तर, बीजापुर तथा जशपुर जिलों में सिंचित क्षेत्र अति अल्प है। दन्तेवाड़ा में यह अज्ञात है। दूसरी ओर रायपुर, धमतरी और जांजगीर-चांपा में 70 प्रतिशत से अधिक कृषित भूमि सिंचित है। असमानता का परास 0 से 76 तक है। इसका सीधा प्रभाव कृषि के उत्पादकता पर देखा जा सकता है। राज्य में प्रति हेक्टेयर खाद्यान्न का उत्पादन नारायणपुर में 993 किग्रा है जहाँ केवल एक प्रतिशत कृषित भूमि सिंचित है। कम उत्पादकता में 1034 किग्रा हेक्टेयर खाद्यान्न पैदा कर दन्तेवाड़ा दूसरे स्थान पर है। इनके विपरीत सर्वाधिक सिंचित जांजगीर-चांपा जिले में सवसे अधिक प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी होता है। उल्लेखनीय है कि उर्वरक जैसे अन्य उत्पादकता बढ़ाने वाले निवेशों का उपयोग सिंचाई पर निर्भर होता है। अस्तु ग्रामीण क्षेत्रों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण सिंचाई की कमी और कम उत्पादकता है।
दूसरा मानचित्र (चित्र 5) राज्य में साक्षरता को प्रदर्शित करता है। बीजापुर में सन् 2011 जनगणना तक केवल 40.9 प्रतिशत लोग ही साक्षर हो पाए हैं, परन्तु धमतरी में 78.4 प्रतिशत और दुर्ग में 79.1 प्रतिशत तक साक्षर हैं। अस्तु अधिकतम अल्पतम का लगभग दो गुना है। मानवीय गुणों को अन्य दो मानचित्रों पर दिखाया गया है। जनसंख्या वृद्धि के नियंत्रण के लिए जन्म और मृत्यु को नियंत्रित करने के लिए राष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्य स्तर तक विस्तृत प्रयास किए गए हैं। तथापि इनका प्रभाव सर्वत्र समान नही हैै। उदाहरण के लिए प्रति हजार जन्म दर दुर्ग में 20.8 से लेकर कबीरधाम में 29.8 तक हैं (चित्र 6)। दोनों में 9 बच्चों का अन्तर है। इसी तरह मृत्यु दर (चित्र 7) विशेषकर शिशु मृत्यु दर में काफी अन्तर है। राज्य के 16 में से 10 जिलों में शिशु मृत्यु दर राज्य के औसत (50 प्रति हजार जन्में शिशु) से अधिक है। सामाजिक-आार्थिक दशाओं में इतनी अधिक क्षेत्रीय विषमता होने पर विकास के राज्य के औसत मापदण्ड वास्तविकता से बहुत भिन्न चित्र देते हैं।
मानव विकास
क्षेत्रीय असमानता को छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सन् 2005 के समंको पर आधारित मानव विकास रिपोर्ट (छत्तीसगढ़ सरकार, 2005) से अच्छी तरह समझा जा सकता है। उस वर्ष राज्य का औसत मानव विकास सूचकांक 0.471 है। यह सूचकांक बस्तर जिले में 0.264 से लेकर कोरबा जिले में 0.625 तक है। कोरबा के साथ दुर्ग, महासमुन्द, रायपुर, जांजगीर-चांपा और धमतरी में मानव विकास का सूचकांक राज्य के औसत से अधिक है। शेष जिलों में यह कम और बहुत कम है। इनका चित्रण चित्र 8 में किया गया है। उपरोक्त वर्णित सामाजिक-आर्थिक समंक भी इसी असमानता की ओर सकेत करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि राज्य का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित मानव सूचकांक सन् 1999-2000 में 0.278 से बढ़ कर सन् 2007 में 0.358 हो गया है जो राज्य में मानवीय दक्षता के विकास का सूचक है।
निष्कर्ष
निश्चिरूप से छत्तीसगढ़ संसाधनों में सम्पन्न है और राज्य निर्माण के बाद उनके दोहन की गति बहुत तेज हुई है, परन्तु उनके निर्यात पर अधिक जोर रहा है। सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए अधोसंरचना स्थापित की गई, योजनाएँ बनीं, फलतः वृद्धि भी हुई। फिर भी विकास की गति तथा स्तर में यह राज्य न केवल विकसित राज्यों से बल्कि देश के औसत से पीछे है। इसका तात्पर्य है कि राज्य को विकास के मार्ग पर अभी काफी दूर जाना शेष है। मानव विकास के मापदण्डों में ये उपलब्धियाँ मानव के सृजनात्मक गुणों को विकसित करने में देश से बहुत पीछे हैं। यह वृद्धि असंतुलित, अपर्याप्त तथा क्षेत्रीय और अन्तर-समाज विषमता पैदा करने वाली रही है।
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Received on 08.01.2016 Modified on 15.02.2016
Accepted on 16.03.2016 © A&V Publication all right reserved
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