बौद्धकालीन शिक्षा पद्धति
Dr.(Mrs.) Vrinda Sengupta
Asstt. Prof. (Sociology), Deptt. of Sociology, Govt. T.C.L.P.G. College, Janjgir (C.G.)
*Corresponding Author E-mail:
संक्षेपिका-
ईसा पूर्व छठी शताब्दी में धार्मिक आन्दोलन का प्रबलतम रूप हम बौद्ध धर्म की शिक्षाओं तथा सिद्धांतों में पाते है जो पालि ‘लिपितक’ में संकलित है,जैन परंपरा को ईसा की पाॅचवी शताब्दी में लिखित रूप प्रदान किया गया, इस कारण बौद्ध धर्म से संबंद्ध पालि साहित्य वैदिक ग्रंथों के बाद सबसे प्राचीन रचनाओं की कोटि में आता है। बौद्ध धर्म के समुचित ज्ञान के लिए इस धर्म के श्रिरतन - बुद्ध धर्म तथा संघ तीनों का अध्ययन आवश्यक है।
शिक्षा मनुष्य के सर्वागिंण विकास का माध्यम है इससे मानसिक तथा बौद्धिक शक्ति तो विकसित होती है भोतिक जगत का भी विस्तार होता है। गुरूकुल परंपरा में चली आ रही प्रचीन शिक्षा पद्धति का बौऋ काल में परिवर्तन हुआ और अब मठो तथा बिहारों में दी जाने लगी। आत्मसंयम एवं अनुशासन की पद्धति द्वारा व्यक्तित्व के निर्माण पर बल दिया जाने लगा। शुद्धता एवं सरल जीवन इसका प्रमुख उद्देश्य था। गुरू शिष्य के बीच सद्भावना और सन्मार्ग था। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को समाज का योग्य सदस्य बनाने और फिर भारत को मजबूत बनाने का प्रयास किया जाता था।
शिक्षा के विशय और पद्धति बौद्ध काल में काफी परिवर्तित हो चुकी थी। स्त्री शिक्षा पर भी ध्यान दिया जाने लगा।
शब्द कुँजी: बुद्धिष्ट, बौद्धकाल, बौद्धिक शिक्षा, बौद्ध साहित्य, गुरूकुल पद्धति, स्त्री शिक्षा।
प्रस्तावना:
बौद्धकाल में शिक्षा मनुष्य के सर्वागिण विकास का साधना थी। इसका उद्देश्य मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना नहीं था, अपितु मनुष्य के स्वास्थ्य का भी विकास करना था। बौद्ध युग में शिक्षा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक,बौद्धिक तथा आध्यात्मिक उत्थान का सर्वप्रमुख माध्यम थी।
बौद्ध साहित्य में व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना शिक्षा का महत्व, उद्देश्य बतलाया गया है। चरित्र एवं आचरणहीन व्यक्ति की सर्वत्र निन्दा की गई है।
प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति विश्व की सर्वाधिक रोचक तथा महत्वपूर्ण सभ्यताओ में से एक है। इस सभ्यता के सम्पूर्ण ज्ञान के लिए इसकी शिक्षा पद्धति का अध्ययन आवश्यक है। प्राचीन भारतीयों ने शिक्षा को आध्यात्मिक महत्व प्रदान किया है।
भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान एवं समाज के विभिन्न उत्तर- दायियों के निर्वाह में शिक्षा की महत्ता को सदा स्वीकार किया गया है, वैदिक युग से ही इसे प्रकाश का स्त्रोत माना गया है। जो मानव के विभिन्न क्षेत्रों को आलोकित करते हुए सही दिशा निर्देश देता है।
सुभाशित रत्न संग्रह में कहा गया है, विज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है। जो उसे समस्त तत्वों के मूल को जाननें में सहायता करता है तथा सही कार्यो को करने की विघि बताता है।
महाभारत में कहा गया है कि विद्या के समान नेत्र तथा सत्य के समान तप कोई दूसरा नहीं है।
विषय का महत्वः-
विद्यार्थियों के बौद्धिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास का पूरा ध्यान रखा जाता था, क्योकि स्वस्थ मस्तिक का अधिष्ठान स्वस्थ शरीर होता है। शिक्षा के द्वारा विद्यार्थियों में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, आत्मसंयम, विवेकशक्ति, न्यायशक्ति आदि गुणों का उदय होता था। जो उसके व्यक्तित्व को विकसित करने में सहायक थे। शिक्षा का उ्देश्य केवल विषयों का ज्ञान कराना नहीं था, बल्कि शिक्षा जीवनमय हो जाती थी और जीवन के प्रत्येक अंग को सबल बना देती थी। समाज का योग्यतम सदस्य बनकर व्यक्ति स्वयं तथा समाज दोनों का विकास करता था।
शिक्षा का उद्देश्यः-
ऽ शिक्षा सभ्यता का प्रमुख अंग है। भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही शिक्षा का स्वरूप अत्यंत ज्ञानपरक, सुव्यवस्थित, सुनियोजित था, जिसमें व्यक्ति के लौकिक और परलौकिक जीवन के लिए विभिन्न प्रकार ं की शिक्षा प्रदान की जाती थी।
ऽ मनुष्य और समाज का आध्यात्मिक और बौद्धिक उत्कर्ष शिक्षा के ही माध्यम से संभव है। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव सभ्यता का विकास करना है। जिसके अंतर्गत समाज को सुशिक्षित करना महत्वपूर्ण है। विद्या जीवन का समुचित मार्गदर्शन करती है।
ऽ शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना था।
ऽ जातकों में सच्चरित्रता पर बहुत अधिक बल दिया गया है, और उसे व्यक्ति का सबसे बड़ा आभूषण कहा गया है। चरित्र और आचरण हीन व्यक्ति की सर्वथा निन्दा की गई है।
ऽ शिक्षा के माध्यम से मनुष्य अपनी तापसी तथा पाशविक प्रवृत्ति पर नियंत्रण रखता है इससे व्यक्ति में अच्छे तथा बूरे का विवेक करने की बुद्धि जागृत होती है तथा वह बूरे कार्यो को त्यागकर अपने को सत्कर्मों में प्रवृत्त करता है।
ऽ विद्यार्थी के लिए शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि प्रारंभ से ही उसे सच्चरित्र होने की प्रेरणा मिलती थ्ी। वह गुरूकुल में आचार्य के सानिध्य में रहता था। जातकों में ज्ञान को शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना गया है।
शिक्षा का प्रमुख उद्देश्यः-
(1) चरित्र का निर्माण,
(2) व्यक्तित्व का सर्वांगिण विकास,
(3) नागरिक तथा सामाजिक कत्र्तव्योें का ज्ञान,
(4) सामाजिक सुख तथा कौशल की वृद्धि,
(5) संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार,
(6) निष्ठा तथा धार्मिकता का संचार करना।
अध्ययन विधिः-
प्राचीन भारत में मौखिक शिक्षा पद्धति का विशेष महत्व था। महाभारत के अनुसार मौखिक पाठ विधि से वेदों का अध्ययन होता था। मौखिक शिक्षा पद्धति का उल्लेख जातको में भी मिलता है बौद्ध शिक्षण पद्धति का आरंभ स्वयं महात्मा बुद्ध ने किया था।
विद्यार्थी को कठोर नियमों का पालन करन पड़ता था। स्नान करते समय विद्यार्थी के लिए जल क्रीड़ा करना निशिद्व था। सुगंध और अलंकार का वह उपयोग नहीं कर सकता था। वह अपने केशों का गुच्छा बनाकर सिर पर बांध लेता था अथवा शिखा रखकर सिर मुंडवा लेता था। बौद्ध शिक्षा केन्द्र अधिकतर नगरों में तथा अग्रहर ग्रामों में थे । तक्षशिला के अध्यापक राजधानी में ही रहा करते थे।
प्राचीन साहित्य में गुरूकुलों में रहकर अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के नाम मिलते है। ज्ञात होता है कि इतिहास के विभिन्न युगों में शिक्षा की गुरूकुल पद्धति का प्रचलन था। उदाहरण- उद्दालक आरूणि के पुत्र श्वेतकेतु ने गुरूकुल में रहकर अध्ययन किया था। विष्णु पुराण से ज्ञात होता है कि कृष्ण तथा बलराम ने संदीपनि के आश्रम में रहकर अध्यन किया था। रामायण में भारद्वाज तथा वाल्मिकी के गुरूकुलों का उल्लेख मिलता है। महाभारत से ज्ञात होता है कि कण्व तथा मार्कण्डेय ऋृषियो के आश्रमों में प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र थे।
बौद्धकाीन शिक्षण संस्थाएंः-
प्राचीन भारत में शिक्षा देने का कार्य अध्यापक व्यक्तिगत रूप से करते थे । शिक्षण संस्थाएं नहीं थी। गुरूकुल में गुरू के निकट रह कर विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थें। बौद्ध विद्या केन्दों के रूप में काशी, कश्मीर और तक्षशिला तथा बाद के काल में नालंदा, वलभी एवं विक्रमशिला काफी प्रसिद्ध हुए है।
शिक्षा के लिए काशी की पहचान प्राचीन काल से ही कायम है। तक्षशिला में मुख्यरूप से उच्चशिक्षा का शिक्षण कार्य किया जाता था। यह ज्ञान और विद्या के क्षेत्र में बहुत अधिक प्रसिद्ध था।
नालंदा विश्वविद्यालय:-
नालंदा विश्वविद्यालय बौद्धधर्म और दर्शन की शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था। कालान्तर में अशोक ने यहां पर विशाल विहार का निर्माण करवाया।
वलमी विश्वविद्यालयः-
वलमी गुजरात के काठियावाड़ तट पर स्थित एक अंतर्राष्ट्रीय बंदरगाह के साथ-साथ शिक्षा का भी प्रधान केन्द्र था।
विक्रमशिला विश्वविद्यालयः-
यह विश्वविद्यालय भी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का शिक्षा कंेन्द्र रहा है।
निष्कर्षः-
जातको द्वारा शिक्षा के संबंध में जो जानकारी मिलती है अदि उसकी आलोचना-समीक्षा की जाय तो ज्ञात होगा कि जातक कालीन शिक्षा पद्धति पर धर्म व्यापक प्रभाव था। वह व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास पर अधिक बल देती थी। इसका दृष्टिकोण व्यवहारिकता की अपेक्षा आदर्शवादी अधिक था।
व्याकरण, साहित्य, तर्कविद्या, दर्शन, गणित, ललितकलाएं आदि विविध विषयों की सापेक्षिक उपयोगिता को जातकों के शिक्षाविदों ने नहीं समझा। संगीत, चित्रकारी, ललितकलाएं सामान्य पाठ्यक्रमों के विषय नहीं थे। प्राचीन भारतीय संस्कृति को समृद्धशाली बनाने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
संदर्भ ग्रंथ सूची:
(1) सिंह, डाॅ0अनिल कुमार,बौद्धकालीन शिक्षा पद्धति 2008, कला प्रकाशन, बी.एच.यू. वाराणसी।
(2) टी. डब्ल्यू. रिजडेविड्स, बुद्धिष्ट इंडिया, कलकत्ता 1950।
(3) शर्मा, आर.एस., मैटेरियल बैकमाउन्ड आॅफ ओरिजिन आॅफ बुद्धिष्ट, सेन एण्ड राव (संस्करण) नई दिल्ली, 1998 ।
(4) पाण्डे, गोविन्द चन्द्र, बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, लखनऊ, 1963 ।
(5) झा द्विजेन्द्रनारायण, श्रीमालीकृष्णमोहन, प्राचीन भारत का इतिहास, दिल्ली विश्वविद्यालय।
Received on 08.12.2015 Modified on 20.12.2015
Accepted on 29.12.2015 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Ad. Social Sciences 4(1): Jan. - Mar., 2016; Page 07-09