भारत में जिला नियोजन व्यवस्थाः एक परिचय

 

रमेश प्रसाद द्विवेदी

परियोजना निदेशक व पोस्ट डाक्टोरल फैलो, श्रीनिवास बहुउद्देशीय संस्था,

81 नयनतारा, फूलमती ले आउट (जयवंत नगर), एन.आय.टी. गार्डेन के पास, नागपुर-440027, महाराष्ट्र

 

संक्षेपिका-

स्थानीय नियोजन का दृष्टिकोण लोकतांत्रिक है, क्योंकि उसके द्वारा नियोजन प्रक्रिया में आम लोगों की भागीदारी बढ़ जाती है। योजना निर्माण का कार्य जब स्थानीय लोगों द्वारा सम्पन्न किया जाता है तो समस्याओं को बहुत अधिक व्यवहारिक ढंग से समझा जा सकता है। उसके लिए रणनीति व्यवहारिक तौर पर स्थानीय समर्थन से बनायी जा सकती है जो केन्द्र सरकार द्वारा तैयार की गई विकेन्द्रीकृत योजना में यह गुण विद्यमान नहीं है। अतः इसी तारतम्य में केन्द्र सरकार ने विकेन्द्रीकृत नियोजन के महत्व को समझा और संविधान में 73वां तथा 74वां संशोधन किया, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय निकायों का गठन करके उनकों कुछ अधिकार सौंपे गए। इनके माध्यम से स्थानीय निकाय अपने स्तर पर विकासकारी योजनाओं के लिए नियोजन करेंगे तथा स्थानीय स्तर की मुख्य समस्याओं को हल करने में सफलता प्राप्त होगी।1 ऐसा इसलिए आपेक्षित है क्योंकि जिला नियोजन समिति जिले की ग्राम पंचायतों, पंचायत समितियों, जिला परिषद् तथा नगरपालिकाओं के माध्यम से योजनाएं तैयार करवाती है और सम्पूर्ण जिले की योजना तैयार करने के लिए जिले की तीनों स्तरों की पंचायतों द्वारा तैयार की गई योजनाओं व नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को एकीकृत करती है।2 प्रस्तुत आलेख देश के विकास व नियोजन के लिए अत्याधिक महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि इससे भविष्य में जिला नियोजन समिति एवं पंचायती राज व्यवस्था की कार्यप्रणाली में आने वाली समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। राज्य की जिला नियोजन समितियों के माध्यम यह अध्ययन संशोधकों, नीति-निर्माताओं, सरकारी व गैर सरकारी संगठनों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा। यह विद्यार्थियों के लिए ज्ञानवर्धक होगा जोकि उनके लिए अनुसंधान में नए-नए आयाम निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान करेगा।

 

मुख्य बिन्दु - पंचायती राज, जिला नियोजन समिति, 73वां व 74 वां संविधान संशोधन, जिला नियोजन, समस्याएं

 

1. प्रस्तावना:

भारत एक विशाल देश है, जहां अनेक क्षेत्रीय असमानताएं विद्यमान है। स्वतंत्रता प्राप्ति से ही देश में नियोजन प्रक्रिया के लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण का तात्पर्य योजना निर्माण एवं क्रियान्वयन के विभिन्न चरणों में जनता की भागीदारी एवं संबंद्धता है। इस प्रकार की योजना के अन्र्तगत केन्द्रीय स्तर पर, राज्य स्तर पर तथा उससे नीचे जिला, खंड एवं ग्राम स्तरों पर नियोजन करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न स्तरों पर उपयुक्त नियोजन तंत्र की स्थापना किये जाने की आवश्यकता है। नियोजन के इस कार्य के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न स्तरों पर योजना संबंधी जानकारी स्पष्ट तथा उचित प्रकार से दी जाए तथा नियोजन के विभिन्न स्तरों पर नियोजन के बीच निकट संपर्क सूत्र स्थापित किया जाए। इसके अलावा आर्थिक मामलों पर निर्णय लेने की ‘‘योग्यता तथा शक्ति’’ नियोजन का अत्यआवश्यक भाग है। अतः लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया में राजनीतिक, प्रशासकीय एवं वित्तीय शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की अवधारणा पर अंर्तनिहित है।

 

लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण अथवा पंचायती राज संस्थाओं की योजना प्रस्तुत करते हुए तीन स्तर क्रमशः ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खंड स्तर पर पंचायत समिति एवं जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन किया गया है। वास्तव में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था द्वारा देश के ग्रामीणों में एक चेतना सौपने का प्रयास किये जाने का प्रस्ताव किया गया ताकि राष्ट्रीय जनतंत्र का आधार व्यापक व मजबूत हो सके। पंचायती राज की संरचना में ग्राम पंचायतों, पंचायत समितियों एवं जिला परिषदों का गठन किया गया है, जिसे पंचायती राज के नाम से संबोधित किया गया है। पंचायती राज व नियोजन का उद्देश्य प्रारंभ से लेकर आज तक विकास योजनाओं से संबंधित करना एवं प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर जनता को सक्रिय रूप से भागीदार बनाना है।3

भारत में जिस तरह से प्रशासन के लिए संघीय शासन व्यवस्था को अपनाया गया है। उसी प्रकार से आर्थिक नियोजन के क्षेत्र में भी संघीय आर्थिक प्रणाली को अपनाया गया है, क्योकि हमारे देश मे बहुस्तरीय नियोजन प्रणाली को उपयुक्त माना गया है।, जिससे नियोजन एवं विकेन्द्रीकृत नियोजन दोनों के लाभ प्राप्त हो सके। देश में सभी व्यक्ति को आर्थिक नियोजन एवं कार्यक्रम का लाभ पहंुचाने हेतु जिला नियोजन व्यवस्था को अपनाया गया है। जिला स्तरीय नियोजन के अर्तगत एक जिले को नियोजन की इकाई माना जाता है। जिले को विभिन्न खण्डों में विभक्त किया जाता है और खण्डों को भी नियोजन की इकाई के रूप में माना जाता है। प्रो. डी. आर. गाडगिल के अनुसार नियोजन प्रक्रिया में जिला अंतिम एवं महत्वपूर्ण इकाई होता है। नियोजन की सफलता के लिए जिला स्तरीय नियोजन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिला नियोजन के अन्तर्गत जिले में चलाये जा रहे विकास कार्यक्रमों की योजना बनायी जाती है। सामन्यतया कृषि, लघु सिंचाई, भूमि सुधार, डेयरी विकास, पशुपालन, ग्रामीण जलापूर्ति, बांध निर्माण कार्य, उद्योग आदि के बारे में जिला स्तरीय नियोजन के अन्तर्गत कार्यक्रम तैयार किये जाते है।4  जिले के संतुलित एवं सार्थक विकास के लिए विकेन्द्रीकृत नियोजन के रूप में जिला योजना की संकल्पना कोई नई बात नहीं है। नियोजित विकास के आरंभ से ही यह एक स्वीकृत संकल्पना रही है। इसकी संकल्पना एवं कार्यान्वयन में व्यापक अंतर एवं विभिन्न राज्यों में प्रशासन के अलग अलग विकेंन्द्रीकरण के स्तर होने के कारण इसे सुव्यवस्थिति ढंग से नहीं चलाया जा सका। योजना आयोग ने 1969 में इस आधार पर जिला योजना के लिए विस्तृत मार्गदर्शक सिंद्यांतों को जारी किया, लेकिन उस दौरान जिला स्तरीय विकास प्रशासन एवं संस्थागत तंत्र इस कार्य को आरंभ करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे।5 जिला नियोजन विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के अन्र्तगत केन्द्र अथवा राज्य शासन द्वारा अथवा इस उद्देश्य की दृष्टि से जिला स्तर पर गठित निकाय द्वारा किया जा सकता है। भारत में इनमें से किसी भी पद्धति का प्रयोग नहीं किया जा सकता है। योजना तथा कार्यक्रम में लोकप्रिय सहभागिता का अभाव नया नहीं है। विकेन्द्रीकृत नियोजन प्रक्रिया मंे नियोजन को केन्द्र से स्थानीय स्तर की और अग्रसर किया जाता है।

 

2. विकेन्द्रीकृत नियोजन की अवधारणा

प्रासंगिक तथ्य और आंकड़े एकत्रित करना, प्राथमिकताएं निर्धारित करने के लिए उनका विश्लेषण करना, निर्धारित प्राथमिकताओं का उपलब्ध बजट के साथ मिलान करना, कार्यान्वयन की प्रक्रियाओं को परिभाषित करना और लक्ष्य निर्धारित कर उनका अनुश्रवण करना। विकेन्द्रीकृत जिला नियोजन में वह सब शामिल होता है जिसे जिले की विभिन्न आयोजना इकाईयां सामूहिक रूप से परिकल्पना करके अपने-अपने बजटों और कौशलों का उपयोग करके और अपनी पहलकदमियों को आगे बढ़ा कर मिलजुल कर हासिल कर सकती है। एक अच्छी विकेन्द्रीकृत जिला योजना के अन्तर्गत हर योजना इकाई जैसे जिला, मध्यवर्ती और ग्राम स्तरों पर पंचायतें, नगरपालिकाएं लोगों के साथ परामर्श करके अपने कार्य और उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए एक योजना बनाती है। एक दूसरे के साथ सहयोग और समन्वय करते हुए वे सामान्यतः एक दूसरे की जिम्मेदारी वाले क्षेत्र में तब तक दखल नहीं देगी जब तक कि इससे निश्चित रूप में कोई लाभ प्राप्त न हो और इसे लेकर आपसी सहमति न हो।6

 

सरकार का अन्तिम उद्देश्य जनता का विकास करना है परन्तु देश की अधिकतर जनसंख्या गांवों व कस्बों में रहती है जो सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़ी हुई है, इसलिए यदि उनका वास्तविक विकास करना है, तो विकेन्द्रीकृत नियोजन को अपनाना होगा। विकेन्द्रीकृत नियोजन में योजना का निर्माण एवं उसका क्रियान्वयन केन्द्र से न होकर विभिन्न क्षेत्रों द्वारा संचालित होता है। इसके अन्तर्गत योजना निर्माण एवं संचालन में स्थानीय क्षेत्र के लोगों की सक्रिय भागीदारी रहती है।7

 

लोकतांत्रिक नियोजन विकेन्द्रीकृत नियोजन का एक प्रमुख रूप है। इस प्रकार नियोजन में योजनाओं को बनाने तथा उनका क्रियान्वयन करने में जन सामान्य की भागीदारी रहती है। पंचायती राज प्रणाली में हम लोकतांत्रिक नियोजन का स्वरूप देख सकते हैं। भारत में योजनाआंे की नीति, लक्ष्य आदि का निर्धारण योजना आयोग करता रहा है। साथ ही क्षेत्र विशेष की समस्याओं पर अपनी सलाह देता रहा है। यहाँ पर राजनीति का रूप तो लोकतांत्रिक है, लेकिन इसका स्वरूप लोकतांत्रिक नहीं रहा है। यही कारण है कि भारत में सरकार एवं जनता का विश्वास दिन-प्रतिदिन कम होकर दोनों के मध्य अविश्वास की खाई बढ़ती जा रही है। किसी भी आयोजन की सफलता इस बात पर अधिक निर्भर करती है कि आज जनता की भागीदारी उसमें किस सीमा तक विद्यमान है।8

3. विकेन्द्रीकृत नियोजन का अर्थ

विकेन्द्रीकृत नियोजन का सीधी-सरल भाषा में अर्थ है लोगों के द्वारा अपने विकास के लिये बनाई गयी योजना। सामान्य रूप से पाया जाता है कि योजनाओं को बनाने का अधिकार कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथ में होता है। ये लोग कुछ विषयों के विशेषज्ञ होते हैं, किन्तु जमीनी अनुभवों के अभाव और व्यापक दृष्टिकोण के आधार पर इन लोगों के द्वारा बनायी गयी योजनाओं को भारत जैसे विशाल देश में एक समान लागू नहीं किया जा सकता है। इसलिये विगत वर्षाें में बनायी गयी बहुत सी योजनाओं का वह परिणाम हासिल नहीं किया जा सका जैसा योजना बनाने वालों ने सोचा था। विकेन्द्रीकृत नियोजन की सोच यह है कि योजनाओं को बनाने के अधिकार को कुछ मुट्ठी भर लोगों, केंद्रीय संस्थाओं और अफसरशाही के हाथों में न रखा जाय बल्कि इसे उन आम लोगों, प्रतिनिधियों और संस्थाओं के सुपुर्द किया जाए, जिनके हित के लिए योजनाएं बनाई जाती है।9 विकेन्द्रीकृत नियोजन एक ऐसी प्रणाली है जिसके द्वारा नियोजन प्रक्रिया में लोगों को शामिल करके उनकी भागीदारी ली जाती है और इस प्रक्रिया को विकेन्द्रीकृत नियोजन कहते हंै।10

4. समेकित जिला योजना

समेकित जिला योजना एक ऐसा दस्तावेज है जो जिले के आगामी वर्ष के विकास का आधार पत्र होता है। यह दस्तावेज एक वर्ष का, पाॅच वर्ष का या लम्बी अवधि का भी हो सकता है। समेंकित जिला योजना में संबंधित जिले के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की समस्याओं का जिक्र होता है जिन्हें स्थानीय स्तर पर लोगों के द्वारा तय प्राथमिकताओं के आधार पर आगामी एक वर्ष की अवधि में दूर करने के लिये किये जाने वाले प्रयासों और उनके लिये आवश्यक धनराशि का उल्लेख किया जाता है। इस दस्तावेज के निर्माण का एक प्रमुख आधार संविधान द्वारा स्थापित पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय शहरी निकायों के सदस्यों के द्वारा क्रमशः ग्राम सभा और वार्ड सभा की बैठक के दौरान आपसी विचार-विमर्श के आधार पर अपने संसाधनों की सीमा में तय किये गये विकास के कार्याें का लेखा-जोखा होता है। जिला योजना के दस्तावेज में आने वाले समय में विकास की दिशा को तय करने के साथ ही विभिन्न कार्याें के लिये विभिन्न स्रोतों से संभावित रूप से मिलने वाले और खर्च किये जाने वाले संसाधनों को निर्धारित करने का कार्य किया जाता है।11

5. सांकेतिक नियोजन  

सांकेतिक या प्रतीकात्मक नियोजन फ्रांस की देन है। इसके जनक पियरे मैस माने जाते है। इन्हांेने सूचना संग्रहण की अवधारणा प्रदान की जिसमें नियोजनकर्ता सामान्यीकृत बाजार अनुसंधान करते है तथा भविष्य के एक सामान्य दृष्टकोण विकसित करते हैं। फ्रांस में 1946 में योजना आयोग का गठन हुआ। सांकेतिक नियोजन अपनाने का श्रेय 1946 में जनरल चाल्र्स  डी गाल को जाता है। 1946-1952 के बीच फ्रांस की प्रथम योजना प्रारंभ हुई। इस अवधारणा के प्रतिपादक जीन मोने थे। योजना के क्षेत्र में फ्रांस ने विश्व को एक नवीन योजना व्यवस्था सांकेतिक नियोजन प्रदान की है। यह नियोजन आदेशात्मक न होकर लचीला होता है। यह क्रियात्मक व निर्देशन के संबंध में विकेंन्द्रीकरण पर आधारित है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य आर्थिक स्थिति में सुधार लाना है। इस योजना की बजह से ही फ्रांस आर्थिक व औद्योगिक आदि क्षेत्रों में विकास कर रहा है।12

 

6. जिला नियोजन की प्रकृति

जिला नियोजन प्रत्येक जिले में तैयार किया जाने वाला एक ऐसा अभिलेख है, जो इस बात की जनाकारी देता है कि जिले में वतर्मान में क्या-क्या संसाधन उपलब्ध हैं, जिले की क्या मजबूती, क्षमताएं, कमियां एवं क्या-क्या आवश्यकताएं है। एक निर्धारित अवधि में उपलब्ध वित्तीय एवं भैतिक संसाधनो सं प्राथमिकता के आधार पर जिले में क्या-क्या विकास कार्य कराये जायेंगे। तथा सेवाएं उपलब्ध करायी जाएगी13 लेकिन यह भी सत्य है कि जिला योजनाओं के बारे में अच्छी खासी विभ्रम पूर्ण स्थिति बनी हुई है। एक भ्रम तो उनके स्वरूप को लेकर है कि क्या पंचायतों या नगरपालिकाओं की योजनाओं का एकत्रीकरण से ही जिला योजना बनाई जाती है? एक अन्य प्रश्न कि वे कौन सी चीजें हैं जिनका निवारण ग्राम पंचायतों, मध्यपंचायतों और नगरपालिकाआंे के सूक्ष्म स्तर पर नहीं किया जा सकता है बल्कि ऐसी समस्याओं और मुद्दों के सफल समाधान एवं समुचित अनुमान के लिए यहाँ एक बृहद एवं विस्तृत दृष्टिकोण अपनाया जाना जरूरी है। दूसरा भ्रम योजनाओं के अधिकार क्षेत्र को लेकर है कि क्या जिला योजनाओं में केवल उन्हीं योजनाओं को शामिल किया जाना चाहिए। जिन कार्यों को स्थानीय निकायों को सौपा गया है या उन योजनआों को भी सम्मिलित किया जाए जिनसे जिले की अर्थव्यवस्था, समाज तथा भौतिक परिस्थिति पर प्रभाव पड़े।14

 

7. जिला नियोजन की आवश्यकता

भारत में अब तक आर्थिक व सामाजिक नियोजन की प्रक्रिया मुख्यतः केन्द्र एवं राज्य सरकार तक ही समिति रही है। राज्य से नीचे जिला एवं खण्ड स्तर तक आर्थिक व सामाजिक नियोजन की सार्थक प्रक्रिया को विशेषकर 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन से पूर्व विकेन्द्रीकृत नहीं किया जा सका है लेकिन भारत जैसे विशाल देश में केन्द्र द्वारा बनाई गई योजनाएं सम्पूर्ण क्षेत्र का विकास नहीं कर सकती, क्योंकि केन्द्र द्वारा जो भी योजना बनायी जाती है उनको लागू करने में बहुत प्रयास करने पड़ते है। देश की भौगोलिक स्थिति में असमानता है, जिसके कारण योजना क्रियान्वयन पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाती।15 यदि नियोजन का विकेन्द्रीकरण किया जाता है तो जिला स्तर पर नियोजन के लिए भौगोलिक स्थिति, संगठन, सामाजिक व राजनैतिक सहायता आसानी से प्राप्त की जा सकती है। जिसके फलस्वरूप योजना बनाने तथा लागू करने में भी सुगमता एवं सरलता होगी तथा योजना समस्या के अनुरूप बनायी जाएगी। जिससे देश का सम्पूर्ण आर्थिक व सामाजिक विकास होगा।16 अतः स्थानीय समस्याओं का वास्तविक निवारण करना है तो जिला स्तर पर नियोजन को अपनाना होगा। जिला स्तरीय नियोजन-राष्ट्रीय नियोजन, राज्य नियोजन तथा क्षेत्रीय नियोजन के लिए प्रमुख एवं महत्वपूर्ण कड़ी का कार्य करता है। दूसरी तरफ यह परिवार, ग्राम तथा खण्ड स्तरीय योजनाओं को जोड़ने का कार्य भी करता है। वर्ष 1992 में 74वां संविधान संशोधन को मान्यता मिलने के पश्चात् भी विकेन्द्रीकृत नियोजन की तरफ अधिकांश राज्यों ने ध्यान नहीं दिया। उसके लिए पंचायती राज मन्त्रालय वर्ष 2004 में सभी राज्यों के पंचायती राज मन्त्रियों की द्वितीय गोल मेज सभा मैसूर में 28 तथा 29 अगस्त को आयोजित की गई। बैठक में उपस्थिति सभी सदस्यों ने विकेन्द्रीकृत नियोजन को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए तथा सभी राज्यों को जिला नियोजन समितियों के कार्य एवं क्षेत्र निर्धारित करने के लिए जिले की तीनों स्तरों की पंचायतों और नगरपालिकाओं को स्थान दिए जाने की सिफारिश की तथा पंचवर्षीय एवं वार्षिक योजना बनाने के लिए पंचायतों और नगरपालिकाओं की भी सांझेदारी हो। योजना बनाने के लिए राज्य तथा केन्द्र सरकार स्थानीय निकायों की सभी प्रकार से भौतिक एवं वित्तीय सहायता करे, जिससे योजना सामूहिक रूप से बनायी जा सके।17

 

वर्ष 2005 में जमीन स्तर पर योजना सम्बन्धित एक विशेष समूह का गठन श्री वी. रामचन्द्रन की अध्यक्षता में किया गया। इस विशेष समूह ने ग्राम पंचायत, मध्यस्थ पंचायत और जिला स्तर के विभिन्न स्तरों पर योजना से सम्बन्धित सभी मुद्दों का विस्तृत एवं गहन अध्ययन किया। समूह ने अपनी सिफारिशों में कहा की सभी राज्य अपनी वर्ष 2006-07 की वार्षिक योजना बनाने के लिए कार्यों तथा उत्तरदायित्वों को समझते हुए ग्राम पंचायत, खण्ड पंचायत, जिला परिषद् तथा नगरपालिकाओं द्वारा बनायी गई निम्न योजना ग्रामीण स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा, ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था, शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों के लिए मकानों की व्यवस्था, ग्रामीण क्षेत्र की सड़के, पोषण, रोजगार तथा ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली व्यवस्था को अपनी वार्षिक योजना में शामिल करने के लिए उन्हें प्राथमिकता दे।18

 

स्थानीय निकायों को मजबूत स्थिति में पहुंचाने के लिए राष्ट्रीय योजना आयोग ने भी अपने दिशा-निर्देश जारी किए है कि ग्याहरवीं पंचवर्षीय योजना तथा वार्षिक योजना की तैयारी के लिए जिला नियोजन समितियों द्वारा स्थानीय शासन समस्याओं के परामर्श से जो सम्पूर्ण जिले के लिए एक दूरदर्शी खाका तैयार किया गया है उसकों सभी राज्यों ने अपनी ग्याहरवीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) तथा वार्षिक योजनाओं की तैयारी का एक अभिन्न भाग मानना चाहिए।19

 

8. पंचायती राज व्यवस्था एवं नियोजन

लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण अथवा पंचायती राज संस्थाओं की योजना प्रस्तुत करते हुए तीन स्तर क्रमशः ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खंड स्तर पर पंचायत समिति एवं जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन किया गया है। वास्तव में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था द्वारा देश के ग्रामीणों में एक चेतना सौपने का प्रयास किये जाने का प्रस्ताव किया गया ताकि राष्ट्रीय जनतंत्र का आधार व्यापक व मजबूत हो सके। पंचायती राज व नियोजन का उद्देश्य प्रारंभ से लेकर आज तक विकास योजनाओं से संबंधित करना एवं प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर जनता को सक्रिय रूप से भागीदार बनाना है।20 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों को दिसम्बर 1992 में पारित करने के पश्चात जब आधे से अधिक राज्य विधानसभाओं द्वारा इसका अनुसमर्थन किया गया तो इन्हें राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा गया। राष्ट्रपति द्वारा अप्रैल 1993 में स्वीकृत किए जाने के पश्चात इन्हें भारतीय संविधान में लागू किया गया तथा इन्हीं संशोधनों के माध्यम से जिला नियोजन समिति का प्रावधान 243 जेड डी में वर्णित है। वर्तमान समय में देश के लगभग सभी राज्यों में जिला नियोजन समितियों का गठन किया गया है।

 

9. जिला नियोजन समितियों का क्षेत्र

जिला नियोजन समितियों के क्षेत्र में वह योजनाएं आती है, जिनका प्रभाव-क्षेत्र, कार्य-क्षेत्र और उन योजनाओं का लाभ भी केवल उसी जिले तक सीमित रहता है जिस जिले की विकासकारी योजना हो। परन्तु जिले का निर्माण शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्र से होता है जिससे जिला नियोजन समितियां का क्षेत्र भी शहरी व ग्रामीण होगा। अतः जिला नियोजन समितियाँ शहरी क्षेत्र तथा ग्रामीण क्षेत्र में नियोजन करेगी।

 

10. ग्रामीण स्तर पर नियोजन का क्षेत्र

ग्रामीण क्षेत्र में नियोजन का कार्यभार जिले की तीनों स्तरों की पंचायतों को सौंपा गया है। परन्तु यह तभी सम्भव हुआ। 73वें संविधान संशोधन से पंचायती राज संस्थाओं की संवैधानिक स्थिति में बदलाव आया और उनकों संविधान के अनुच्छेद 243 जी में वर्णित कुछ विषयों को प्रदान किया गया।21 जिनकी सूची संविधान की 11वीं अनुसूची में दी गई है। उन विषयों की संख्या 29 है तथा सभी पंचायतें अपने स्तर पर उन विषयों में नियोजन कर सकती है।

 

गंांव के संसाधनों के प्रबंधन व उत्पादन वृद्धि संबंधी कार्य  ग्रामीण व्यवस्था व निर्माण संबंधी कार्य   मनवीय क्षमता वृद्धि संबंधी कार्य

ऽ  कृषि प्रसार सहित कृषि;

ऽ  भूमि सुधार एवं मृदा संरक्षण;

ऽ  लघु सिचाई, जल प्रबंधन एवं जल संभार विकास;

ऽ  पशुपालन, दुग्घशाला एवं मुगीपालन;

ऽ  मत्स्य पालन

ऽ  समाजिक वानकी एवं कार्य वानकी;

ऽ  लघु वन उत्पादन;

ऽ  खाद्य संसाधन उपयोगों सहित लघु उद्योग;

ऽ  खादी ग्राम एवं कुटीर उद्योग;

ऽ  ईंधन

   ऽ  ग्रामीण आवास;

ऽ  पेय जल;

ऽ  सड़कें, पुलिया, जलमार्ग एवं संचार के अन्य साधन,

ऽ  विद्युत वितरण सहित ग्रामीण विद्युतीकरण;

ऽ  उर्जा और गैर- परंपरागत स्रोत;

ऽ  पुस्तकालय,

ऽ  बाजार एवं मेले;

ऽ  सार्वजनिक वितरण प्रणाली,

ऽ  सामुदायिक संम्पति का अनुरंक्षण;

ऽ  गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम;

ऽ  प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों सहित शिक्षा;

ऽ  तकनीकी प्रशिक्षण एवं व्यवसायिक शिक्षा;

ऽ  पौढ़ एवं अनौपचारिक शिक्षा;

ऽ  प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र एवं उपचार केन्द्रों सहित स्वास्थ्य एवं स्वच्छता,

ऽ  परिवार कल्याण;

ऽ  महिला एवं बाल विकास;

ऽ  सामाजिक कल्याण;

ऽ  कमजोर वर्गों का कल्याण (विशेषतः अनुसूचित जाति का कल्याण)

ऽ  जल वितरण व्यवस्था

 

11. विकेन्द्रीकृत जिला नियोजन की विशेषताएं:  भारत में जिला नियोजन की विशेषताओं को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता हैः-

1. जिला नियोजन विकेन्द्रीकृत नियोजन का स्वरूप है।

2. जिला नियोजन में नगरीय एवं ग्रामीण संस्थाओं द्वारा निर्मित योजनाएं सम्लित होती हैं।

3. जिला नियोजन संपूर्ण राज्य की योजनाओं का अंग होता है।

4. जिला स्तरीय नियोजन के लिए एक जिले को नियोजन की इकाई के रूप में माना जाता है तथा जिले के आर्थिक विकास के लिए योजना बनाई जाती है।

5. जिला नियोजन की आवश्यकता उस समय होती है। जब देश में बहुस्तरीय आर्थिक नियोजन प्रणाली को अपनाया जाता है।

6. जिला नियोजन के लिए वित्तीय संसाधनों की प्राप्ति राज्य सरकार से होती है। तथा केन्द्र पोषित येाजनाओं एवं कार्यक्रमों के लिए धनराशि भी राज्य सरकार के माध्यम से प्राप्त होती है।

7. जिला नियोजन के लिए नीति निर्धारण तथा मर्गदर्शन का कार्य राज्य सरकार द्वारा किया जाता है। राज्य सरकार के योजना विभाग के निर्देशानुसार ही जिला नियोजन किया जाता है।

8. जिला नियोजन में ग्रामीण विकास, कृषि, पशुपालन, डेयरी विकास, महिला व बाल विकास, शिक्षा प्रचार-प्रसार, एवं साक्षरता, ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम आदि के लिए विस्तृत कार्यक्रम तैयार किये जाते है।22

 

12. विकेन्द्रीकृत नियोजन के गुण:

आज कल विकेन्द्रीकृत नियोजन सम्पूर्ण विश्व में लोकप्रिय हो रही है। भारत में भी विशेष रूप से पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के पश्चात् इस दिशा में कदम उठाये गये। विकेंन्द्रीकृत नियोजन के गुण इस प्रकार हैः-

 

1. कार्यकुशलता: विकेन्द्रीकृत नियोजन में स्थायी संसाधनों के उपयोग के कार्यों में कार्यकुशलता बढ़ती है। इस व्यवस्था में लालफीताशाही के दोष कम हो जाते हैं तथा कार्य में विलंब नहीं होता है।

 

2. लचीलापन: इस व्यवस्था में नियोजन कार्यों के संबंध में निर्णय लेने की काफी सीमा तक स्वतंत्रता रहती है। स्थानीय संस्थाएं और अधिकारी जिन लोगों के लिए कार्य करते है, वे उनके निकट होते है और इसलिए वे अपनी आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों के अनुकूल नियोजन के लक्ष्य को प्राप्त करने में नवीन तरीकों को अपनाकर परिवर्तन कर सकते हैं। इस प्रकार स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार नियोजन में  परिवर्तन करना अपेक्षाकृत सरल रहता है।

 

3. शासन के कार्यभार में कमी: विकेन्द्रीकृत नियोजन के अन्तर्गत केन्द्र व राज्य सरकार के कार्यों एवं उत्तरदायित्वों में कमी आती है और उनका कार्य भार कम होता है।

 

4. जन सहभागिता: नियोजन प्रक्रिया में स्थानीय जनसहभागिता में वृद्धि होती है। इसके तहत स्थानीय जनता अपने क्षेत्र के विकास संबंधी कार्यों में रूचि लेती है और उन्हें पूर्ण करने में सहयोग प्रदान करती है। इसमें यह भावना जगृत होती है कि यह हमारा और हमारे हित का कार्य है। अतः स्थानीय जनता से अधिक भागीदारी प्राप्त होती है।

 

13. भारत जैसे विकासशील देश जहां पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता देकर विकेन्द्रीकृत लोकतंत्र की स्थापना की जा चुकी है। ऐसी स्थिति में ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में लोकप्रिय सहभागिता तभी प्राप्त की जा सकती है। जब योजना का निर्माण एवं क्रियान्वयन का दायित्व स्थानीय जनता को सौप दिया जाना चाहिए। यह विकेन्दीकृत नियोजन में ही संभव है। भारत में विकेन्द्रीकृत नियोजन समय की मांग और आवश्कता है।23

 

14. जिला योजना समिति के कार्य:

ऽ  राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय उद्देश्यों के अनुसार स्थानीय आवश्कताओं एवं उद्देश्यों को तय करना।  

ऽ  योजनाओं हेतु प्राकृतिक तथा मानव संसाधनों से सम्बन्धित आंकड़ों को इकट्ठा कर, संकलन करना और जिले के विकास खण्डवार संसाधनों की सूची तैयार करना।  

ऽ  ग्राम, विकास खण्ड एवं जनपद स्तर पर उपलब्ध सुविधाओं की सूची बनाना।  

ऽ  प्राकृतिक एवं अन्य संसाधनों के उचित उपयोग हेतु विकास के लिए नीतियों, कार्यक्रमों तथा प्राथमिकताओं का निर्धारण। 

ऽ  योजना के उद्देश्यों एवं रणनीतियों के अनुरूप वार्षिक योजना एवं पंचवर्षीय योजनाओं के प्रारूप  का निरूपण, संशोधन एवं समेकित करना। 

ऽ  जिले के लिए एक रोजगार योजना तैयार करना।  

ऽ  जिले की योजना के लिए वित्तीय संसाधनों की व्यवस्था करना।  

ऽ  जिले में चल रही समस्त योजनाओं का अनुश्रवण, मूल्यांकन एवं समीक्षा करना। 

ऽ  जिला विकास योजना के सम्पूर्ण ढांचे के भीतर रहते हुए सेक्टोरल एवं सब सेक्टोरल योजनाओं हेतु खर्च का आवंटन करना।  

ऽ  समिति की बैठक प्रत्येक तीन माह में एक बार करना आवश्यक है। 

ऽ  राज्य सरकार को विकास योजना नियमानुसार प्रस्तुत करना एवं जिला योजना में सम्मिलित की गई योजनाओं के सम्बन्ध में राज्य सरकार को नियमित प्रगति प्रतिवेदन प्रस्तुत करना। समग्र विकास प्रक्रिया में स्वयं सेवी संगठनों का सहयोग सुनिश्चित करना।  

ऽ  राज्य सरकार को ऐसी राज्य क्षेत्रीय योजनाओं के सम्बन्ध में जिनका जिले की विकास प्रक्रिया में महत्वपूर्ण सम्बन्ध हो, सुझाव और संस्तुतियां देना।

ऽ  कोई भी अन्य कार्य जो राज्य सरकार द्वारा सौंपे जाएं।  

 

15. जिला नियोजन हेतु प्रयास: 

प्रथम पंचवार्षिक योजना के मूल्यांकन में यह भय प्रकट किया गया कि लोग विकास कार्यों को ‘‘शासन का दायित्व’’ मानते हैं और स्वयं मूक दर्शक की तरह तमाशा देखने वाले बने रहते हैं। द्वितीय पंचवार्षिक योजना के प्रारंभ से ही जिला योजना के विचार का प्रदुर्भाव हुआ।

 

1950 में सामुदायिक विकास के समय से लेकर चतुर्थ पंचवार्षिक योजना अवधि में विकास केंन्द्रों के पायलट रिसर्च प्रोजेक्ट, पंचायत संस्थाओं द्वारा नियोजन के प्रारंभिक प्रयास, 1969 में नियोजन आयोग द्वारा प्रसारित जिला नियोजन मार्गदर्शन, 1970 में खंड स्तरीय नियोजन वार्ता, 1978 में दांतावाला समिति प्रतिवेदन एवं 1984 में जिला नियोजन पर हनुमंतराव प्रतिवेदन की अवधि में जिलों पर क्षेत्रीय नियोजन के सफल होने पर भी विकेन्द्रित नियोजन की आवश्यकता बार-बार अनुभव की जाती रही। ऐसा विकेन्द्रीकृत नियोजन स्रोतो की गत्यात्मकता एवं उसके विवरण में अधिक कुशलता लाने तथा प्रजातंत्र की जड़ों व लोगों तक सत्ता पहुंचाने की दृष्टि से उपयोगी माना जाता है।24

 

जिला नियोजन के प्रति 1970 में अभिरूचि दिखाई पड़ी। इंडियन जर्नल आंफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा बहुस्तरीय नियोजन 1973, जर्नल आंफ लालबहादुर शास्त्री नेशनल अकदमी आंफ एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा जिला नियोजन 1975, पर विशेषांकों का प्रकाशन इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है। केन्द्र शासन के कार्मिक प्रशासन विभाग द्वारा प्रकाशित अन्यान्य ग्रंथों में समग्र क्षेत्रीय विकास पर प्रशिक्षण ग्रंथ निकाला। महाराष्ट्र शासन ने पंचायत स्तर पर राज्य स्तरीय नियोजन मूल्यांकन समिति प्रतिवेदन 1971 के परिपालन में 1972 में जिला नियोजन बोर्ड का गठन किया गया। 1974 में जिला नियोजन विभाग की स्थापना की गई।25 महाराष्ट्र राज्य के इस प्रयोग से प्रेरित होकर 1970 के उत्तरार्द्ध में कुछ अन्य राज्यों में अनुसरण किया गया। इस प्रयोग का डाॅं. हनुमंत राव समिति पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ा।26 जिला नियोजन के संदर्भ में किये गये प्रयासों को संक्षेप में विवेचन निम्न प्रकार किया गया है।

 

पण्  अशोक मेहता समिति 1978:

इस समिति ने अनुशंसा की थी कि जिले को विकेन्द्रीकरण की धुरी माना जाय तथा जिला परिषद को समस्त विकास कार्यों का केन्द्र बिन्दु बनाया जाय। जिला परिषद ही जिले के आर्थिक नियोजन का कार्य करेगी व समस्त कार्यों में सामंजस्य स्थापित करेगी एवं नीचे के स्तर का मार्गदर्शन करेगी। जिला परिषद के बाद मंडल पंचायत को विकास कार्यक्रमों का आधारभूत संगठन बनाया जाय।27

 

पपण् जिला स्तरीय नियोजन के लिए योजना आयोग का सुझाव 1982: 

जून 1982 में योजना आयोग ने राज्यों को सुझाव दिया था कि वे विकेन्द्रीकृत जिला स्तरीय नियोजन के ढांचे के चार महत्वपूर्ण पहलुओं पर कदम उठाएं, जो इस प्रकार हैः-

 

ऽ  प्रभावकारी कार्यात्मक विकेन्द्रीकरण:  इससे उस संपूर्ण कार्यों को सामने लाना है, जिसे जिला स्तर पर कार्यान्वित करने के लिए योजना बनानी है। इससे बहुस्तरीय नियोजन संरचना में जिला नियोजन की भूमिका को परिभाषित करने में सहायता मिलेगी।

ऽ  प्रभावकारी वित्तीय विकेन्द्रीकरण:  यह जिला नियोजन को जिला विकास के लिए मिलने वाली निधियों की जानकारी हेतु आवश्यक है।

 

ऽ  जिला स्तर पर उपयुक्त योजना तंत्र की स्थापना:  इसमें जिला परिषद एवं जिला स्तर पर नियोजन मशीनरी को मजबूत बनाना, नियोजन मंडल का गठन करना शामिल है।

 

ऽ  उपयुक्त बजटीकरण और पुर्नविनियोजन:  जिला नियोजन की प्रक्रिया को गति देने के लिए योजना आयोग ने एक मार्गदर्शी भूमिका अदा करने का प्रस्ताव रखा है। इसके आधार पर 7वीं योजना की अवधि में देश के लगभग 100 जिलों को जिला नियोजन के लिए वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के लिए चुना गया था। जिला नियोजन में प्रशिक्षण पर भी जोर दिया गया है।28

 

पपपण्     जिला नियोजन पर डाॅं. सी. एच. हनुमंत राव समिति 1982:

1982 में योजना आयोग के तत्कालीन सदस्य डाॅं. सी. एच. हनुमंत राव की अध्यक्षता में राज्य योजना आयोग के संदर्भ में जिला योजना के सुनिश्चित विषयों एवं कार्यक्षेत्र को निर्धारित कर समेकित विकास एवं विकेन्द्रीकृत नियोजन की कार्यप्रणाली व्यवस्थित करने के लिए एक कार्य समूह का गठन किया गया। 1984 में क्षेत्रीय एवं स्थनिक ;ैमबजतंस ंदक ेचंजपंसद्ध योजना के कार्यक्षेत्र एवं कार्यप्रणाली तथा जिला नियोजन के संस्थागत प्रबंधों पर कार्य समूह ने अपनी सिफारिश के साथ जिला नियोजन पर विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत की।29 कार्य दल की रिपोर्ट के अनुसार:-

ऽ  स्थानीय स्तर पर शक्तियों और वित्तीय संसाधनों का विकेन्द्रीकृत करके जिला स्तर पर एक प्रभावी एवं स्थायी आयोजना तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए, जिसमें लगभग 50 सदस्य हों।

ऽ  जिला परिषद् पंचायत समितियाँ, नगर निगमों या नगरपालिकाओं, जिले के विधायकों, सांसद, श्रमिकों, उद्योगपतियों तथा बैंकों के प्रतिनिधि इस निकाय में सम्मिलित करने की अनुशंसा की गई।

ऽ  इस विशालकाय जिला आयोजन निकाय की छोटी कार्यकारी या क्रियान्वयन समिति बने जिसका अध्यक्ष जिला कलेक्टर हो, मुख्य आयोजना अधिकारी सदस्य सचिव एवं विकास कार्यों से जुड़े विभागांे के अधिकारी सदस्य मनोनित हो।

ऽ  जिला आयोजन निकाय की तकनीकी सहायतार्थ एक पृथक जिला आयोजना प्रकोष्ठ भी स्थापित किया जाए।30

 

बहुत से राज्यों में, कुछ सीमा तक, राव के प्रतिवेदन के आधार पर जिला स्तरीय नियोजन प्रारंभ करने के उद्देश्य से जिला सेक्टर हेतु धन देने का प्रयास हुआ। इस प्रकार का जिला नियोजन केवल कुछ राज्यों में ही अशतः सफल हुआ। फलस्वरूप जिला नियोजन पर जोर दिया जाने लगा। विगत वर्षों की सर्वाधिक बहस के बावजूद भी विद्यमान भारतीय परिस्थितियों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व सफल विकेन्दित नियोजन के यथार्थ प्रतिमान पर स्पष्ट चिन्तन नहीं हो सका।31

 

पअण् जी. व्ही. के राव समिति:

1985 में जिला पंचायत द्वारा सभी विकासकारी कार्यक्रमों का प्रबन्ध करना तथा ग्रामीण विकास के लिए प्रशासनिक प्रबन्धों पर जी. वी. के. राव. समिति का गठन हुआ तथा समिति ने नियोजन से सम्बन्धित निम्न सुझाव दिए:-

1. जिला तथा इससे भी निम्न स्तर की पंचायती राज की संस्थाओं को ग्रामीण विकास के लिए योजना बनाने, उन्हें लागू करने तथा उनका मूल्यांकन करने के लिए अधिक से अधिक शक्तियाँ प्रदान करना।

 

2. जिला स्तर की सभी विकासशील योजनाओं को लागू करने के लिए एक जिला विकास आयुक्त की नियुक्ति करना।32

 

अण्  जिलाधीश कार्यशाला दिसम्बर 1987-जून 1988:

पंचायती राज एवं जिला नियोजन पर दिसम्बर 1987 और जून 1988 के मध्य आयोजित पांच अखिल भारतीय जिलाधीश कार्यशालाओं तथा जिलाधीशों के सुगठित समूहों द्वारा छठे निष्कर्ष सत्र द्वारा तैयार 1988 में प्रस्तुत प्रतिवेदन में दो (सामन्यीकृत व आंतरिम) वैकल्पिक प्रतिमान प्रस्तुत किये गये। बहुत से राज्यों ने अन्तरिम प्रतिमान का समर्थन किया। इसमें जिला परिषद से पृथक जिला नियोजन इकाई की संतुस्ति की गयी। इस पर हनुमन्त राव प्रतिवेदन की अनुशंसा और गुजरात एवं महाराष्ट्र के प्रयोग का प्रभाव परिलक्षित है।33

 

अपण् सकारिया आयोग 1988:

1988 में केन्द्र-राज्यों के सम्बन्धों पर सरकारीया आयोग को गठित किया गया। सरकारीया आयोग ने भी जी. वी. के राव समिति की तरह जिला स्तर पर नियोजन एवं प्रशासन को सशक्त बनाने के सुझाव दिए, परन्तु स्थानीय निकाय कमजोर होने के कारण सभी प्रयास असफल रहे।34

 

अपपण्     64 वां व 65 वां संविधान संशोधन विधेयक 1989

प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने जिला स्तर पर नियोजन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कहा था कि ‘‘वे चाहते है कि योजना दिल्ली में बैठकर बनाने के बजाय जिला स्तर पर तैयार की जावे। जिला वहां की स्थितियों को देखते हुए लक्ष्य व कार्यक्रम तय किये जावें, फिर प्रदेश उन पर विचार कर अंत में योजना आयोग के पास सभी प्रदेशों से वहां की योजनाएं पहुंचेगी, जहां उनके आधार पर योजनाएं बनाकर पुनः प्रदेश व जिले को भेजी जाएगी।’’35 स्थानीय निकायों को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने जुलाई 1989 में लोकसभा में दो 64वां संविधान संशोधन बिल तथा 65वां संवैधानिक बिल पेश किए। 64वें संविधान संशोधन का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में तथा 65वां संशोधन का उद्देश्य नगरीय क्षेत्र में स्थानीय शासन को अधिक प्रभावशाली एवं सकुशल बनाना था। लोकसभा द्वारा इन बिलों को पारित किया गया परन्तु राज्य सभा में कांग्रेस दल को बहुमत प्राप्त न होने के कारण राज्यसभा ने इन्हें पारित नहीं किया तथा अक्तूबर 1989 में इसे अस्वीकार कर दिया। यद्यपि ये बिल राजनैतिक परिस्थितियों के कारण पारित नहीं किए जा सके। परन्तु स्थानीय शासन के विकास में इनका विशेष महत्व रहा।36

 

अपपपण्    73 वां एवं 74 वां संविधान संशोधन अधिनियम:

1991 में संपन्न लोक सभा चुनाव के पश्चात् नये आयोग ने विकेन्द्रित नियोजन पर अधिक जोर देने का निर्णय लेते हुए भी अपना दृष्टकोण पूर्णतः अभिव्यक्त नहीं किया। आठवी योजना प्रारूप उपागम प्रलेखों में दो उद्देश्यों- विकेन्द्रीकरण एवं प्रक्रिया में लोगों की सहभागिता पर जोर दिया गया। यह भली भांति समझा लेना चाहिए कि उत्तम व प्रभावशाली नियोजन योजना प्रक्रिया के विकेन्द्रीकरण द्वारा ही संभव है और इसके लिए जिले का चयन सर्वथा उचित और उपयुक्त है। इस प्रकार अब लगभग सभी राज्यों में योजना आयोग है, जिनका मुख्य कार्य राज्य योजनाओं का निर्माण, कियान्वयन एवं मूल्यांकन करना है।37

 

पंचायती राज संस्थाओं व नगरीय निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया एवं इस संशोधन के माध्यम से ग्रामीण विकास हेतु अनुच्छेद 243 से 243 (16) में उल्लेख किया गया है तथा जिला नियोजन से संबंधित 74 वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के अनुच्छेद 243-26 (4) में जिला नियोजन समिति की स्थापना का उपबंध करता है। इस अधिनियम के अनुसार प्रत्येक राज्य में जिला स्तर पर एक जिला योजना समिति का गठन किया जाएगा जो जिले में पंचायतों और नगरपालिकाओं द्वारा बनाई गई योजनाओं को समेकित करेगी और पूरे जिले के लिए एक विकास योजना तैयार करेगी, का उल्लेख किया गया है।38 वास्तव में शब्द बड़े थोड़े हैं, परंतु बहुत ही अर्थपूर्ण हैं। इस व्यवस्था की कार्य रूप में वर्णित करने के लिए समय-समय पर विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा पंचायत अधिनियम बनाये गये एवं अपने-अपने राज्यों में पंचायत व्यवस्था को अपना लिया गया है।

 

जिला नियोजन समिति की संरचना राज्य की विधान सभाओं द्वारा पारित कानूनों के अनुसार होगी। कानून में इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि जिला नियोजन समिति के स्थान किस प्रकार भरे जाएगें, परन्तु 4/5 सदस्य पंचायतों एवं महानगरपालिकाओं के चुने हुए सदस्यों में से होगें। कानून में जिला जिला नियोजन समिति के कार्यों व उसके अध्यक्ष चुनने का उल्लेख आवश्यक है।39 जिला नियोजन समिति पंचायतों एवं नगरपालिकाओं के सामान्य हित, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक साधनों, पर्यावरण, को ध्यान रखते हुए योजना विकास प्रारूप तैयार करेगी।  विकास प्रारूप तैयार होने एवं नियोजन समिति की स्वीकृति के बाद जिला नियोजन समिति के अध्यक्ष द्वारा राज्य शासन को राज्य योजना में सम्लित करने हेतु भेजा जाता है।40

 

 

प्ग्ण् 73वें संविधान संशोधन द्वारा नियोजन प्रक्रिया में बदलावः

73 वें संविधान से स्थानीय स्तर पर नयी पंचायत राज व्यवस्था कायम हुई है, जो स्थानीय स्वशासन को मजबूत करने में अहम् भूमिका निभा रहा है। इस संशोधन के द्वारा विकास कार्यक्रम बनाने की पुरानी रीति को बदलने के प्रयास किये गये हैं। ग्राम पंचायतों को सामाजिक न्याय व आर्थिक विकास की योजनाएं बनाने के अधिकार प्राप्त हुए हैं। अतः अब गांव के लोग पंचायत प्रतिनिधियों के साथ बैठकर अपनी आवश्यकता व प्राथमिकता के हिसाब से योजनाएं बनायेंगे व उन्हें स्वयं लागू करेंगे। सूक्ष्म नियोजन के आधार पर व ग्राम सभा सदस्यों की सहभागिता से बनाई गई योजना ग्राम पंचायत द्वारा क्षेत्र पंचायत को भेजी जायेगी। एक क्षेत्र पंचायत के अन्तर्गत आने वाली सभी पंचायतों की योजनाओं को मिलाकर एक योजना का निमार्ण होगा जिसे जिला पंचायत में भेजा जायेगा। जिले स्तर पर प्राप्त सभी क्षेत्र पंचायतों की योजनाओं को मिलाकर जिला पंचायत सम्पूर्ण जिले की योजनाएं बनायेगा और जिला पंचायत द्वारा इस संयुक्त योजना को जिला योजना समिति के पास भेजना होगा। इस प्रकार इस पूरी प्रक्रिया का संचालन केन्द्र से न होकर  गांव स्तर से होगा निर्णय लेने में महिलाओं, पिछड़े वर्ग व दलितों को  भी पूरा अवसर मिलेगा। गांव के लोगों के सहयोग से व उनकी आवश्यकताओं पर आधारित योजनाओं को लागू करने में आसानी होगी व उसकी सफलता के अवसर भी बढ़ेंगे।41

 

16. विकेन्द्रीकृत नियोजन की संरचनात्मक व्यवस्थाः

विकेन्द्रीकृत नियोजन का संवैधानिक आधार पंचायती राज संस्थाओं एवं नगरीय निकायों को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के दृष्टिकोण से संविधान में जो 73वें एवं 74वें संशोधन हुए वे देश के विकेन्द्रीकृत नियोजन के इतिहास में भी मील के पत्थर साबित हुए है। इन संशोधनों ने सहभागी ढंग से स्थानीय स्तर पर नियोजन की आवश्यकता को आधार प्रदान किया है। स्थानीय स्तर पर जब लोग अपनी समस्याओं को पहचान कर उनके निदान सुझाने में अपना योगदान देते है तो वे उसकी जिम्मेदारी वहन करने भी आगे आते है। इस आधारभूत तथ्य को मान्यता प्रदान करते हुए संविधान के 74वें संशोधन में यह व्यवस्था दी गई है कि सभी जिलों में जिला योजना समितियां स्थानीय स्व-शासन के ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों से निकली योजनाओं को समेकित कर एक समेकित जिला योजना का निर्माण कर सके।

 

नियोजन की वर्तमान व्यवस्था

 

राज्य योजना आयोग ने प्रदेश की जिला योजना समितियों के काम को सुचारू रूप से चलाने के लिए समय-समय पर निर्देश जारी किये है तथा क्षमता विकास गतिविधियों के अलावा उन्हें नियोजन संबंधी सभी प्रकार के सहयोग प्रदान करता है।

 

जिला स्तर पर जिला नियोजन की शीर्ष इकाई जिला योजना समिति है जो ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्र की योजनाओं को समेकित कर जिला योजना तैयार करती है। ग्रामीण क्षेत्र की योजना तैयार करने की मुख्य जिम्मेदारी जिला पंचायत की होती है। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत विभिन्न नियोजन ईकाईया (विभाग, निगम, पेरास्टेटल इत्यादि) जो सीधे जिला पंचायत के अंतर्गत नहीं आती है वे भी अपनी योजना जिला योजना समिति की संबंधित उप समिति को प्रस्तुत करती है। नगरीय क्षेत्र की योजना तैयार करने की जिम्मेदारी संबंधित नगरीय निकाय की होती है जो अपनी योजना को जिला योजना समिति की उप-समिति की प्रस्तुत करते है। विकेन्द्रीकृत नियोजन में ग्रामीण क्षेत्र में ग्राम सभा से तथा नगरीय निकायों में वार्ड स्तर से योजना निर्माण करते हुए जिला योजना तैयार की जानी है। योजना आयोग, भारत सरकार ने इस संदर्भ में विस्तृत मैनुअल तैयार किया है उसके अनुसार नियोजन की प्रक्रियाओं को निचले स्तर से ऊपर ले जाने के लिए विभिन्न स्तरों पर व्यवस्था दी गयी है।

 

17. जिला नियोजन समिति:

संविधान के 73वें संशोधन के द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की जिम्मेदारी जिस प्रकार पंचायतों को दी गई है, उसी प्रकार संविधान के 74वें संशोधन के द्वारा नगरों के विकास की जिम्मेदारी नगर पंचायतों, नगर पालिकाओं व नगर निगम की है। नगरों व ग्रामीण क्षेत्रों की दोनों संस्थाओं को आपसी समन्वय व तालमेल से जिले के विकास का नियोजन करने की जिम्मेदारी भी दी गई है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए संविधान के 74वें संशोधन की धारा 24र्3.क् ;1द्ध के अन्तर्गत प्रत्येक जिले में एक योजना समिति का प्रावधान किया गया है। इसको जिले में पंचायतों और नगर निगमों, नगरपालिका परिषदों एवं नगर पंचायतों द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समेकित करने के लिए और सम्पूर्ण जिले में एक विकास योजना का रूप तैयार करने का कार्य सौंपा गया है। हर राज्य की विधायिका इनके सम्बन्ध में विधि द्वारा प्रावधान करेगी।

 

पण्  समिति की संरचना:

ऽ  समिति के 4/5 सदस्य जिला पंचायत एवं नगर निकाय के निर्वाचित सदस्यों में से ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या के अनुपात के आधार पर निर्वाचित होते हैं। 

ऽ  समिति के 1/5 सदस्यों को राज्य सरकार द्वारा नामित किया जाता है जिसमें से मंत्रिमंडल द्वारा नामित एक मंत्री इस समिति का अध्यक्ष होता है। उदाहरण के लिए उत्तराखण्ड में जिले के प्रभारी मंत्री को जिला नियोजन समिति का अध्यक्ष बनाया गया है तथा जिलाधिकारी व जिला पंचायत अध्यक्ष को इसमें पदेन सदस्य रखा गया  है।

ऽ  इसमें अन्य सदस्य होते हैं जिन्हें राज्य सरकार नामित करे।  

ऽ  समिति के सदस्यों के निर्वाचन का कार्य राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा किया जाता है।

ऽ  यदि समिति को कोई निर्वाचित सदस्य यथा स्थित नगर पालिका या जिला पंचायत का सदस्य नहीं रह जाता है तो वह समिति का सदस्य नहीं रहेगा। 

ऽ  जिले का मुख्य विकास अधिकारी समिति का पदेन सचिव होगा। वह समिति के अभिलेखों का अनुरक्षण करने, समिति की बैठकों का कार्यवृत तैयार करने तथा प्रासंगिक विषयों की सूचना देने के लिए उत्तरदायी होगा।

ऽ  सचिव समिति को अपने कृत्यों के निर्वाहन हेतु आवश्यक सहायता भी उपलब्ध कराएगा।

ऽ  जिले का अर्थ एवं सांख्यकीय अधिकारी समिति द्वारा निर्देशित नियमानुसार समिति की सहायता करने के लिए पदेन संयुक्त सचिव होगा।  

ऽ  समिति अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए उपसमितियों का गठन भी कर सकती है।

 

पपण् समिति की बैठक:

ऽ  समिति की बैठक तीन माह में कम से कम एक बार जिला मुख्यालय में आयोजित की जायेगी। बैठक की तिथि अध्यक्ष द्वारा तय की जाएगी।  

ऽ  अध्यक्ष की अनुपस्थिति में समिति का उपाध्यक्ष समिति की अध्यक्षता करेगा। अध्यक्ष एवं  उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में समिति नगर पालिका प्रमुख/अध्यक्ष बैठक की अध्यक्षता करेगा।

ऽ  समिति के अध्यक्ष और दोनों उपाध्यक्षों की अनुपस्थिति में समिति का ही ऐसा सदस्य जो बैठक में उपस्थित समिति के सदस्यों द्वारा चुना जाए, समिति की बैठक की अध्यक्षता करेगा।  

ऽ  समिति में अगर किसी कारणवश किसी पद की रिक्ति विद्यमान होती है तो रिक्तियाँ समिति के किसी कार्य या कार्यवाही को अविधिमान्य नहीं करेगीं। अर्थात समिति की कार्यवाही विधि पूर्वक चलती रहेगी।

ऽ  समिति अपनी बैठकों में उपस्थित होने के लिए विशेषज्ञों को भी नियमानुसार आमंत्रित कर सकेगी।

 

पपपण्     समिति के स्थाई सदस्य:

ऽ  जिले के सभी सांसद एवं विधायक समिति के स्थाई आमंत्रित होते हैं।  

ऽ  राज्य की विधान परिषद के सदस्य जो ऐसे स्नातक या शिक्षक या स्थानीय निकाय के निर्वाचन क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पूर्णतः या भागतः जिले में समाविष्ट हैं समिति की बैठकों के स्थानीय आमंत्रित होंगे।  

ऽ  राज्य की विधान सभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित या राज्यपाल द्वारा नाम निर्दिष्ट राज्य की विधान परिषद के सदस्य अपने विकल्प के जिले की समिति की बैठकों के लिए स्थाई आमंत्रित होंगे।  

ऽ  राज्य सभा के सदस्य भी जो राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं अपने विकल्प के जिले की समिति की बैठकों के लिए स्थाई आमंत्रित होंगे।  

ऽ  कोई भी स्थाई आमंत्रित समिति की किसी भी बैठक में उपस्थित होने के लिए अपनी ओर से अपने प्रतिनिधि को नाम निर्दिष्ट नहीं करेगा।

 

पअण् समिति के सदस्यों का निर्वाचन:  राज्य निर्वाचन आयोग को नियमानुसार समिति के सदस्यों के निर्वाचन के लिए निर्वाचक नामावली तैयार कराने का और उस निर्वाचन के संचालन का अधिक्षण, निर्देशक और नियंत्रण का अधिकार होगा। 

 

अण्  नियोजन की प्रक्रिया:

ऽ  प्रतिवर्ष ग्राम पंचायतों द्वारा अपनी विकास योजना तैयार की जायेगी। 

ऽ  क्षेत्र पंचायत द्वारा ग्राम पंचायतों की विकास योजनाओं को समेकित करते हुए क्षेत्र की विकास योजना तैयार की जायेगी।  

ऽ  जिला पंचायत द्वारा क्षेत्र पंचायतों की विकास योजनाओं को समेकित करते हुए तैयार की गई विकास योजना को जिला योजना समिति को भेजा जायेगा।

ऽ  जनपद में स्थित नगरीय निकायों द्वारा विकास योजनाओं को तैयार कर सीधे जिला नियोजन समिति को भेजा जायेगा। 

ऽ  जिला नियोजन समिति को पंचायतों एवं नगरीय निकायों से प्राप्त विकास योजनाओं पर समान रूप से विचार करने का अधिकार होगा। 

ऽ  जिला योजना समिति का कार्यक्षेत्र, जिला पंचायत एवं जिला निकायों द्वारा तैयार की गई विकास योजनाओं पर, उनके पारस्परिक हित, विशेष रूप से क्षेत्रीय नियोजन, पानी एवं अन्य भौतिक एवं प्राकृतिक संसाधनों में हिस्सेदारी, अवस्थापना एवं पर्यावरणीय एकीकृत विकास पर विचार करते हुए, जनपदों के लिए एक विकास योजना का प्रारूप तैयार कर राज्य सरकार को प्रेषित किया जाना है।  

ऽ  राज्य योजना आयोग जिला योजना की तैयारी के लिए नियमानुसार अनुदेश और मार्गदर्शक सिद्धान्त जारी कर सकेगा। 

ऽ  राज्य सरकार, राज्य योजना आयोग की संस्तुुति पर समिति द्वारा तैयार की गई जिला योजना को उपान्तरों सहित या बिना किसी उपान्तर के अन्तिम रूप देगी।

 

अपण् विवादों का समाधान: यदि समिति के कार्यों, उसकी शक्ति या अधिकार क्षेत्र के सम्बन्ध में अथवा अन्य मामले के सम्बन्ध में कोई विवाद या प्रश्न उत्पन्न होता है तो ऐसे विवाद या प्रश्न को राज्य योजना आयोग को निर्दिष्ट किया जाएगा जिसमें आयोग का निर्णय अन्तिम होगा।42

 

18. विकेंद्रित नियोजन में समस्याएं: कागज पर सब कुछ अच्छा लगता है, पर नियोजन प्रक्रिया और विकेंद्रीकृत नियोजन के प्रति निम्नलिखित समस्याएं हैः

1. ग्राम पंचायत की ग्राम की संसद एंव ग्राम सभा की बैठकों में नियोजन के बारे में जनता के विचार जानने का प्रावधान है, पर बैठकें समुचित ढंग से आयोजित नहीं की जाती। कई मामलों में सिर्फ प्रस्ताव की प्रति पर हस्ताक्षर करा लिए जाते है। पिछडे एवं कमजोर वर्गों के लोगों को अपनी समस्याएं और जरुरतें बतलाने को विरले ही मौका मिलता है, जिनको अपनी मांगे उठाने का मौका मिलता है, वे अभिजात वर्ग के होते है। इन बैठकों मे सत्ताधारी दल के लोग अत्याधिक हावी रहतें हैं और विपक्ष को अनसुना कर दिया जाता है।

 

2. यह भी पाया गया है कि योजना के चयन में कमजोर वर्गो को प्राथमिकता देने के बजाए विभिन्न सांसदों मंे धनराशि का बंटवारा कर दिया जाता है।

 

3. कई मामलों में देखा गया है, कि नियोजन की गुणवत्ता बहुत कमजोर होती है। सिर्फ एक या दो सेक्टरो को महत्व दिया जाता है। ग्राम पंचायतें इफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर (ढांचागत क्षेत्र) को सर्वाधिक महत्व देती है और इसमें भी वे सडकांे की मरम्मत पर सर्वाधिक जोर देती है। इस प्रवृत्ति से स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला एवं बाल विकास या सामाजिक कल्याण जैसे सेक्टर उपेक्षित रह जाते हंै।

4. पंचायत मे महिलाओं को आरक्षण देने का उद्देश उनका सशक्तीकरण करना है, पर कई मामलों मे उनके स्थान पर उनके पति या पुरुष परिजन काम करते हैं।

 

5. प्रधान पद के लिए कोई शौक्षिक योग्यता तय न होने से कई बार निरक्षर या बहुत कम पढें-लिखे लोग चुने जाते है। पंचायत एंव ग्रामीण विकास विभाग उन्हें प्रशिक्षण देता है, फिर भी कई प्रधान अपनी बहुत सारी जिम्मेदारी निभा नहीं पाते।

 

6. विकेंद्रित नियोजन में जनता को न सिर्फ योजना बनाने, बल्कि उस पर अमल का भी अधिकार है। पर कई मामलों में उन्हे अपने इलाके में किए जाने वाले कार्यो, उनके बजट आदि के बारे में पता नहीं होता। ये विवरण पंचायत के बोर्ड पर प्रदर्शित किए जाते हैं, पर विरले ही सार्वजनिक रुप से प्रकाशित होते है।

 

7. ग्रामीण विकेंद्रीकरण कार्यक्रम का उद्देश जनता को नकद राशि,वस्तु या स्वयं के श्रम के योगदन के लिए प्रेरित कर विकास कार्यों में भागीदारी से विकास प्रक्रिया में अपना समझने पर जोर देना है। नियोजन एवं योजना पर अमल संबंधी जनता और सरकार के बीच भागीदारी के कई उदाहरण सामने आए है। कई  लोग सोचते है कि ग्राम पंचायत विकास कार्य करेगी और इसमें उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

 

8. इसके अलावा, नियोजन प्रक्रिया बहुत लंबी है, जिसके लिए काफी अधिक पेपर वर्क जरुरी है। इससे इस प्रक्रिया में जनता की रुचि नहीं रहती और ग्राम पंचायत के अनिच्छुक रहते हंै। इसके उदाहरण भी है कि ये अधिकारी अशिक्षित एंव अनुभवहीन प्रधानों पर अपने विचार थोपते है।

 

19. सुझावः

1. ग्राम पंचायत के पद्ाधिकारियों एवं प्रशासनिक अधिकारियों को नियोजन प्रक्रिया के बारे में समुचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

 

2. डाटा कलेक्शन फोर्मेंट्स को संशोधित किया जाय, क्यांेकि इसके कई सवाल अप्रसांगिक हो चुके है और नए डाटा जरुरी है। नियोजन फोर्मेट के बारे में ग्राम पंचायत के स्टाफ को तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाए।

 

3. ग्राम पंचायत फैसिलिटेटिंग टीम (जीपीएफटी) राजनीति-प्रेरित न हो और ग्राम पंचायत के सदस्यों को गहन प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि वे जीपीएफटी के कार्यो की देखभाल कर पाएं।

 

4. प्राथमिकताओं के आधार पर नियोजन किया जाय। नियोजन प्रक्रिया में जन-भागीदारी के लिए जागरूकता प्रसार अभियान चलाएं जाएं। ग्राम पंचायत द्वारा जनता के लिए योजनाओं की सूची प्रकाशित की जाए।

 

5. पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास विभाग पंचायत प्रतिनिधियों के लिए उन ग्राम पचायतों में शैक्षणिक दौरे आयोजित करे, जिन्होंने कुशल तरीके से नियोजन कार्य किया हो।

 

6. डाटा कलेक्शन, योजना बनाने एवं उस पर अमल में स्वयं सहयता समूह का उपयोग किया जा सकता है। नियोजन प्रक्रिया को अधिक उपयोगी बनाने के लिए जनता से सुझाव आमंत्रित किये जाए।

 

7. जिला परिषद को चाहिए कि वह ग्राम पंचायत की नियोजन प्रक्रिया का पर्यावेक्षण एवं आकलन करे। सामाजिक कार्य एवं ग्रामीण विकास विभाग के प्रोफेशनल्स की एक टीम बनाई जाय, जो ग्राम पंचायतों को प्रशिक्षण दे और योजना पर अमल की देखरेख करे।

 

8. पंचायती राज मंत्रालय का एक साफ्टवेयर ‘‘प्लान प्लस’’ है। ग्राम पंचायत द्वारा उसमें प्रत्येक छः माह पर योजना अमल संबंधी प्रविष्ट अनिवार्य की जाए, ताकि पंचायतें तब तक उनमें बदलाव न करें।

 

9. ग्राम पंचायत की योजना की तैयारी एवं अमल के बारे में स्वयं सहायता समूह, समुदाय आधारित संगठन, अशासकीय संस्थाओं एवं स्थानीय क्लब के प्रतिनिधयों को शामिल करते हुए एक सामाजिक आंकेक्षण टीम बनाई जाए।43

 

उपरोक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि समस्याओं के बावजूद ग्राम पंचायत की नियोजन प्रक्रिया जन-केन्द्रित है, जो सरकार के नेक इरादे जाहिर करती है। ग्रामीण नागरिक अपने अधिकारों को  लेकर पहल कीे तुलना में अधिक जागरूक बने। इसलिए विकेन्द्रित नियोजन का लक्ष्य पाया जा सकता है परन्तु पिछली कमियों से सबक लें और विकेन्द्रित नियोजन प्रक्रिया से वाच्छित संधार तेजी से करने होगें।

 

संदर्भ ग्रंथ सूची

1. ड्राफ्ट स्टेटस एण्ड फंगसनिंग आॅफ डिस्ट्रीक प्लानिंग कमैटीज इन इण्डिया(2007)ः प्रिया, नई दिल्ली,, पृ. 4

2. गर्वमैन्ट आॅफ इण्डिया (2006)ः मैन्युवल फाॅर इन्टिीग्रेटिड डिस्ट्रीक प्लानिंग, दिल्ली, पृ. 4

3. अवस्थी महेश्वरी (2002): भारत में पंचायती राज ,लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशन आगरा, पृ. 175.

4. जिला स्तरीय नियोेजन: जिला नियोजन समिति, अध्याय 18, पृ. 170

5. जोद्दार के.के (16वां अंक 2011): नियोजन संदेश, राजभाषा अनुभाग, नगर एवं ग्राम नियोजन संगठन, भारत सरकार, शहरी विकास मंत्रालय, नई दिल्ली, पृ. 7

6. मैनयुवल फाॅर, इन्टीग्रेटिड डिस्ट्रीक प्लानिंग (2007)ः गर्वमैन्ट आॅफ इण्डिया दिल्ली, पृ . 9

7. शर्मा, के. के., (2007)ः  भारत में पंचायती राज कालेज बुक डिपो, नई दिल्ली, 2006, पृ . 68

8. उपरोक्त, शर्मा, के. के., (2007)ः  पृ. 69

9. समेकित जिला नियोजन कार्य से जुड़े जिला योजना समिति सदस्यों के क्षमता विकास के लिये प्रशिक्षण मागदर्शिका, पृ. 21

10. थापलियाल, बी. के., (1990)ः  डीसैन्ट्रलाईज्ड प्लानिंगः काॅन्स्पट, स्कोप एण्ड मैथ्डोलोजी, जर्नल्स आफ रूरल डैव्लपमैन्ट एन. आई. आर. डी., हैदराबाद, पृ. 995-996

11. उपरोक्त थापलियाल, बी. के., (1990)ः  पृ. 26

12. अवस्थी एवं अवस्थी(16 वां संस्करण 2014): भारतीय प्रशासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, पृ. 290

13. जिला स्तरीय नियोेजन: जिला नियोजन समिति, अध्याय 18, पृ. 170

14. द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग, (6वीं रिपोर्ट, 2007): भारत सरकार, नई दिल्ली, पृ. 102-103

15. राव, सी.एच. हनुमन्त (1989):  डिसैन्ट्रालाइज्ड प्लानिंग एन आवरण्यू, आॅफ एक्सपिर्यिंश एण्ड प्रोस्पेक्ट, इकोनोमिक एण्ड पालिटिकली विक्ली,  पृ. 411

16. योमसकुटे, पी.जी. (1989):  डिस्ट्रीक प्लानिंग, बीसर अहमत खान (सम्पादक), रिजनल प्लानिंग एण्ड इकोनोमिक्स डवैल्पमैन्ट युआन्तर पबिल्सर, जयपुर, पृ. 138

17. एक्सपर्ट ग्रुप रिपोर्ट (2006),: प्लानिंग एट द ग्रास लेवर, दिल्ली, पृ. 14-15

18. उपरोक्त, एक्सपर्ट ग्रुप रिपोर्ट (2006), पृ. 15-16

19. गर्वमैन्ट आॅफ इण्डिया (2008,): मैन्युवल फाॅर इन्टिीग्रेटिड डिस्ट्रीक प्लानिंग, दिल्ली, पृ. 4

20. अवस्थी महेश्वरी  (2002): भारत में पंचायती राज ,लक्ष्मीनारायण अग्रवाल प्रकाशन आगरा,पृ. 175

21. बन्धुपाध्यय, डी., (1997): पियुपल पाट्रीस्पेशन इन प्लानिंग केरलाज इक्सपरीमैन्ट, इक्कोनोमिक एण्ड पालिटीकली विक्ली, 27 सितम्बर, 2450-54

22. जिला स्तरीय नियोेजन: जिला नियोजन समिति, अध्याय 18, पृ. 171

23. अवस्थी एवं अवस्थी (16 वां संस्करण 2014): भारतीय प्रशासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, पृ. 300-301

24. भ्ववरं त्ण् ंदक डंजीनत च्ण्ब् ;1991द्ध रू क्पेजतपबज ंदक कमबमदजतंसपेमक चसंददपदहए त्ंूंज च्नइसपबंजपवदए श्रंपचनतण्

25. वही भ्ववरं त्ण् ंदक डंजीनत च्ण्ब् ;1991द्ध रू पृ. 82

26. अवस्थी एवं अवस्थी (16 वां संस्करण 2014): भारतीय प्रशासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, पृ. 297

27. महेश्वरी एस. आर. (10वां संशोधन 2010): भारत में स्थानीय शासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, पृ. 119-20

28. शर्मा के.के. (2010): भारत में पंचायती राज, काॅलेज बुक डिपो, जयपुर, पृ. 287

29. जोद्दार के.के (16वां अंक 2011): नियोजन संदेश, राजभाषा अनुभाग, नगर एवं ग्राम नियोजन संगठन, भारत सरकार, शहरी विकास मंत्रालय, नई दिल्ली, पृ. 7

30. कटारिया, सुरेन्द्र (2005): भारतीय लोकप्रशासन, नैशनल पब्लिेकशन हाऊस, जयपुर, पृ 299

31. अवस्थी एवं अवस्थी(16 वां संस्करण 2014): भारतीय प्रशासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, पृ. 297

32. कटारिया, सुरेन्द्र (2005): भारतीय लोकप्रशासन, नैशनल पब्लिेकशन हाऊस, जयपुर, पृ 300

33. अवस्थी एवं अवस्थी(16 वां संस्करण 2014): भारतीय प्रशासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, पृ. 297

34. ड्राफ्ट स्टेटस एण्ड फंगसनिंग आॅफ डिस्ट्रीक प्लानिंग कमैटीज इन इण्डिया(दिसम्बर 2007)ः  प्रिया, नई दिल्ली,  पृ. 5

35. शर्मा के.के. (2010): भारत में पंचायती राज, काॅलेज बुक डिपो, जयपुर, पृ. 286

36. शर्मा, के. के. (2006)ः भारत में पंचायती राज, कालेज बुक डिपो, नई दिल्ली, 2006, पृ. 45

37. अवस्थी एवं अवस्थी (16 वां संस्करण 2014): भारतीय प्रशासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, पृ. 297-98

38. बसु डी.डी. (2000): भारत का संविधान, बाधवा प्रकाशन दिल्ली, पृ.282-283

39. अवस्थी एवं अवस्थी (16 वां संस्करण 2014): भारतीय प्रशासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, पृ. 298?

40. उपरोक्त वही पृ. 298

41. समाज विज्ञान विद्याशाखा पंचायती-राज में प्रमाण पत्र (6 माह) कार्यक्रम कोड- सीसीआरपी-10 द्वितीय प्रश्न-पत्र पंचायती राज की कार्यप्रणाली कोर्स कोड- सीसीआरपी-02 2010-11 उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी, नैनीताल एवं हिमालयन एक्सन रिसर्च सेंटर, देहरादून, पृ. 163

42. उपरोक्त वही पृ. पृ. 147-150

अनीरबन शेठ (मार्च 2015): पंश्चिम बंगाल में विकेद्रित नियोजनः नारेबाजी बनाम हकीकत, पंचायती राज अपडेट, इंस्टीट्यूट आॅफ साइंसज, नई दिल्ली, पृ. 1

 

 

Received on 08.09.2015       Modified on 28.09.2015

Accepted on 12.10.2015      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences 3(3): July- Sept., 2015; Page 124-138