उच्च शिक्षा एवं आर्थिक विकास

 

Dr. Sunita Jain

Professor, Economics Department, S.V.N. University, Sagar (M.P.)

*Corresponding Author E-mail: drsunitajain.sagar@gmail.com

 

प्रस्तावना:

व्यक्ति और समाज को बेहतर बनाने का सर्वाधिक सार्थक मंच शिक्षा संस्थान है। शिक्षा का मूल उद्देश्य श्रेष्ठ एवं गुणी मनुष्य निर्मित करना है, लेकिन भूमंडलीकरण एव उदारीकरण के इस युग में रोजगार मूलक शिक्षा व्यवस्था के साथ नई शिक्षा प्रणाली को विकसित करना होगा, जिससे विचारों का विकास हो, इसके लिए हमारी उच्च शिक्षा में व्यवसायिक पाठ्यक्रमों और गुणवत्ता वाली शिक्षा का विस्तार होना चाहिए। 5 अक्टूबर 1998 को पेरिस में उच्च शिक्षा पर विश्व अधिवेशन का आयोजन हुआ जिसका केन्द्रीय उद्देश्य उच्च शिक्षा के संबंध में भविष्य के लिए विश्वस्तरीय रूपरेखा तैयार करना था। इस अधिवेशन में भारत की भागीदारी काफी महत्वपूर्ण थी क्योंकि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारत का काफी लम्बा अनुभव है। 80 से 90 के दशक के आरंभ में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशनों के निष्कर्षों में से एक तथ्य अधिक ध्यान देने योग्य है कि ‘‘अच्छी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा उपलब्ध कराने का दायित्व विकासशील देशों में शासन का है क्योंकि श्रेष्ठ उच्च शिक्षा इन्हीं के सुदृढ़ आधार पर प्रदान की जा सकती है।

 

 

आॅक्सफोर्ड एडवांस लर्नर डिक्शनरी आफ करेंट इंग्लिश के अनुसार ‘‘शिक्षा विशेष रूप से विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में पढ़ाने, प्रशिक्षण एवं अधिगम (सीखने) की प्रक्रिया है जिससे ज्ञान को सुधारा जाता है, और कौशल का विकास किया जाता है। इसमें सीखना विकास की ओर अग्रसर करता है एवं विकास सक्षमता की ओर क्षमता ऐसी जो कि निष्पादन एवं परिणाम तक पहुँचने के लिए तथा किसी भी कैरियर में सफलता को रूप देने एवं स्थायी बनाये रखने के लिए आवश्यक होती है।

 

परिकल्पना:

भारत में उच्च शिक्षा के व्यापक विस्तार द्वारा आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान परिलक्षित हुआ है जिसके फलस्वरूप श्रम की गुणवत्ता, श्रम शक्ति की उत्पादकता में वृद्धि एवं व्यक्ति की आय में वृद्धि होने से निर्धनता में कमी तथा हमारे राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिखाई पड़ते हैं। इसके अलावा सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक योगदान भी दिखाई देते हैं। उच्च शिक्षा का निर्धनता, आय वितरण, स्वास्थ्य स्तर जनांकिकीय परिवर्तन इत्यादि पर अत्यंत ही महत्वपूर्ण प्रभाव पाया गया है, जो कि विश्लेषात्मक अध्ययन से स्पष्ट है।

 

विश्लेषणात्मक अध्ययन:

भारत में आर्थिक विकास में शिक्षा का योगदान महत्वपूर्ण है, हालांकि अत्यंत सूक्ष्म रूप से इसे आंकलित नहीं किया गया है तथापि शिक्षा का सामाजिक विकास में योगदान सार्थक पाया गया। जन्म दर, शिशु मृत्यु दर, निर्धनता में कमी, आयु प्रत्याशा, जीवन स्तर तथा आय वितरण में सुधार शिक्षा के कारण संभव हो रहा है। आर्थिक विकास पर विशिष्ट मानवीय पूँजी के संख्यात्मक प्रभाव से संबंधित अत्यंत कम आनुभाविक अध्ययन उपलब्ध हैं, फिर भी यह कहा जा सकता है कि मानवीय पूँजी में निवेश की प्रत्याय दरें और अधिक ऊँची हो सकती हैं, यदि (अ) नियोजक, शिक्षा की गुणवत्ता पर गंभीरतापूर्वक ध्यान दें, तथा (ब) शैक्षणिक नियोजन को आर्थिक नियोजन, निर्धनता उन्मूलन तथा आर्थिक विकास के साथ समायोजित किया जाए। यह पाया गया कि भारत मेें अभी भी मानवीय पूँजी मंे निवेश से पर्याप्त लाभ प्राप्त नहीं किए गए हैं तथा भविष्य में उन्हें प्राप्त करने की पर्याप्त संभावना है।

 

यह देखा गया है कि विकास के अन्य पक्ष एवं शिक्षा के साथ उनके संबंध मूलतः साक्षरता एवं प्राथमिक शिक्षा के साथ संबंधित विकास सूचक जीवन प्रत्याशा, शिशु मृत्यु दर, जन्म दर, जनसंख्या वृद्धि एवं स्वास्थ्य स्तर के संबंधित गुणांकों को आंकलित करने तक ही सीमित रहे एवं माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा का महत्व इन सामाजिक विकास संकेतकों के सुधार में नहीं मापा गया है। यह कहा जा सकता है किसी भी देश के आर्थिक विकास की दर को तीव्र करने तथा मूलभूत सामाजिक समस्याओं का निवारण करने में शिक्षा का विभिन्न स्तरों का योगदान महत्वपूर्ण होता है। भारत जैसे देश में जनसंख्या की विशालता, प्राकृतिक संसाधन की प्रचुरता तथा कुशल मानव शक्ति के स्कन्ध को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि उच्च शिक्षा का आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान निहित है।

 

उच्च शिक्षा के बहुआयामी संबंधों को निम्नलिखित चित्र के द्वारा समझा जा सकता है। चित्र में उच्च शिक्षा के लाभ को यदि निजी एवं सार्वजनिक श्रेणी में विभाजित किया जाय तो यह ज्ञात होता हैं कि निजी रूप में उच्च शिक्षा से उत्पादकता, उद्यमिता, विशिष्टीकरण एवं रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती है। सार्वजनिक रूप में उच्च शिक्षा विस्तार के कारण शोध एवं विकास, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, शासन, सुरक्षा, एवं सामाजिक विकास का विस्तार होता है, जिसके फलस्वरूप आर्थिक विकास परिलक्षित होकर निर्धनता उन्मलून को गति मिलती है तथा आय में सापेक्षता वृद्धि होने के कारण जहाँ एक ओर व्यय में वृद्धि होती है वहीं राजस्व मंे भी वृद्धि  होती है जिसके कारण उच्च शिक्षा पर उत्तरोत्तर निवेश करना संभव होता है इस चक्रीय प्रवाह की निरंतरता राष्ट्र में आर्थिक सम्पन्नता लाती है।

 

इस शोध आलेख को चार भागों में विभाजित किया गया है। आलेख का पहला भाग विषय की प्रस्तावना से सबंधित है। आलेख के दूसरे भाग में उच्च शिक्षा एवं आर्थिक विकास के संबंधों का विवेचन किया है। तृतीय भाग मानवीय पूँजी उत्पादकता से संबंधित है, और आलेख का चतुर्थ भाग सारांश से संबंधित है।

 

 

 

 

 

 

उच्च शिक्षा आर्थिक विकास संबंध:

उच्च शिक्षा एवं आर्थिक विकास के संबंधों पर विचार विमर्श में प्रमुख योगदान सर्वप्रथम एडम स्मिथ के द्वारा दिया गया। एल्फ्रेड मार्शल ने यह बताया कि मानवीय निवेश सभी प्रकार की पूँजी में सबसे मूल्यवान है। शुल्ज, द्वारा अमेरिकन आर्थिक परिषद में दिये गये अध्यक्षीय उदबोधन से पूर्व उच्च शिक्षा के आरंभिक विकास में व्यस्थित अध्ययन का अभाव था। शुल्ज के महत्वपूर्ण अध्ययन से, अर्थशास्त्र के शैक्षणिक सन्दर्भों में शोध को बल मिला तथा सतत् रूप से सम्पन्न शोध अध्ययनों में यह सिद्ध किया कि शिक्षा केवल उपभोग क्रिया न होकर निवेश का महत्वपूर्ण अवयव है तथा भौतिक पूँजी की तुलना में मानवीय पूँजी निर्माण का आरंभिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है। शुल्ज ने अपने अध्ययन में बताया कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में पुर्नउत्पादकीय भौतिक पूँजी की तुलना मानवीय पूँजी की वृद्धि अधिक होती हैं।

 

एडम स्मिथ एवं डेविड रिकार्डो ने आरंभिक विकास एवं उसके कारणों में विशेष रूचि प्रदर्शित की, विकास सिद्धांत की नवप्रतिष्ठित विचारधारा में कई कमियाँ थीं, जिनमें से प्रमुख रूप से यह मान्यता कि तकनीकी प्रगति बाह्य रूप से निर्धारित होती है तथा उपभोक्ता, फर्म एवं सरकार की क्रियाओं का अर्थव्यवस्था की दीर्घकालीन विकास दर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्पष्टतः ये प्रारूप वास्तविकता का उचित प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। 1980 के आरंभ से आधुनिक विकास सिद्धांतों का प्रादुर्भाव हुआ इनमें से एक विचारधारा ये मानती थी कि मानवीय पूँजी का स्टाक आरंभिक विकास का महत्वपूर्ण निर्धारक है, जबकि दूसरी विचारधारा नवीन विचारों के सृजन को प्रमुखता देती थी।

 

उच्च शैक्षणिक शक्ति संपन्न राष्ट्रों में प्रति श्रमिक उत्पादन उच्च था, किन्तु साथ ही इन राष्ट्रांे में प्रति श्रमिक भौतिक पूँजी भी अधिक थी। शिक्षा उत्पादकता में कितनी वृद्धि लाती है् ? कितनी महत्वपूर्ण है ? तथा किस प्रकार महत्वपूर्ण है ? जैसे प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर अर्थशास्त्रियों के द्वारा नहीं दिए जा सके थे। यह विरोधाभास भी प्रमुखता से उभर रहा था कि किस प्रकार की शिक्षा जैसे सामान्य शालेय, औपचारिक तकनीकी प्रशिक्षण अथवा प्रत्यक्ष प्रशिक्षण में आरंभिक विकास में किसका योगदान अधिक है ? अथवा प्राथमिक, द्वितीयक एवं उच्च शिक्षा में से शिक्षा का कौन सा स्तर विकास मे महत्वपूर्ण योगदान देता है हालाँकि आर्थिक विकास के प्रमुख कारक के रूप में उच्च शिक्षा के योगदान को स्वीकार किया जाने लगा।

 

शिक्षा एवं आर्थिक विकास का समष्टि आर्थिक दृष्टिकोण प्रति व्यक्ति आर्थिक उत्पादन में वृद्धि एवं मानवीय पूँजी के स्टाक के संबंधों पर बल देता है। इससे यह पता चलता है कि उच्च आय प्राप्त व्यक्ति ठीक उसी प्रकार से अपने बच्चों हेतु बेहतर शिक्षा क्रय कर सकते हैं जिस प्रकार अन्य सुविधाएँ क्रय की जाती हैं। इस परिपे्रक्ष्य मेें शिक्षा मूलतः उपभोग वस्तु होती है, हालांकि अर्थशास्त्रियों ने यह बताने का प्रयास किया कि सतत् रूप से उच्च आर्थिक विकास करने वाले राष्ट्रोें में साक्षरता की दर ऊँची है तथा उन राष्ट्रों ने श्रमशक्ति की शिक्षा मंे बड़े पैमाने पर निवेश किया है।

 

विकास के सिद्धांत ये तर्क देते हैं कि विकासशील देशों के पास उन्नत आर्थिक विकास के स्तर तक आने का बेहतर अवसर है। यदि नई तकनीक विकसित करने की क्षमता, आत्मसात करने की क्षमता एवं विदेशी तकनीक को उपयोग करने की कुशलता श्रमशक्ति में हो। ये दावा किया गया कि शिक्षित श्रमिक अधिक कुशलता से अवसर एवं तकनीक में हो रहे परिवर्तनों को समायोजित कर सकते हैं। इस प्रकार के प्रादर्शों में यह माना गया कि श्रम शक्ति मंे शैक्षिणक विकास दो प्रकार से उत्पादन वृद्धि ला सकता है, () शिक्षा, श्रमिक की कुशलता में वृद्धि तथा उत्पादन करने की क्षमता में विस्तार करती है तथा (ब) शिक्षा द्वारा श्रमिकों मंे नव प्रवर्तन करने की क्षमता में विस्तार होता है, जिससे न केवल स्वयं की उत्पादकता बल्कि अन्य श्रमिकों की उत्पादकता भी बढ़ती है। पहला प्रकार शिक्षा के मानवीय पूँजी पर बल देता है तथा दूसरा मानवीय पूँजी को आर्थिक विकास को केन्द्र बिन्दु मानते हुए स्वपोषित आर्थिक विकास प्रक्रिया के शोध के रूप में स्वीकार करता है। यह तथ्य कि उच्च शिक्षित व्यक्ति की आय अधिक होती है, शिक्षा के आर्थिक विकास मंे योगदान को द्योतक है, तथा शिक्षा, उच्च आय संबंध, शिक्षा एवं आर्थिक विकास के संबंधों को व्यष्टि आर्थिक परिपे्रक्ष्य प्रस्तुत करता है।

 

व्यक्तियों के अधिक शिक्षित होने के कारण प्राप्त होने वाली अधिक आय यह बताती है कि समाज के लिए निम्न शैक्षणिक स्तर की तुलना में उच्च शैक्षणिक स्तर का आर्थिक मूल्य अधिक है। अर्थशास्त्रियों ने इस अधिक शिक्षा हेतु भुगतान को किसी भी निवेश के सन्दर्भ में शिक्षा की लागत के रूप में आंकलित किया, उन्होंने यह बताया कि शिक्षा में किया गया व्यय शिक्षित व्यक्तियों के जीवनकाल में अधिक आय प्रदान करता है। शिक्षा में निवेश की प्रत्यय दरें सभी देशों नें धनात्मक होती हैं। शिक्षा में प्रत्याय की उच्च दर जहाँ एक ओर आर्थिक विकास में योगदान देती है वहीं शिक्षा में निवेश को प्रोत्साहन देती है।

 

अधिकांश अध्ययनों में विकास की व्याख्या में शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया जा सका है। यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि नियोक्ता शिक्षित श्रमिकों को अधिक उत्पादक मानते हैं। शिक्षा के अप्रत्यक्ष प्रभाव भी होते हैं। अध्ययनों द्वारा यह स्पष्ट हो चुका है कि मानवीय पूँजी का उच्च स्तर वृहत भौतिक विनियोग तकनीकि हस्तांतरण की उच्च दर एवं दीर्घ आयु प्रत्याशा से संबंधित होता है।

 

हाल के वर्षों में विकासशील देशों मेें द्वितीयक एवं तृतीयक शिक्षा की पहुँच में सुधार हुआ है। हालाँकि शालेय नामांकन विस्तार द्वारा शिक्षा की पहुँच पर्याप्त नहीं है, अंतर्राष्ट्रीय तुलनात्मक मानकों के आधार पर श्रम शक्ति की गुणवत्ता मापन का आर्थिक विकास पर सबल प्रभाव पड़ता है। हालाँकि शिक्षा आर्थिक विकास को तीव्र करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है परन्तु इसकी व्यवहारिक संभावनाओं पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। शिक्षा को समस्त आर्थिक बुराईयोें के एक मात्र निवारण के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। निवेश वातावरण तथा व्यापक नीतियों का सतत् आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है, हालाँकि शिक्षा से आर्थिक विकास प्रभावित होता है, किन्तु ये तीव्र गति से संभव नहीं है। नीतिगत परिवर्तन, पीढ़ियों के ज्ञान सुधार पर केन्द्रित होना चाहिए जिससे कि भविष्य में उसके परिणाम प्राप्त हो सकें।

उच्च शिक्षा एवं आर्थिक विकास द्विपक्षीय है एवं परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। उच्च शिक्षा एवं आर्थिक विकास के संबंधों को मानने के दो मुख्य कारण हैं। एक सामान्य व्यक्ति के लिए वैज्ञानिक प्रगति तथा ज्ञान के विकास में शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण है। अर्थशास्त्रियों द्वारा शिक्षा, आरंभिक विकास की व्याख्या हेतु कई प्रकार के सिद्धांत एवं प्रारूप प्रस्तुत किए गए हैं। शिक्षा व्यक्ति की आय समता में विस्तार करती है साथ ही धनात्मक बाह्यताओं की श्रृंखला में लहर प्रभाव का भी सृजन करती है,

 

शिक्षा के प्रत्यक्ष प्रभाव जैसे कि बढ़ी हुई मजदूरी इस मान्यता पर आधारित है कि शिक्षा अधिगम में परिवर्तित होती है, जिससे श्रमिकों की उत्पादकता में वृद्धि होती है। यदि श्रमिकों को उनकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर भी भुगतान किया जाए तो बेहतर श्रमिक अधिक मजदूरी उपार्जित कर सकेंगे। शिक्षा के कई अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पाए जा सकते हैं जिनमें विकासशील देशांे में भी शिक्षा का प्रभाव बच्चों के स्वास्थ्य स्तर पर देखा जा सकता है। स्वस्थ्य बच्चे, अस्वस्थ्य बच्चों की तुलना अधिक श्रेष्ठ होते हैं, और शाला में उनका निष्पादन श्रेष्ठ होता है। इसी प्रकार बेहतर शिक्षित पालकों द्वारा परिवार नियोजन संबंधी निर्णय लिए जा सकते हैं जिसके कारण बच्चों की शिक्षा में उनकी सहभागिता बेहतर होती है। इसी प्रकार उपरोक्त चार्ट द्वारा शिक्षा के सूक्ष्म एवं व्यापक प्रभावों को और अधिक सुगमता से समझा जा सकता है। संबंधित शोध साहित्य में अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि शिक्षा एवं आर्थिक विकास के संबंधों का परीक्षण विषय को गहनता से विश्लेषण कर नवीन आयामों की स्थापना करने मंे सक्षम है।

 

विभिन्न अध्ययनों द्वारा यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत में शिक्षा पर किया गया निवेश आर्थिक है। वैयक्तिक मजदूरी एवं आय शिक्षा के स्तर बढ़ाने के साथ बढ़ती है यह तथ्य राष्ट्रीय और सूक्ष्म स्तरीय सर्वेक्षणों के सन्दर्भ में सत्य होने के साथ-साथ कुल जनसंख्या और उसके अंतर समूहों में भी सत्य होता है। तिलक (1990) ने बताया कि पुरूष मजदूरों की मजदूरी ऊँची होने का एक कारण महिलाओं की अपेक्षा उनका शैक्षणिक स्तर उच्च होना है। महिला एवं पुरूष दोनों के सन्दर्भ में शिक्षा के स्तर में वृद्धि के साथ-साथ उनके आय में भी वृद्धि होती है आय एवं शिक्षा के प्रबल संबंधों को निम्न चित्र द्वारा बताया जा सकता है।

 

उच्च शिक्षा एवं मानवीय पूँजी, उपार्जन में संबंध

मानवीय पूँजी एक बहुआयामी विचार है जिसमें व्यक्तियों पर किए गए विभिन्न प्रकार के निवेश का समावेश होता है। स्वास्थ्य एवं पोषण इस प्रकार के निवेश के महत्वपूर्ण पहलू है तथा विशेषकर विकासशील देशों में जहाँ पर कि उत्पादक गतिविधियों में जनसंख्या की योग्यता इनकी कमी के कारण प्रभावित होती है, हालाँकि विकासशील देशांें में मानवीय पूँजी का महत्वपूर्ण पहलू घर, कार्यस्थल में प्राप्त की गई संज्ञानात्मक और गैर संज्ञानात्मक क्षमता, औपचारिक, अनौपचारिक प्रशिक्षण, वस्तुओं, सेवाओं और ज्ञान के विकास में उपयोगी होना है। तीव्र गति से होने वाले तकनीकी परिवर्तन के सन्दर्भ में निवेश एक महत्वपूर्ण विकास कारक होता है जिसमंे शासन द्वारा चलाई जा रही आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने अथवा समता मूलक आय प्रोत्साहन करने शैक्षणिक नीतियाँ एवं अन्य लोकक्रियाएँ महत्वपूर्ण हैं। यूरोपीय देशों में हाल में किए गए आंकलन ये बताते हैं कि शैक्षणिक निवेश के मानवीय पंूँजी विकास प्रभाव से संबंधित सामाजिक प्रत्याय प्राप्त होते हैं, तथा शिक्षा एवं प्रशिक्षण पर निवेश को विकास प्रक्रिया में आर्थिक प्राथमिकता प्रदान की जाती है। यह तथ्य स्वीकार करने के पर्याप्त कारण हैं कि वैयक्तिक एवं समग्र स्तर पर मानवीय पूँजी उत्पादकता का महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व है। इनकी भूमिका वर्तमान भूमंडलीयकृत ज्ञान अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण हो जाती है।

 

समस्या निवारण एवं उच्च संप्रेषण क्षमता से युक्त श्रमिकों का निष्पादन अकुशल श्रमिकों की तुलना में श्रेष्ठ होता है क्यांेंकि वे बदलती हुई परिस्थिति में तीव्र गति से एवं कुशलता से भौतिक श्रम क्रियाआंे को आत्मसात करते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि किसी भी दी हुई उत्पादन प्रक्रिया में अकुशल श्रमिकांे की तुलना मेें कुशल श्रमिक अधिक उत्पादक होते हैं। वे उन्नत तकनीक को आसानी से प्रयोग में ला सकते हैं, यदि इस कुशलता का उपयोग तीव्र गति से सीखने नवीन ज्ञान के उत्पादक परिवर्तन की स्वीकार्यता के सन्दर्भ में हो, तो कुशल श्रम शक्ति वर्तमान उत्पादन प्रक्रिया में क्रमिक सुधार तथा अधिक उन्नत तकनीक का विकास और उसे आत्मसात कर अधिक उत्पादकता वृद्धि को प्राप्त करने में सक्षम होती है, एवं बढ़ती हुई विश्व प्रतियोगिता में अपनी स्थिति में अधिक उचित रूप मंे सुधार कर सकती है।

 

वैश्विक संदर्भ में उत्पादक प्रक्रिया ज्ञान प्रधान होने के कारण एक कारक के रूप में मानवीय पूँजी का महत्व बढ़ता जा रहा है। वर्तमान युग में बहुत कम व्यवसाय मानव आधारित रह गए हैं। तथा अधिकांश क्रिया-कलापों में विशिष्ट ज्ञान एवं विशिष्ट कला का उपयोग विशिष्टीकृत वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन में तीव्रता से होने लगा है। हाल ही में संपन्न व्ब्म्क् अध्ययन मंे यह पाया गया कि सदस्य राष्ट्रों के संयुक्त उत्पादन का आधे से अधिक भाग ज्ञान प्रदान उद्योगों द्वारा उत्पादित किया गया है। प्रयुक्त ज्ञान का उपयोग जो तकनीकि प्रगति पर निर्भर करता है, तथा शोध एवं विकास पर आधारित है, और औपचारिक विज्ञान के संदर्भ में यह तथ्य सत्य सिद्ध होता है, जिसके परिणाम स्वरूप अधिकांश उत्पादन क्रियाएँ दक्षता आधारित हो गई हैं। इसके अतिरिक्त घटती परिवहन एवं संचार लागतों के कारण विदेशी प्रतियोगिता आधारित गतिविधियाँ, संरचनात्मक परिवर्तनों की बढ़ती दरों ने फर्म एवं श्रमिकांे की अन्वेषणात्मक क्षमता और स्वीकार्यता को बढ़ाया है।

 

सूक्ष्म आर्थिक स्तर पर उपलब्ध साहित्य जिसमें श्रम बाजार परिणाम एवं वैयक्तिक मजदूरी पर शैक्षणिक उपलब्धि के प्रभाव को विश्लेषित किया गया है, में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि शालेय अवधि विस्तार का वृहत धनात्मक एवं सार्थक प्रभाव एवं आय श्रम शक्ति दर एवं रोजगार संभावनाओं पर बढ़ता है, इसके साथ ही यह साक्ष्य भी पर्याप्त रूप से उपलब्ध है कि प्राथमिक साक्षरता एवं गणनात्मक कुशलता का मजदूरी एवं रोजगार पर वृहत एवं सार्थक प्रभाव देखा गया है। हाल में किए गए अध्ययन यह बताते हैं कि यूरोपीय देशों मंे अतिरिक्त शालेय प्रशिक्षण व्यक्तिगत स्तर पर मजदूरी में 6ण्5ः के लगभग वृद्धि में परिलक्षित होता है।

 

सूक्ष्म आर्थिक स्तर पर अर्थशास्त्रियों ने आन्र्तजन्य विकास के औपचारिक प्रारूपों में मानवीय पूँजी संचयन को केन्द्रीय भूमिका प्रदान कर आर्थिक विकास में शिक्षा के योगदान के प्रति आशावादी दृष्टिकोण अपनाया। अधिकांश अर्थशास्त्रियों ने यह पाया कि विभिन्न प्रकार के आर्थिक सूचकों का उत्पादन स्तर पर धनात्मक प्रभाव है। कुछ अध्ययनों में यह स्पष्ट रूप से इंगित किया गया है कि तकनीक परिवर्तन की दर के निर्धारक के रूप में शैक्षणिक स्तर एक महत्वपूर्ण कारक है। विदेशी तकनीक के अवशोषण को प्रोत्साहित करने में शिक्षा की भूमिका के धनात्मक प्रभाव देखे जा सकते हैं।

 

विभिन्न अध्ययन जिनमें कालमालिका एवं अनुप्रस्थ समंकों का प्रयोग किया गया था, यह बताते हैं कि शैक्षणिक स्तर मंें वृद्धि के कारण तकनीकी क्षमता में विस्तार देखा गया है, दक्षता निर्माण के जीवन चक्र प्रारूप यह बतलाते हैं कि अधिगम की प्रक्रिया जीवन काल के आरंभिक वर्षों में पारिवारिक वातावरण से प्रभावित होती है, क्योंकि यह समय आधारभूत दक्षता क्षमताओं के अर्जन मंे महत्वपूर्ण होता है और जीवन चक्र के बाद के वर्षो में यह उत्तरोत्तर कठिन होता जाता है।

 

निष्कर्ष:

उपरोक्त विवेचना से यह ज्ञात होता है कि शिक्षा का आर्थिक विकास मंें योगदान निर्विवाद हैं, शिक्षा मात्र उपभोग क्रिया न होकर निवेश क्रिया भी है क्योंकि यह भौतिक पूँजी निर्माण की विभिन्न निर्माण प्रक्रिया का विकास करने का साथ-साथ मानवीय पूँजी के निर्माण मंे अपना योगदान देती है। एडम स्मिथ एवं डेविड रिकार्डो जैसे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों से लेकर विकास अर्थशास़्त्र से संबंधित अर्थशास्त्रियों ने शिक्षा के आर्थिक विकास मंे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष योगदान का विश्लेषण किया है।

 

शिक्षा का मानवीय पूँजी का यह रूप उत्पादन के कारक के रूप में श्रम की गुणवत्ता में सुधार लाता है तथा तकनीकी विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। इस प्रक्रिया में यह मान्यता होती है कि मानवीय पूँजी द्वारा सृजित बाह्यताएं, स्वपोषित आर्थिक विकास प्रक्रिया का प्रमुख स्त्रोत है। अधिक शिक्षित व्यक्तियों को मजदूरी के रूप में प्राप्त उच्च धनात्मक आर्थिक भुगतान समाज में उनके आर्थिक मूूल्य को स्थापित करता है। हालांकि आर्थिक विकास को तीव्र करने में शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, किन्तु इसकी क्षमताओं के संदर्भ में वास्तविक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है, शिक्षा को समस्त आर्थिक समस्याओं के निदान की जादुई छड़ी के रूप में न लेते हुए, व्यापक नीति तथा निवेश वातावरण का निर्माण सतत्् आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

 

भारत जैसे विकासशील देश मंे आर्थिक विकास का नायक बनने की पूर्ण संभावनाएॅ विद्यमान हैं, विश्व की सर्वाधिक तकनीकी श्रम शक्ति से युक्त राष्ट्र के रूप मंे हाल के वर्षो में भारत की पहचान बनी है। शिक्षा के विविधिकरण और विशिष्टीकरण के कारण उच्च शिक्षित श्रम शक्ति ने रोजगार के नए क्षेत्रों में प्रवेश किया है। हाल के वर्षों मे अभियांत्रिकी, प्रबन्धन एवं सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित अध्ययन क्षेत्रों की माँग में वृद्धि हुई है। अतः इन संभावनाओं के परिपे्रक्ष्य में तदर्थ नीतियों के स्थान पर वस्तु स्थिति आधारित नीतियों के निर्माण की आवश्यकता है।

 

भारत में विभिन्न राज्यों मंे शिक्षा के विकास की नीतियाॅं अलग-अलग हैं।

 

शिक्षा की पहुँच गुणवत्ता मंे सुधार इत्यादि प्रावधानों में अधिकतर राज्य केन्द्रीय सरकार और राष्ट्रीय नीतियों का अनुसरण करते हैं। अधिकांशः राज्यों मे आज भी आधारभूत शिक्षा अधःसंरचना एवं दूरगामी शिक्षा नीति के अभाव मंे मानवीय पूँजी निर्माण की दिशा मंे प्रयासों में न्यूनता दिखाई देती है। शिक्षा के विभिन्न स्तरों के विकास के प्रति दीर्घकालीन नीति के अभाव में सार्थक परिणाम नहीं दिखाई दे रहे हैं, श्रम शक्ति की निम्न उत्पादकता, वैयक्तिक आय स्तर की निम्नता, व्याप्त निर्धनता एवं बेरोजगारी आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के निराकरण हेतु शिक्षा नीति में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। सन् 2025 तक लगभग 70 करोड़ जनसंख्या 25 वर्ष से कम आयु की होगी जो कि भारत को विश्व को सबसे युवा वाले जनसंख्या के रूप मंे स्थापित करेगी, जिसके चलते मानवीय पूँजी निर्माण की दृष्टिकोण से ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में आधारभूत शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं में परिमाणात्मक विकास एवं गुणात्मक सुधार की आवश्यकता होगी। यदि इस जनसंख्या को ध्यान मंे रखते हुए अभी से दीर्घकालीन नीतियों का निर्माण किया जाए तो भारत न केवल उच्च शिक्षा में विश्व स्तर पर आर्थिक नायक के रूप मंे उभर सकता है बल्कि आर्थिक क्षेत्र में शिखर को प्राप्त कर सही अर्थों में विश्व गुरू बन सकता है।

 

अंत मैं यह कहना चाहूँगी कि वर्तमान समाज ज्ञान अथवा सूचना तकनीक आधारित समाज है। इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में सफलता अर्जित करने के लिए अधिकतम परिश्रम करने की जरूरत है। हमंे अपने अंदर विद्यमान असीमित ऊर्जा और तेज का उपयोग समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिए करने की जरूरत है। हम जहाँ एक ओर अपने गौरवशाली अतीत की गरिमा बनाये रखें, वहीं दूसरी ओर अपने परिश्रम, शौर्य और पराक्रम से एक नया इतिहास रचने के लिए भी प्रयत्नशील रहें। इसी में जीवन की सार्थकता निहित है।

 

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Received on 07.02.2015       Modified on 28.02.2015

Accepted on 09.03.2015      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences 3(1): Jan. –Mar., 2015; Page 06-12