समकालीन कविता में आम आदमी

 

श्रीमती कुमुदिनी घृतलहरे] मधुलता बारा2

1शोध-छात्रा, साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छŸाीसगढ़)

2वरि. सहा. प्राध्यापक, साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छŸाीसगढ़)

 

सारांश- 

उपेक्षित जीवन, जर्जर हालात और बढ़ती मंहगाई ने आम आदमी का जीवन दुश्वार कर दिया है। वह जीवन की मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान के लिए ताउम्र संघर्शरत है। परिणामस्वरूप निराशा, हताशा, कुण्ठा का शिकार हो वह मूल्यहीनता की स्थिति में आ गया है और समाज में अपराधों की संख्या में लगातार इज़ाफा हो रहा है। किंतु इन्हीं के बीच छोटी-छोटी अभिलाशाओं एवं स्वप्नों को संजोए हुए आम आदमी थोड़े में ही खुश और संतुश्ट भी हो जाता है। समकालीन कविता के माध्यम से आम आदमी के वर्तमान परिस्थितियों का यथार्थ स्वरूप ज्ञात होता है।

 

प्रस्तावना

संवेदनशील साहित्यकार जीवन में प्रति पल बदलती परिस्थितियों को महसूस कर समाज में बदलते मूल्यों, संवेदनाओं और लोक-व्यवहारों पर पैनी नज़र रखते हैं। अपनी लेखनी के माध्यम से युग की, समाज की, दशाओं को बयाँ कर समाज का समाज से परिचय करवाते हैं। किसी व्यक्ति के समय का या किसी काल-खण्ड में प्रचलित या व्याप्त प्रवृŸिायों या स्थितियों को उस व्यक्ति के समकालीन माना जा सकता है और इन प्रवृŸिायों एव स्थितियों के होने का भाव समकालीनता है।1 समाकलीनता अर्थात् एक ही समय में घटने वाला या समान काल में विद्यमान।2

 

कविता में आम आदमी

आम आदमी के दुख, तकलीफ को प्रारंभ से ही कविता में स्वर मिलती रही है, किंतु 1970 के पश्चात् के काव्य में आम आदमी की समस्याओं और उसके लघु रूप का वृहत चित्रण है। समकालीन कवियों ने आम आदमी के अभावों, संघर्षों, मनोदशा, भावनाओं के प्रति प्रतिक्रिया मात्र न देकर इसे परत-दर-परत इस प्रकार बयाँ किया है मानों वे स्वयं अभावग्रस्त आम आदमी के प्रतिनिधि हों। आम आदमी अर्थात् साधारण, सामान्य आदमी। समाज का बहुत बड़ा हिस्सा एक समान समस्याओं से जूझता रहा है। अतः पुरुष के साथ स्त्री भी इस शब्द में समाहित है। इस प्रकार आम आदमी, व्यक्ति विशेष नहीं वरन समूह विशेष को ध्वनित करता है।

 

आजादी के बाद मोहभंग की स्थिति ने जनता में क्रोध, आक्रोश की भावना का संचार किया। खोखली जनतांत्रिक व्यवस्था की असलियत धूमिल की कविताओं में प्रमुखता से उजागर होती है। धूमिल को जनता से भी शिकायत है, क्योंकि उसकी निष्क्रियता

 

जनतंत्र को कमजोर बनाने में सहायक भूमिका निभाती है। प्रौढ़ शिक्षा कविता में धूमिल ने जनता से आह्वान किया है कि स्वयं

 

विचार-विमर्श कर आत्म्निर्भर बनें, शिक्षित होकर अपनी जड़ें मजबूत करें। उन्होंने जनता व व्यस्था में बदलाव के प्रति अपना क्रोध प्रकट किया है-

 

‘‘मैं फिर कहता हूँ कि हर हाथ में गीली मिट्टी की तरह हाँ-हाँ मत करें  

तनो  अकड़ो अमरबेलि की तरह मत जियो

जड़ पकड़ो बदलो - अपने आप को बदलो

यह दुनिया बदल रही है और वह रात है, सिर्फ रात...

इसका स्वागत करो   यह तुम्हें

शब्दों के नये परिचय की ओर लेकर चल रही है।’’

(समकालीन हिंदी कविता, पृ. 80)

 

धूमिल एवं उनके समकालीन कवियों ने आम आदमी पर ध्यान केंद्रित कर उनकी जीवन के सभी पक्षों को पैनेपन के साथ उजागर किया। छोटे-छोटे काम करने वाले मामूली व्यक्ति की दैनिक जीवन से संवेनशीलता के साथ जुड़ाव महसूस कर उसे का़ग़ज पर उतार दिया। ऊपरी चित्रण मात्र न होकर उनकी कुण्ठा, आक्रोश, इच्छा, निराश, हताशा आदि भावनाओं का सूक्ष्म अंकन किया।

 

धूमिल की किस्सा जनतंत्र का कविता में निम्नवर्गीय उपेक्षित वर्ग के शोषित जीवन की अभावग्रस्तता व गरीबी का अत्यंत संवेदनाील चित्रांकन है-

 

‘‘कुल रोटी तीन।                      

खाने से पहले मुँह दुब्बर।               

पेट भर पानी पीता है। और लजाता है।          

कुल रोटी तीन। पहले उसे थाली खाती है।  

फिर वह रोटी खाता है।’’4

(संसद से सड़क तक, पृ. 41)

 

अपनी अस्मिता व पहचान बचाए रखने हेतु आम आदमी हर क्षण संघर्ष करता है। घास की तरह ही उसकी भी खास पहचान व विशेष मूल्य नहीं होता, उसके जीने-मरने से किसी को कोई मतलब नहीं होता। अंतिम साँस तक उसे पहचान व प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो पाती। इन्हीं भावों को रमेश चन्द्र शाह ने हरिश्चन्द्र आओ कविता मंे उकेरा है-

 

‘‘मैं घास की तरह जन्मा। और बढ़ा। मुझे किसी ने नहीं बोया

सभी ने रौंदा। सभी ने चरा।’’5

(हरिश्चंद्र आओ, पृ. 28)

 

उदय प्रकाश की कविता बैरागी आया है गाँव में निम्नवर्गीय परिवार की गरीबी, बेबसी का अति संवेदनशील साक्ष्य है। दो जून की रोटी तो दूर की बात है, वहाँ कई दिनों तक चूल्हे भी नहीं जल पाते-

 

‘‘जहाँ तुम्हारा चूल्हा ठण्डा पड़ा है।        

पतीली औंधी धरी है और पाँच दिन की भूखी कानी कुतिया/     

जहाँ सोे रही है/पाँच दिन की बुझी राख पर।’’6

(अबूतर-कबूतर, पृ. 97)

 

बढ़ती मँहगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। हजारोें जतन के बावजूद दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति असंभव हो गई है। नरेंद्र गौड़ ने उसकी एक रात कविता में आम जीवन में संघर्षरत गृहिणी का चित्रण किया है। संघर्षों से इस कदर जूझ रही है कि वह नींद में भी गृहस्थी के बोझ तले दबकर जोड़-तोड़ कर रही है, चैन की नींद मुश्किल हो गई है-

 

‘‘20 दूध वाले को/40 राशन के 15 लगेंगे मिट्टी तेल में/60 मकान मालिक को जायेंगे/

100 किराने वाले को/किताबेें भी आनी हैं/

बच्ची की इसी माह/30 तो चाहिए/

साग-सब्ज़ी दिगर में/ टल्ला मारती/पूछेगी-

अखबार बंद कर दें ?/

Ÿार की प्रतिक्षा किये बिना/

जोड़ने लगेगी/फिर से/बुदबुदाते रहेंगे ओंठ/

हिलती रहेंगी/उसकी उंगलियाँ/नींद में।’’7 (इसलिए, पृ. 46)

 

आम आदमी के लिए अपना घर मात्र सपना बन गया हैै। झोपड़ों व फूटपाथों पर ही ज़िंदगी गुजर जाती है। खुला आसमान ही उसका आसरा है और इसी के नीचे अंत में वह मिट जाता है। रमेश कौशिक की कविता चाहते तो:..... मकान में अभावग्रस्त व्यक्ति के जिंदादिली का चित्रांकन है-

‘‘नहीं-नहीं/मुझे नहीं रहना है/किसी भी मकान में/

चाहे वह लाल पत्थर का हो/या पीली ईंटों का/

कर्ण की कवच की तरह/मेरी पीठ पर लदा है/

एक जन्मजात नीला तम्बू/जो मेरे लिये काफी है/

हर बियाबान में।’’8(चाहते तो:... मकान, पृ. 25)

 

गोरख पाण्डेय की उठो मेरे देश कविता में राजनेता व आम आदमी के बीच संबंध को चित्रांकित किया गया है। झूठे वादे व सपने दिखाने वाले नेताओं के लिए आम आदमी मात्र एक मतदाता बन कर रह गया है। ज़मीनी हकीकत से दूर सिर्फ धन-लोलूपता व्याप्त है। अपने लाभ के लिए सदा जनता को आश्वासन देकर गायब होने वाले राजनेता को भोली जनता ढूँढ़ती रह जाती है-

‘‘भाई कहीं आपने मसीहा को इधर आते देखा,

वायदा किया थाउसने पिछले चुनाव में आयेगा जल्दी ही

मिटायेगा गरीबी-दुख-दर्द

सर्दी में अकड़े शरीर पर

मोटे कम्बल-सी गर्मी और खुशी लायेगा।’’9

(उठो मेरे देश, पृ. 99)

 

लीलाधर जगूड़ी ने इस व्यवस्था में आम आदमी की मूल्यहीनता के कारण की ओर इंगित किया है। कई बार व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति न हो पाने पर गलत रास्ता अपना लेता है। लूटपाट के साथ ही हत्या करने से भी परहेज नहीं करता। वर्ग-भेद, सामाजिक अव्यवस्था, बेरोजगारी ही इसके प्रमुख कारण हैं। मूल्यहीनता चरम तक पहुँच चुकी है, यही कारण है कि हिंसक कृत्य करते हुए भी वह अपने मन को तर्कों द्वारा समझाकर स्वयं को सही साबित करने का प्रयास कर रहा है-

 

‘‘दो साल पहले मेरे पास तौलिया नहीं था/

और कहीं का एक तुम्हारा जैसा आदमी/

फुसफुसा नहीं पाया था/

उसने सिर्फ हाथ से कहा था/

मैं तुमसे कुछ नहीं छिपाऊँगा/फिर भी दबे गले के नीचे/

चाकू धँसा कर/उस दिन/मैंने पाँच रुपया कमाया था/

मरने के बाद आदमी को/रुपयों की दरकार नहीं रहती है/आदमी को मारते हुए हर बार/मेरी ज़रूरत मुझसे यही कहती है।’’10(नाटक जारी है, पृ. 57)

रामदरश मिश्र ने जुलूस कविता में राजनीतिज्ञों के शतरंज के मोहरे बने आम आदमी की बेबसी व असहायपूर्ण भावों को उजागर किया है। अच्छे-बुरे की समझ न रखने वाला आम आदमी नेताओं के इशारों पर नाचने मजबूर है। उसका भविष्य क्या होगा उसे नहीं पता, वह जीवन भर केवल भटकता रहता है-

‘‘हाँ जुलूस जा रहा है/ रास्तोें को रौंदता/

फसलों को कुचलता/घरों को तोड़ता-फोड़ता/

रथों में बैठे हैं ऊँचे लोग/और लाखों फटेहाल लोग/

रथ खींच रहे हैं/जिन्हें नहीं मालूम है कि/

यह जुलूस कहाँ जा रहा है।’’11(जुलुस कहाँ जा रहा है, पृ. 16)

 

आम आदमी की अपनी बहुत छोटी व सीमित दुनिया होती है बहुत छोटे-छोटे ख्वाब होते हैं और इन्ही सुखों की कल्पना वे ताउम्र करते हैं-

 

‘‘एक हाथ कोहनी तक/चूड़ियों से भरा हुआ/

पीला घाघरा और लाल चुनरी/नये बाँस की महक से/गमकता टप्पर/-बाबा के लिये एक सतरंगी लुंगी/और एक मोटी रोटी गेहूँ की/खरी सिंकी/गरम।’’12

(कूड़ेवाली लड़की, पृ. 99)

 

यह आकांक्षा कचरा बिनने वाली लड़की की है, इनके पूरे होने  के झिलमिलाते सपने देखती है। वह तो बस थोड़े मेें ही खुश रहना चाहती है, उसे महलों व पकवान की इच्छा नहीं है, ये तो उसके सपनों से भी बाहर है।

 

निष्कर्षः

अतः हम कह सकते हैं कि आम आदमी के प्रति समकालीन कवियों का सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार ही उन्हें आम आदमी का प्रतिनिधि बनाता है। सर्वहारा वर्ग की छोटी-से-छोटी दैनिक क्रियाकलाप को नजदीक से देखा व अनुभव किया, तभी उनके दर्द, छटपटाहट, आक्रोश का जीवंत चित्रण समाज के सामने लाने में सफल हुए। उच्च वर्ग की दृष्टि मे आम आदमी तुच्छ व हेय है राजनेताओं के लिए वोट बैंक व धन एकत्रित करने का मशीन है। बढ़ती मँहगाई व बेरोजगारी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति होने नहीं देती, अतः कई बार गलत राह पकड़कर अपराधी बन जाता है। इन सभी समस्याओं का समकालीन कविता में भावपूर्ण चित्रण प्राप्त होता है।

 

अंधविश्वास, असुरक्षा, निर्धनता, कुण्ठा, तनाव के कारण आम आदमी भयंकर त्रासदी से गुजर रहा है, किंतु छोटी-छोटी अभिलाषाओं और स्वप्नों के सहारे वह सुखमय जीवन की कल्पना करते हुए जीवन व्यतीत कर देता है। आम आदमी की इन्हीं मनोदशाओं को सूक्ष्मता से पकड़कर कविता में यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं।

 

संदर्भ-सूचीः

1.      जोशी, मृदुल. समकालीन हिन्दी कविता मे आम आदमी. दिल्ली: क्लासिकल पब्लिशिंग कम्पनी, प्र.सं. 2001, पृ. (प).

2.      वही, पृ. 1.

3.      रमेश, अनुपम (संपा.). समकालीन हिंदी कविता. रायपुर (छ..): शताक्षी प्रकाशन, प्र.सं. 2000.

4.      धूमिल. संसद से सड़क तक. दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, प्र.सं. 1972.

5.      शाह, रमेश चन्द्र. हरिश्चन्द्र आओ. दिल्ली: प्रकाशन संस्थान, प्र.सं. 1980.

6.      प्रकाश, उदय. अबूतर-कबूतर. नई दिल्ली: राधाकृश्ण प्रकाशन. प्र.सं. 1980.

7.      परसाई, हरिशंकर (संपा.). इसलिये. भोपाल: सरस्वती नगर मार्च 1984.

8.      कौशिक, रमेश. चाहते तो:.... मकान, दिल्ली: अक्षर प्रकाशन, प्र.. 1979.

9.      पाण्डेय, गोरख. जागते रहो सोने वालों. दिल्ली: राधाकृश्ण प्रकाशन, प्र.सं. 1983.

10.     जूगड़ी, लीलाधर. नाटक जारी है. नई दिल्ली: अक्षर प्रकाशन, प्र.सं. 1972.

11.     मिश्र, रामदरश. जुलुस कहाँ जा रहा है ?. दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, प्र.सं. 1989.

12.     ज्ञानरंजन, कमला प्रसाद (संपा). पहल - 37: राजेश शर्मा- कूड़ेवाली लड़की. जबलपुर: 763, अग्रवाल काॅलोनी.

 

 

Received on 04.09.2014       Modified on 12.09.2014

Accepted on 18.09.2014      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences 2(3):  July-Sept 2014; Page 180-182