जनाधिक्य  एवं महिलाएं: एक विश्लेषण

 

सुचित्रा शर्मा1] अमरनाथ शर्मा2

1 सहा0 प्रा0, शास. महा., अर्जुन्दा (छ.ग.)

2शास.महा., वैषालीनगर, भिलाई (छ.ग.)

 

INTRODUCTION:

यह निर्विवाद सत्य है कि विश्व के स्तर पर जनाधिक्य है, जो कि समस्या के रूप में निरन्तर बढ़ता चला जा रहा है। यह स्वयं में तो एक समस्या है ही, साथ ही समस्याओं की श्रृंख्ला का उद्गम भी है, जो हमारी सभी सुविधाओं का मार्ग न केवल संकुचित करती है, बल्कि व्यक्ति के व्यक्तित्व को भीड़ का हिस्सा  बना शून्य कर देती है। उसी व्यक्तित्व के मूल में है ‘महिला’ वह इस पूरे भीड़तन्त्र की जननी है, अतः जनसंख्या वृद्धि के मूल में महिलाओं की स्थिति को अनदेखा नहीं किया जा सकता। अब तक जनाधिक्य को आर्थिक समस्या के रूप में ही देखा गया है। इसके मूल में निहित है महिलाओं की समस्या।

 

हमारी सामाजिक संरचना विषमताओं से भरी है। एक और हम सभी की समानता की बात करते हैं वही महिलाओं की समानता पर समाज मौन हो जाता है। पितृसत्तामक सोच हम सभी पर हावी है। महिलाओं के प्रति समाज की सोच, लड़के की चाह में बच्चों की कतारें उसे बच्चा पैदा करने की मशीन में तब्दील कर देती हैं। जहाँ महिला की स्वयं सोच या इच्छा कोई मायने नहीं रखती। सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़े दृढ़ता से समाज को पकड़े है। इनसे परे समाज कहाँ निकल पाया है? जब हम इस दोहरी मानसिकता से निकल ही नहीं पाये तो समाधान का स्वरूप भी दिखाई नहीं देता। आज जनवृद्धि हमारे लिए समस्या बनी है क्योंकि अधिक बच्चों का भार वहन करने लायक हमारी स्थिति चाहे वह आर्थिक या भौतिक, मजबूत नहीं है। हम केवल आर्थिक कारणों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं क्योंकि हमारे पास संसाधनों की कमी है। यह जानना भी जरूरी है कि जनाधिक्य के मूल में जननी महिला की क्या स्थिति हैं उसका स्वास्थ्य, व्यक्तित्व या कैरियर कहीं दाँव पर तो नहीं, क्योंकि बच्चे पैदा करते-करते महिला अपनी मनुष्य होने की संभावना को तिलांजलि दे बैठती है।

 

शोध पत्र का उद्देष्यः-

प्रस्तुत शोध आलेख का मुख्य ध्येय यही है कि जनसंख्या की विकरालता में महिलाओं की स्थिति क्या भूमिका निभाती हैं। महिलाओं की समस्याओं का समाधान ही जनसंख्या वृद्धि का समाधान रूप कैसे बन सकता है, इस बात का विशलेषण करना।

 

तथ्यों का विश्लेषणः-

विश्व के सभी देशों ने अपनी जनसंख्या वृद्धि को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की, जो उत्पादन-विकास-खपत और श्रमशक्ति की उपलब्धि और अनुपलब्धि पर आधारित थी। जो इस सोच से परे थी, कि स्त्री की स्थिति, जो इस जनसंख्या की जननी है, भी जनसंख्या वृद्धि का कारण हो सकती है। कई देश ऐसे भी थे जो अपने देश की प्रगति में संसाधनों की बहुलता में आबादी वृद्धि हेतु प्रोत्साहन कार्यक्रम चलाने पर जोर देते थे। इस तरह अपने निहित राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति में स्त्री को अधिक सन्तानोत्पादन में लगाना वैसा ही था जैसे हमारे देश में प्राचीन काल में इस मान्यता को, कि ‘अधिक बार माँ बनने से पुण्य लाभ होता है’ प्रश्रय देने जैसा है। वस्तुतः ये सारी तन्त्र की व्यवस्था कहीं न कहीं महिला-निरपेक्ष नीति का हिस्सा है, बजाय इसके कि आबादी की कमी दूर करने हेतु स्त्री को मशीन समझ उपयोग में लाया जाता है।

 

आबादी की अधिकता को दूर करने के  लिए विकासशील देशों ने परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू किये पर वे केवल आर्थिक थे, स्त्री के पक्ष से बिल्कुल दूर। मिसाल के तौर पर जापान ने गर्भपात को वैध बनाकर जनसंख्या समस्या पर काबू पाया। परिवार नियोजन का यह तरीका महिलाओं के विरोध का है। चीन, भारत, इन्डोनेशिया, पाकिस्तान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, मिस्त्र फिलीपीन्स, क्यूबा, चिली आदि राष्ट्रों ने परिवार  नियोजन की जरूरत केवल आर्थिक प्रोत्साहन हेतु समझी। नसबंदी हेतु प्रोत्साहन, छोटे परिवार को प्रोत्साहन, गर्भपात की वैधता यह सब केवल आर्थिक प्रोत्साहन है, जिनमें स्त्री के स्वयं का निर्णय कहीं मायने नहीं रखता।

 

जनसंख्या समस्या के प्रथम चिन्तक माल्थस (1766-1834 ई.) का मत आज भी समीचीन है कि आर्थिक संकटवश लोग भले ही लघु परिवारों को अपना लें, पर चिन्तन मनन के द्वारा वे जनसंख्या को समस्या मानकर उसे सीमित करने में दिलचस्पी नहीं लेगें। यह कहीं न कहीं हमारी पुरूषसत्तावादी सोच है जहाँ महिलाओं को उनके प्रजनन पर अपना अधिकार स्वतः प्रेरित हो, ऐसी बात सोची नहीं जा सकती थी।

 

भारत में इस दिशा में पंचवर्षीय योजनाएँ चलाई और राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया। प्रथम पंचवर्षीय योजना में ‘परिवार नियोजन कार्यक्रम’ के तहत अनिवार्य अंग मान खर्च की राशि में हर बार बढ़ोत्तरी हुई जो कि निम्न हैः-

 

प्रथम पंचवर्षीय योजना            -     6.5 लाख

द्वितीय पंचवर्षीय योजना          -     5 करोड़

तृतीय पंचवर्षीय योजना           -     27 करोड़

चतुर्थ पंचवर्षीय योजना            -     286 करोड़

पंचम पंचवर्षीय योजना            -     500 करोड़

 

इस बढ़त के बावजूद आबादी में वृद्धि होती रही क्योंकि यह केवल एकपक्षीय था जिसमें केवल महिला नसबन्दी ही की जाती थी। पुरूष नसबन्दी के पीछे हमारी पित्तृसत्तात्मक सोच आड़े आती रही। 1976-77 में ‘अनिवार्यतः बन्ध्याकरण’ के तहत कानूनी अधिकार दिये जाने के कारण, महिला नसबन्दी (2062000) की तुलना में तिगुनी पुरूष नसबंदी (6199000) हुई। जिसकी काफी तिखी प्रतिक्रिया हुई, और जब 1977 में संशोधित जनसंख्या नीति बनी तब नसबंदी ‘अनिवार्य’ की जगह ‘स्वेच्छा’ का प्रावधान रखा गया।

 

सातवीं योजना में ‘हम दो हमारे दो’ वाली नीति अपनायी गई।साथ ही स्त्री स्वास्थ्य पर विशेष फोकस करते हुए ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षणों’ की शुरूआत की गई। 2001 की जनगणना में पहली बार स्त्री के क्रियाकलाप तथा आर्थिक गतिविधियों से जुड़े आंकड़ों का संग्रह किया गया। पहली बार जनवृद्धि पर अंकुश लगाने हेतु गर्भनिरोधकों के अतिरिक्त शिशु और गर्भवतियों के स्वास्थ्य, स्त्रियों के व्यवसाय व उनके अधिकार जैसी बातों पर भी ध्यान दिया गया।

 

इससे यह स्पष्ट होता है कि जनवृद्धि की समस्या के रोकथाम में ‘महिलाओं का सशक्तिकरण’ एक प्रभावी उपाय हो सकता है। इस बात को सरकारी नीतियों में स्वीकार किया गया, लेकिन यह बात ध्यान देने योग्य है कि जनसंख्या वृद्धि ‘स्त्री के संबलीकरण’ की प्रक्रिया में बाधक है। उसका स्वास्थ्य, उसका कैरियर, कुपोषण, अनावश्यक प्रसव पीड़ा में असमय मौत का ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

 

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्मत्य सेन ने इस दिशा में नई सुखद सोच दी है। उन्होनें जनाधिक्य की समस्या को नारी पक्ष से देखने की कोशिश की है तथा इस समस्या के मूल में पितृसत्तात्मक व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया है। इस तरह नारी सशक्तीकरण और जनसंख्या वृद्धि की समस्या एक दूसरे संबंधित है अर्थात जनसंख्या बढ़ने का अर्थ है नारी सशक्तीकरण की प्रक्रिया का ह्ास। यह एक कटु सत्य है जिसे हमें स्वीकार करना होगा तभी जनसंख्या वृद्धि में कमी लाई जा सकती है।

 

अर्मत्य सेन ने अपनी कृति ‘आर्थिक विकास और स्वातंत्र्य’ में लिखा है-वे जन्म दर में कमी चाहते है, क्योंकि इसका सबसे गहन दुष्प्रभाव स्त्री के जीवन पर पड़ता है। उनका मानना है कि अधकचरे विचारों को ‘परंपरा के नाम पर प्रतिष्ठित करके स्त्री को बच्चा पैदा करने की मशीन बना लिया गया है। इससे नारी की जीवन यापन संबंधी स्वतंत्रता पर दुष्प्रभाव पड़ा है। ये सच्चाईयां जनसंख्या नीति में ध्यान में नहीं रखी गई। इस नीति में परिवार नियोजन के उपायों व साधानों पर बल दिया गया है। जन्मदर बढ़ने में मूल तत्व पितृृसत्तात्मक विचारधारा और उस पर आधारित सामाजिक संरचना को कहीं ध्यान नहीं दिया गया।

 

विवाह की पितृस्थानीय व्यवस्था, सांस्कृतिक स्तर पर बेटे की अहमियत, दहेज प्रथा, पुत्र मोह में स्त्री पर सन्तान पर सन्तान पैदा करते रहना, गर्भपात का दबाव, लिगनुपात में कमी, प्राथमिक शिक्षा से वंचित, कार्य के क्षेत्र में महिलओं की कम भागीदारी, स्त्री मृत्यु दर आदि कारक ऐसे हैं, जो हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सोच में विद्यमान हैं।

 

जनसंख्या की विसंगतियाँः-

केन्द्र सरकार के ‘महिला कल्याण विभाग’ के अनुसार जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में रखे गये नसबंदी अभियान में महिला भागीदारी का आंकड़ा बढ़ता गया और पुरूष भागीदारी घटती रही। इस योजना के शुरूआत (1955-61) में पुरूष भागीदारी रही। 1976-77 में इस संख्या में काफी वृद्धि हुई परन्तु फिर तो गिरावट होती रही। 1997-98 में महिला नसबंदी (4167000) की तुलना में पुरूष नसबंदी लगभग 60 गुनी कम हो गई (71000)। सन् 2000-01 के आंकड़ों के अनुसार महिला नसबंदी की तुलना में पुरूष नसबंदी लगभग 41 गुनी कम (110000) रह गई। अर्थात् सरकार व समाज महिलाओं को नसबंदी से जोड़ता गया और पुरूष नसबंदी को सामाज की तीखी प्रतिक्रिया के बाद छूट मिलती गई क्योंकि नसबंदी के लिए अनिवार्य की जगह स्वेच्छा की नीति बना दी गई। इसी विसंगति का परिणाम है कि आज सिर्फ 01 प्रतिशत पुरूष नसबंदी कराते है। इस नियम का परिणाम यह भी रहा कि व्यवस्था में मौजूद पुरूषसत्तात्मक सोच के चलते ‘अनिवार्य’ शब्द स्त्री के लिए और ‘ऐच्छिक’ शब्द पुरूष के लिए प्रयोग में लाया जाने लगा। बाकी गर्भनिरोधकों जैसे ळण्न्ण्क्ण् या काॅपर टी, गोलियों, और सुईयों का भार भी तो स्त्री के दायरे में आया, क्योंकि आज भी हमारी सामाजिक व्यवस्था स्त्री को अपनी देह या प्रजनन या किसी भी फैसले को लेने में स्वतंत्रता नहीं देती।

 

एक आम भारतीय स्त्री की वास्तविकता यही है कि उसका स्वयं पर या स्वयं जुड़े फैसले को लेने का अधिकार नहीं है। उपर से वंष परम्परा के निर्वाह  की संपूर्ण जिम्मेदारी उसी की है। बच्चा पैदा करने या न करने की स्वतंत्रता, निर्णय लेने के बजाय थोपे गये निर्णय में अपनी स्वीकृति देना, यही उसकी नियति है, वह मान लेती है। समाज में चल रही अंधविश्वासी, कुसंस्कारों व रूढ़ियों में वे इस तरह जमती रहती हैं कि उनमें स्वअस्तित्व के प्रति चेतना जैसी वस्तु रह नहीं पाती।

 

यह स्थिति आज की नहीं बल्कि काफी पहले से ही हमारी व्यवस्था में विद्यमान है। आज इस बात के विवेचन की आवष्यकता है कि आखिर स्त्रियों की यह स्थिति कैसे निर्मित हुई। इसका कोई विस्तृत वर्णन तो नहीं पर उपलब्ध सबूतों के आधार पर गर्दा लरनर ;ज्ीम ब्तमंजपवद व िच्ंजतपंतबीलद्ध ने पितृसत्ता का इतिहास लिखा है। नवपाषाण काल में कृषि के विकास के साथ-साथ खेतों में काम करने के लिए अधिक हाथों की आवष्यकता ने कबीलों के बीच स्त्रियों के विनिमय को जन्म दिया। जिसका प्रभाव उनके आपसी संबंधों पर अच्छा पड़ा। लेकिन इसी के परिणाम स्वरूप पुरूष समूह का स्त्रियों पर अधिकार हो गया और वहीं स्त्री समूहों का पुरूषों पर अधिकार नहीं रहा और वह पुरूषों के हाथों जमीन की तरह एक संसाधन बनकर रह गई। सिमोन द बुआवार ने स्त्री उपेक्षिता में लिखा है-‘‘कभी वह गुलाम रहीं, कभी देवी बनी किन्तु अपने मानव रूप का चुनाव वह कभी नहीं कर सकी।

 

विज्ञान की इतनी प्रगति के बाद भी किसी आदिम युग में रचा गया मिथक आज भी जनमानस को चला रहा है। कालान्तर में यही व्यवस्था समाज में अपनी जड़े जमाती गई। आज जनसंख्या वृद्धि की समस्या से समाज जूझ रहा है। ऐसा नहीं कि इस समस्या से निपटने की कोशिश नहीं की गई, परन्तु वे प्रयास या तो समस्या के कारणों के विश्लेषण से संबंधित थे या समाधन सीमित दायरे में केन्द्रित रहे। ये सभी प्रयास एक-पक्षीय रहे इसमें स्त्री-पक्ष को देखने की कोशिश नहीं गई।

 

वस्तुतः जनाधिक्य के पीछे खाद्य-समस्या, निर्धनता, अशिक्षा, आवास समस्या, ऊर्जा संकट, स्वास्थ्य व शिक्षा की कमी, पर्यावरण नाश, आदि कारकों को जिम्मेदार माना गया जबकि समस्या के मूल में आधी आबादी के प्रश्न की बात सोची ही नहीं गई। जन्मदर बढ़ने क कारक में सामाजिक समस्यायें जिम्मेदार घटक जरूर हैं, पर इनसे बढ़कर पितृसत्तात्मक सोच जैसी समस्या अनदेखी रही।

 

भारत सरकार ने 1945 तक जनसंख्या स्थिर रखने का लक्ष्य रखा, परन्तु केवल आर्थिक दृष्टि से आधी जनसंख्या की नीति बनाई, जिसमें महिलाओं की नसबंदी का आसान तरीका प्रयोग में लाया गया। चूंकि हमारी व्यवस्था में महिलाओं को स्वयं के प्रति, जो पूर्व से ही घुट्टी के रूप में पिलाई गई थी, सोच ने उन्हें अपनी नियति को स्वीकार कर लेने में भलाई दिखी। स्त्री-पुरूष के बीच विद्यमान विषमता ने जनसंख्या नियंत्रण में परिवार नियोजन के साधनों के प्रयोग में पितृसत्तात्मक सोच को प्रश्रय दिया। यही नहीं परिवार नियोजन के जितने साधन भी प्रयोग में लाये जाते हैं, वे सभी स्त्री पर ही लागू होते हैं।

 

अमत्र्यसेन ने अपनी कृति भारतः ‘‘विकास की दिशाएँ’’ और ‘‘आर्थिक विकास और स्वातंत्र्य’’ में लिखा है कि ‘‘परिवार नियोजनगत जबर्दस्ती से होने वाले स्वातंत्र्य का खामियाजा स्त्री को सर्वाधिक भुगतना पड़ता है।’’ उनका मानना है कि मानवीय स्वतंत्रता एक बड़ा मूल्य है, पर निरपेक्ष मूल्य नहीं। किसी को स्वतंत्रता को वहीं तक स्वीकारा जा सकता है, जब तक वह दूसरों की निजता व मानवाधिकार को न तोड़े। अतः परिवार नियोजन की बाध्यता सिर्फ स्त्री को नहीं बल्कि पुरूषों को भी होनी चाहिये। जनसंख्या नियंत्रण के लक्ष्य के पूरा होते तक स्त्री को एक बार से अधिक जीवित प्रसव का अधिकार दिया जाना चाहिये।

 

अतः जनसंख्या में वृद्धि की समस्या पितृसत्ता-जनित स्त्री समस्या से जुड़ी है। हमें वैचारिक और व्यवस्थागत रूपों में परिवर्तन लाने के लिए स्त्री सशक्तिकरण की प्रक्रिया को और सशक्त व प्रभावशील करना होगा। पित्तृसत्तात्मक व्यवस्था में भी आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसे हटाना या सुधारना निरन्तर जारी रहना चाहिये। जनसंख्या समस्या को हल करके नियोजित करने का अर्थ है, कि प्रकृति जिस अनुपात में स्त्री व पुरूष को लाती है, उसमें कोई हस्तक्षेप किये बिना पुनरोत्पादन करना। इस दिशा में सरकार को भी अपनी जनसंख्या नीति में परिवर्तन करना होगा, नारी की वृहत सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक भूमिका सुनिश्चित कर ही जनसंख्या नीति बनायी जा सकती है। नारी सशक्तीकरण केवल नारी-हित के लिए नहीं बल्कि यह किसी भी देश की विकास प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है।

 

सशक्त स्त्री ही देश में अपनी भागीदारी उचित व सही निर्धारित कर सकती है। इस दिशा में निम्नलिखित उपाय अपनाये जा सकते हैः-

ऽ  जनसंख्या शिक्षा, विवाह उम्र में वृद्धि, बाल मृत्युदर में निरन्तर कमी ताकि लोग इस सोच से मुक्त हो सके कि कहीं एक दो की मृत्यु न हो जाये तो क्यों न अधिक संताने हो।

ऽ  बाल मजदूरी पर रोक ताकि मजदूरी कराने हेतु जनसंख्या न बढ़ायी जाये।

ऽ  अनिवार्य प्रौढ़-शिक्षा या निःशुल्क बालिका-शिक्षा, मातृत्व सुविधा में वृद्धि, वृद्धावस्था में सुरक्षा ताकि बेटा चाहने की मनोवृत्ति में कमी की जा सके।

ऽ  जीवन-बीमा में नवीनता, लघु परिवार को प्रोत्साहन, गांव में लघु उद्योगों की स्थापना ताकि शहर में प्रवजन न बढ़े।

ऽ  स्त्री के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं और उनके प्रति महिलाओं में जागरूकता, स्त्री रोजगार की बढ़ोत्तरी, जिससे महिलाओं में आत्मानिर्णय की समता विकसित हो ।

ऽ  यौन शिक्षा में बढ़ोत्तरी व जागरूकता।

ऽ  महिलाओं को लेकर दोयम मानसिकता को दूर करने हेतु जागरूक कार्यक्रम चलायें। जाये। मसलन कन्या दूसरे की संपत्ति है, पराया धन है, पुत्र की महिमा बताने वाले विचार, धार्मिक अन्धविश्वास आदि।

ऽ  कन्या भ्रूण की जांच करने वाली मशीनों को सरकारी रिकाॅर्ड में पंजीकृत किया जाय, तथा कन्या शिशु को मारने वालों को सजा देकर अथवा जुर्माने से प्राप्त राशि को लिग् भेद निवारक शिक्षा के प्रसार व प्रचार में लगाया जा सकता है।

ऽ  जन मीडिया के साधनों द्वारा लिग् भेद की विचारधारा का उन्मूलन करने का प्रयास सतत् होता रहे।

ऽ  नसबंदी सिर्फ स्त्री के लिए ही नहीं बल्कि पुरूष के लिए भी अनिवार्य होनी चाहिये।

 

अंततः जनसंख्या नियंत्रण का कार्यक्रम स्त्री को केन्द्र में रख चलाये जाने से एक समझदार उचित व मानवीय प्रयास होगा। इससे समाज की नवीन संरचना उभरकर सामने आयेगी, जो स्त्री-पुरूष के बीच संतुलित स्वस्थ व प्रेममय संबंधों पर आधारित समतामूलक समाज होगी। अर्मत्यसेन के शब्दों में - ‘‘अन्य अनेक सामाजिक समस्याओं की भांति ही जनसंख्या समस्या का समाधान भी समाज के उन सदस्यों के स्वातंत्र्य-संवर्धन में छुपा है, जिन्हें बारंबार प्रसव एवं शिशु पालन के प्रत्यक्ष प्रभाव भुगतने पड़ रहे हैं। ये सदस्य है युवा नारियाँ। जनसंख्या-समाधान के लिए भी स्वातंत्र्य संवर्धन की ही आवश्यकता है उसके परिसीमन की नहीं।’’

 

सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और कभी-कभी वैज्ञानिक स्तर पर कार्यरत पितृसत्तात्मक व्यवस्था से आबद्ध समाज की मुक्ति या जनसंख्या समस्या का समाधान स्त्री के सबलीकरण की समान प्रक्रिया से हो सकता है। जो न केवल लिग्भेद से मुक्त लोकतंत्र होगा बल्कि आने वाला समाज समतायुक्त, लिंगानुपात संतुलित, जनाधिक्य मुक्त और समतुल्य विकास युक्त होगा।

 

संदर्भ गं्रथ सूची

1 जोशी गोपा (2006) भारत में स्त्री असमानता-एक विमर्श हिन्दी माध्यम कार्यन्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय

2.  सेन, अर्मत्य ‘ आर्थिक विकास और स्वातंत्र्य’ राज्यपाल एण्ड सन्स, नई दिल्लीं

3 मिश्र इंदिरा- ‘‘गरीब महिलाएंः उधार व रोजगार किताब घर प्रकाशन दिल्ली।

4.  सेन, अमत्र्य - ‘‘भारत: विकास की दशायें’’ राज्यपाल एक संस दिल्ली।

5.  पाठक, रवीन्द्र कुमार - (2010) ‘‘जनसंख्या समस्या के स्त्री-पाठ के रास्ते’’ राधाकृष्ण, नई दिल्ली।

6.  त्रिपाठी, मधूसुदन व त्रिपाठी आदर्शकुमार (2010) ‘‘लिंगीय समाजशास्त्र’’ ओमेगा पब्लिकेशन नई दिल्ली

7. शर्मा, कविता (2012) - ‘‘स्त्री सशक्तीकरण के आयाम’’ रजत प्रकाशन, नई दिल्ली।

 

 

Received on 05.03.2014       Modified on 22.03.2014

Accepted on 28.03.2014      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences 2(1): Jan. –Mar., 2014; Page 27-30