हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श
जीवन लाल
शोध छात्र - पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर (छ.ग.) 492010
सारांश
हिन्दी कथा साहित्य में स्त्री विमर्श जिसमें नारी जीवन की अनेक समस्याएं देखने को मिलता है। हिन्दी साहित्य में छायावाद काल से स्त्री-विमर्श का जन्म माना जाता है। महादेवी वर्मा की श्रृंखला की कड़िया नारी सशक्तिकरण का सुन्दर उदाहरण है।
प्रेमचंद से लेकर आज तक अनेक पुरूष लेखकों ने स्त्री समस्या को अपना विषय बनाया लेकिन उस रूप् में नहीं लिखा जिस रूप् में स्वयं महिला लेखिकाओं ने लिखी है। अतः स्त्री-विमर्श की शुरूआती गुंज पश्चिम में देखने को मिला। सन् 1960 ई. के आस-पास नारी सशक्तिकरण जोर पकड़ी जिसमें चार नाम चर्चित हैं। उषा प्रियम्वदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी एवं शिवानी आदि लेखिकाओं ने नारी मन की अन्तद्र्वन्द्वों एवं आप बीती घटनाओं को उकरेना शुरू किए और आज स्त्री-विमर्श एक ज्वलंत मुद्दा है।
आठवें दशक तक आते-आते यही विषय एक आन्दोलन का रूप ले लिया जो शुरूआती स्त्री-विमर्श से ज्यादा शक्तिशाली सिद्ध हुआ। आज मैत्रेयी पुष्पा तक आते-आते महिला लेखिकाओं की बाढ़ सी आ गयी जो पितृसत्ता समाज को झकझोर दिया। नारी मुक्ति की गुंज अब देह मुक्ति के रूप में परिलक्षित होने लगा।
हिन्दी साहित्य स्त्री समस्या लेखिकाओं
प्रस्तावनाः-
हिन्दी साहित्य में स्त्री - विमर्श की शुरूआत छायावाद काल से माना जाता है। महादेवी वर्मा की कविताओं में वेदना का विभिन्न रूप देखने को मिलता है। उसकी श्रृंखला की कड़िया स्त्री सशक्तिकरण का सुन्दर उदाहरण है। जिसमें नारी-जागरण एवं मुक्ति का सवाल को उठाया गया है। ऐसा साहित्य जिसमें स्त्री जीवन की अनेक समस्याओं का चित्रण हो स्त्री - विमर्श कहलाता है।
प्रेमचन्द से लेकर राजेन्द्र यादव तक अनेक पुरूष लेखकों ने नारी समस्या को उकेरा है। लेकिन उस रूप में नहीं जिस रूप में स्वयं महिला लेखिकाओं ने लेखनी चलायी है। हिन्दी कथा- साहित्य में नारी-मुक्ति को लेकर स्त्री - विमर्श की गूंज 1960 ई. में पश्चिम में हुआ था । जिसमें चार नाम चर्चित है- उषा प्रियम्वदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी एवं शिवानी। ये नारी मन के छिपे शक्तियों को पहचाना और नारी की दिशाहीनता, दुविधाग्रस्तता, कुण्ठा आदि का विश्लेषण किया।
हिन्दी पद्य व गद्य में नारी विमर्शः-
समाज के दो पहलू स्त्री-पुरूष एक दूसरे के पूरक है। किसी एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं है। उसके बाद भी पुरूष समाज ने महिला समाज को अपने बराबर के समानता से वंचित रखा। यही पक्षपात दृष्टि ने शिक्षित नारियों को आंदोलन करने को मजबूर किया जो आज ज्वलंत मुद्दा नारी - विमर्श के रूप में दृष्टिगोचर है।
आदिकाल से ही नारियों की दशा दयनीय एवं सोचनीय थी। स्त्रियों की दशा को देखकर विवेकानंद कहते है - स्त्रियों की अवस्था को सुधारे बिना जगत के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं है। पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है।1 विवेकानंद जी महिला समाज की वास्तविक दशा से चिंचित, देश एवं समाज के भलाई महिला समाज के तरक्की के बगैर असंभव बताया है।
सुशीला टाकभौरे के काव्य संग्रह स्वातिबूंद और खारे मोती तथा यह तुम भी जानों काफी चर्चित रहे हैं। इनकी विद्रोहणी कविता में आक्रोश की ध्वनि सुनाई पड़ती है -
मां-बाप ने पैदा किया था गूंगा
परिवेश ने लंगड़ा बना दिया
चलती रही परिपाटी पर
बैसाखियां चरमराती हैं।
अधिक बोझ से अकुलाकर
विस्कारित मन हुंकारता है
बैसाखियों को तोड़ दूं।2
उपर्युक्त कविता स्त्री-जीवन की वास्तविकता को प्रदर्शित कर रही है।
स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी गद्यकार एवं कवि रघुवीर सहायजी नारी जीवन की वास्तविक चित्र खिंचा हैं, उन्होंने अपने काव्य में स्वतंत्रता के बाद स्त्री जीवन की अनेक समस्याओं को विषय बनाया है। जिस भारत में स्त्री वैदिक काल में यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तत्र रमंते देवता कहा जाता था आज वही अनेक शोषण का शिकार हो रही है। वह कहता है -
नारी बेचारी है
पुरूष की मारी
तन से क्षुदित है
लपक कर झपक कर
अंत में चित्त है।3
प्रस्तुत पंक्ति में कविवर सहाय जी नारी को बेचारी कहकर उसकी दयनीय दशा का वर्णन किया है जो अपने अधिकारों के लिए लड़ नहीं पाती। लेकिन वर्तमान में यह स्थिति परिवर्तित नजर आती है। भारत सरकार ने सन् 2001 को महिलाओं के सशक्तिकरण वर्ष के रूप में घोषित किया। अब नारी अपनी हरेक अधिकार को लेकर रहेगी। यही लड़ाई स्त्री - विमर्श या नारी सशक्तिकरण के रूप में परिलक्षित होती है।
स्त्री लेखिकाओं का योगदानः-
हिन्दी कथा साहित्य में नारी विमर्श का जोर आठवें दशक तक आते-आते एक आंदोलन का रूप ले लिया। आठवें दशक के महिला लेखिकाओं में उल्लेखनीय है- ममता कालिया, कृष्णा अग्निहोत्री, चित्रा मुद्गल, मणिक मोहनी, मृदुला गर्ग, मुदुला सिन्हा, मंजुला भगत, मैत्रेयी पुष्पा, मृणाल पाण्डेय, नासिरा शर्मा, दिप्ती खण्डेलवाल, कुसुम अंचल, इंदू जैन, सुनीता जैन, प्रभाखेतान, सुधा अरोड़ा, क्षमा शर्मा, अर्चना वर्मा, नमिता सिंह, अल्का सरावगी, जया जादवानी, मुक्ता रमणिका गुंप्ता आदि ये सभी लेखिकाओं ने नारी मन की गहराईयों, अन्तद्र्वन्द्वों तथा अनेक समस्याओं का अंकन संजीदगी से किया है।
स्त्री की दशाओं पर अनेक समाज सुधारकों ने चिन्ता व्यक्त किया और यथा सम्भव दूर करने का प्रयास भी। जिससे नारी की स्थिति में परिवर्तन हुआ। ब्रम्ह समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोयायटी, रामकृष्ण मिशन तथा अनेक सरकारी संगठनों ने नारी शिक्षा पर जोर दिया, जिसका सकारात्मक परिणाम आया। वंदना वीथिका के शब्दों में - नारियों के लिए सबसे बड़ा अभिशाप उनकी अशिक्षा थी और उनकी परतंत्रता का प्रमुख कारण उनकी आथर््िाक स्वतंत्रतता का अभाव था। आज स्थिति परिवर्तित हुई है। आज हर क्षेत्र का द्वार लड़कियों के लिए खुला है। वे हर जगह प्रवेश पाने लगी हैं - जमीं से आसमां तक - पृथ्वी से चांद तक (कल्पना चांवला, सुनिता विलियम) उनकी पहुंच है।4
आज स्त्री समाज सभी क्षेत्रों में अपनी भागीदारी निभा रहीे है। राजनीतिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या सांस्कृतिक उसके बाद भी यह लड़ाई क्यों? लेकिन सवाल तो यह है कि वह पुरूष की भांति स्वतंत्रता चाहती है। इसीलिए पितृसत्ता का विरोध कर पारम्परिक बेड़ियों को तोड़ना चाहती है।
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में स्त्रीवादी विचार को पनपने का सुअवसार मिला। भूमण्डलीकरण ने अपने तमाम अच्छाईयों एवं बुराईयों के साथ सभी वर्ग के शिक्षित स्त्रियों को घर से बाहर निकलने का अवसार दिया। परिणामस्वरूप स्त्री अपने वर्जित क्षेत्रों में ठोस दावेदारी की और स्वाललम्बन के दिशा में तीव्र प्रयास भी सामने आए।
स्त्री - विमर्श वस्तुतः स्वाधीनता के बाद की संकल्पना है। स्त्री के प्रति होने वाले शोषण के खिलाफ संघर्ष है। डाॅ. संदीप रणभिरकर के शब्दों में - स्त्री - विमर्श स्त्री के स्वयं की स्थिति के बारे में सोचने और निर्णय करने का विमर्श है। सदियों से होते आए शोषण और दमन के प्रति स्त्री चेतन ने ही स्त्री- विमर्श को जन्म दिया है।5
पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री समाज को हमेशा अंधकारमय जीवन जीने को मजबूर किया है। लेकिन आज की नारी चेतनशील है जिसे अच्छे-बुरे का ज्ञान है। इसीलिए अब इस व्यवस्था का बहिष्कार कर स्वच्छंदात्मक जीवन जीने को आतुर दिखाई पड़ती है। नारी अस्तित्व को लेकर अपने-अपने समय पर कई विद्वानों ने चिन्ता व्यक्त किया है। तुलसीदास जी ने ढ़ोल गवार, शूद्र, पशु, नारी- सकल ताड़ना के अधिकारी कहकर नारी को प्रताड़ना के पात्र समझा है तो मैथलीशरण गुप्त जी ने अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी कहकर नारी के स्थिति पर चिन्ता व्यक्त किया है। प्रसाद ने नारी तुम केवल श्रद्धा हो कहा है तो शेक्सपियर ने दुर्बलता तुम्हारा नाम ही नारी है आदि कहकर नारी अस्तित्व को संकीर्ण बताया है।
अब स्थिति कुछ बदली हुई नजर आती है। क्योंकि छठे शताब्दी के पहले तक सिर्फ पुरूष लेखकों का अधिकार था, महिला लेखन को काऊच लेखक कहकर हंसी उड़ाया जाता था। परन्तु अब स्त्री - विमर्श का डंका इसलिए बज रहा है क्योंकि आठवें दशक तक आते-आते महिला लेखिकाओं की बाढ़ सी आ गयी। उसके बाद भी प्रसिद्ध लेखिका सीमोन द बोउआर के उक्त कथन महिला समाज में परिलक्षित होती है - स्त्री की स्थिति अधीनता की है। स्त्री सदियों से ठगी गई है और यदि उसने कुछ स्वतंत्रता हासिल की है तो बस उतनी ही जितनी पुरूष ने अपनी सुविधा के लिए उसे देनी चाही। यह त्रासदी उस आधे भाग की है, जिसे आधी आबादी कहा जाता है।6
नारी मुक्ति से जुड़े अनेक प्रश्न, उन प्रश्नों से जुड़ी सामाजिक, पारिवारिक एवं आर्थिक बेबसी और उससे उत्पन्न स्त्री की मनः स्थिति का चित्रण अनेक स्तरों पर हुआ है। साठ के दशक और उसके संघर्ष का अधिकांश इतिहास जागरूक होती हुई स्त्री का अपना रचा हुआ इतिहास है। नगरों एवं महानगरों में शिक्षित एवं नवचेेतना युक्त स्त्रियों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया था जो समाज के विविध क्षेत्र में अपनी कार्य क्षमता प्रमाणित करने के लिए उत्सुक था।7
हिन्दी कथा लेखिकाओं ने अपने-अपने लेखन में नारी मन की अनेक समस्याओं को विषय बनाया है। अमृता प्रीतम के रसीदी टिकट, कृष्णा सोबती- मित्रों मरजानी, मन्नू भण्डारी-आपका बंटी, चित्रा मुद्गल -आबां एवं एक जमीन अपनी, ममता कालिया- बेघर, मृदुला गर्ग - कठ गुलाब, मैत्रेयी पुष्पा - चाक एवं अल्मा कबूतरी, प्रभा खेतान के छिन्नमस्ता, पद्मा सचदेव के अब न बनेगी देहरी, राजीसेठ का तत्सम, मेहरून्निसा परवेज का अकेला पलाश, शशि प्रभा शास्त्री की सीढ़ियां, कुसुम अंचल के अपनी-अपनी यात्रा, शैलेश मटियानी की बावन नदियों का संगम, उषा प्रियम्वदा के पचपन खम्बे, लाल दिवार, दीप्ति खण्डेलवाल के प्रतिध्वनियां आदि में नारी संघर्ष को देखा जा सकता है। डाॅ ज्योति किरण के शब्दों में - इस समाज में जब स्त्रियां अपनी समझ और काबलियत जाहिर करती हैं तब वह कुलच्छनी मानी जाती हैं, जब वह खुद विवेक से काम करती है तब मर्यादाहीन समझी जाती है। अपनी इच्छाओं, अरमानों के लिए जब वह आत्मविश्वास के साथ लड़ती हैं और गैर समझौतावादी बन जाती है, तब परिवार और समाज के लिए वह चुनौती बन जाती है।8
निष्कर्ष
महिला लेखिकाओं की लड़ाई डाॅ जयोति किरण की उपर्युक्त गद्यांश में देखी जा सकती है। अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि नारी आदिकाल से ही पीड़ित एवं शोषित रही है पुरूष प्रधान समाज मान मर्यादा के आड़ में सदा उसे दबाकर रखना चाहा। कभी घर का इज्जत कहकर तो कभी देवी कहकर चार दीवारों के अन्दर कैद ही रखा। इन्हीं परम्परागत पित्सत्तात्मक बेड़ियों को लांघने की लड़ाई है स्त्री - विमर्श।
संदर्भ सूची
1. आजकल: मार्च 2013 - पृष्ठ 20
2. वहीं - पृष्ठ 29
3. पंचशील शोध-समीक्षा - पृष्ठ 82
4. आजकल: मार्च 2013 - पृष्ठ 27
5. पंचशील शोध-समीक्षा - पृष्ठ 87
6. आजकल: मार्च 2013 - पृष्ठ 24
7. आजकल: मार्च 2011 - पृष्ठ 25
8. पंचशील शोध-समीक्षा - पृष्ठ 61
Received on 28.02.2014 Modified on 12.03.2014
Accepted on 24.03.2014 © A&V Publication all right reserved
Int. J. Ad. Social Sciences 2(1): Jan. Mar., 2014; Page 12-14