सर्वम् वेदमयं जगत्(विज्ञान के विषेश संदर्भ में)

 

डाॅ. कादम्बरी शर्मा

सहा. प्राध्यापक (संस्कृत), शास. संस्कृत महाविद्यालय, रायपुर

 

आज जब सम्पूर्ण संसार में गणित अ©र विज्ञान की पर्याप्त चर्चा है, प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति जब गणित अ©र विज्ञान का कुछ-न-कुछ परिचय अवश्य रखता है अ©र उसककायर्¨ हानि -लाभ का अनुभव करता है, तब उस दृश्टि से देखने पर विज्ञान की बातें भी सभी जगह कुछ-न-कुछ दिखाई देने लगी है । परन्तु, जिस समय संसार में कहीं विज्ञान क¨ बातें भी सभी जगह कुछ-न-कुछ दिखाई देने लगी है । परन्तु, जिस समय संसार में कहीं विज्ञान की चर्चा ही न ह¨, ¨ विज्ञान प्रकट करने वाले अथर्¨ पर ध्यान जाना अति  कठिन है ।

 

इस कथन से हमारा तात्पर्य यह नहींहै कि आधुनिक विज्ञान तथा गणित क¨ सिद्धान्त अ©र प्रक्रियाएँ हैं, वे ही वेद में ज्य¨ं-की-त्य¨ मिलती हैं अथवा उसे ही वेद¨ं से किसी तरह निकाल लेना चाहिए, चाहे वे वैदिक विज्ञान कअनुकूल ह¨, चाहे प्रतिकूल। नहीं। नहीं।। हमारा आशय यह है कि वर्तमान में गणित की चर्चा ने जब समस्त विश्व क¨ आल¨डित कर दिया तब सभी की दृश्टि गणितमय ह¨ गई है। इसलिए, सावधान अध्ययन से वर्तमान गणित की अनुकूलता रखनेवाले या प्रतिकूलता रखनेवाले सिद्धान्त दृश्टि में आ सकते है। उस समय इधर दृश्टि ही कैसे जाती ?

 

इस दिशा में प्रयास करनेवाल¨ लिए एक कठिनाई अ©र है कि वेद अनेक प्रकार कगम्भीर ज्ञान कभण्डार है। गणित अ©र विज्ञान की उच्च पुस्तक है, आरम्भिक पुस्तक नहीं । वैज्ञानिक तथा गणितीय सिद्धान्त¨ भी वेद¨ में सूत्ररुप में संकत-मात्र उपलब्ध ह¨ते हैं। उन वैज्ञानिक गणितीय सिद्धान्त¨ का कहीं क्रमबद्ध स्पश्टीकरण नहीं है। अनुश्ठान अथवा यज्ञ से सम्बन्ध रखने ककारण प्रसंगानुसार किसी सिद्धान्त का एक स्थान में विचार हुआ है, ¨ उससे सम्बद्ध दूसरे सिद्धान्त का बहुत दूर किसी अन्य स्थल पर दर्शन ह¨ता है। इसलिए, इस प्रक्रिया पर सहसा दृश्टि स्थिर नहीं ह¨ पाती । कल्पना कीजिए कि आज यदि साइंस की समस्त प्रारम्भिक पुस्तकंलुप्त ह¨ जायें अ©र कवल उच्च सिद्धान्त¨ की पुस्तक शेश रह जाएँ, ¨ साइंस की भी यही दशा ह¨ जाय बाहरी सहायता कअभाव में उसे क¨ई न समझ सक। तात्पर्य यह है कि वैदिक विज्ञान अ©र गणित करहस्य¨ं अ©र सिद्धान्त¨ ¨ अवगत करने कलिए बाहरी विज्ञान की आवश्यकता है । यह सुविधा भाश्यकार¨ ¨ प्रायः नहीं थी ।

 

वैदिक विज्ञान देवता-तत्व पर आश्रित है। आधुनिक विज्ञान तथा गणित का मूल आधार जैसे इलैक्ट्रिसिटी है, वैसे ही वैदिक विज्ञान का मूल आधार है प्राण-तत्व। प्राण-विद्या कद्वारा ही सम्पूर्ण विज्ञान वेद¨ं में बताया गया है। परिचय कलिए प्राण क¨ शक्ति कह सकते है, ¨ कि अत्यन्त सूक्ष्म है। इन्द्रिय¨ं से उसका ग्रहण नहीं ह¨ सकता। वही शक्ति जब स्थूल रुप में विकसित ह¨ती है, तब उसे रयि या मैटर (डंजजमत) कहते है। वैदिक सिद्धान्त में दृश्यमान जगत् का इसे ही मूल तत्व माना गया । इलैक्ट्रिसिटी प्राण-शक्ति की अपेक्षा बहुत स्थूल है। अस्तु प्राण कही ऋशि पितृ, देवता असुर, गन्धर्व आदि भेद है। इनमें सृश्टि कआदि में प्राण की ज¨ अवस्था ह¨ती है, उसे ऋशि प्राण कहा गया। शतपथ ब्राह्मण में इसका स्पश्टीकरण हैः-

असद्वा इदमग्र आसीत्। तदहुः कितदसदासीत् इति।

ऋशय¨ वा वतेऽग्रऽसदासीत्। तदाहुः कत ऋशय इति। प्राणा वा ऋशयः।

                       (शतपथ, काण्ड 6)

मनुस्मृति कइस एक ही श्ल¨क में वैदिक प्राण-सिद्धान्त का स्पश्टीकरण ह¨ गया है।

 

ऋशिभ्यः पितर¨ जाताः पितृभ्य¨ देवदानवाः।

देवेभ्यश्च जगत्सर्व चरं स्थाण्वनुपूर्वशः।।

 

संस्कृत वाड्मय में ज्ञान अ©र विज्ञान ये द¨¨ं शब्द भिन्न-भिन्न प्रकार कअथर्¨ में पृथक्-पृथक् रुप से प्रयुक्त देखे जाते हैं । आजकल प्रचलित भाशा में ज्ञान शब्द सामान्यरुप से जानने कअर्थ में अ©र विज्ञान शब्द एक निश्चित सिद्धांत कअर्थ में प्रयुक्त ह¨ता है। या, ¨ं कहिए कि अंग्रेजी, साइन्स शब्द का अनुवाद विज्ञान शब्द से किया जाता है। साइन्स कभिन्न-भिन्न भेद¨ं का व्यवहार यहाँ भी विज्ञान में भिन्न-भिन्न विशेशण लगाकर करते हैं, जैसे भ©तिक विज्ञान, रासायनिक विज्ञान, मन¨विज्ञान आदि-आदि अमरक¨शकर ने इनका अर्थ लिखा है कि:

 

¨क्षे धीज्र्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रय¨ः।

 

अर्थात् म¨क्ष कसंबंध में ज¨ं विचार किया जाय, उस विचार अ©र बुद्धि क¨ ज्ञान कहते है अ©र इसकअतिरिक्त शिल्प या शास्त्र कविशय की बुद्धि क¨ विज्ञान कहते है। इसकअनुसार शिल्प, अर्थात् कारीगरी अ©र धर्म, अर्थ तथा काम-संबंधी सब विचार¨ं क¨ विज्ञान कहना प्राप्त ह¨ता है। किन्तु, दार्शानिक भाशा में इनका अर्थ अ©र हीं प्रकार का किया जाता है। भगवद्गीता में द¨-तीन स्थान साथ-साथ इन द¨¨ं शब्द¨ं का प्रय¨ग मिलता है:

 

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्माम्यशेशत:।

यज्ज्ञात्वा नेह भूय¨ऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिश्यते ।। (अध्याय 7)

 

भगवान कहते हैं कि अर्जुन, अब मैं तुझे विज्ञान-सहित वह ज्ञान विशेश रुप से बता देता हूँ, जिसकजान लेने पर कुछ भी जानने की बात शेष नहीं रह जाती ।

 

इदं तु ते गुप्ततमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।

ज्ञान -विज्ञान सहितं यज्ज्ञात्वा म¨क्ष्यसेऽशुभात् ।।

 

अर्थात् अब मैं तुमक¨ अत्यन्त गुप्त विज्ञान-सहित ज्ञान का उपदेश करुंगा, क्य¨ंकि तुम सुपात्र ह¨। गुण¨ं में द¨श ख¨जने की तुम्हारी प्रवृत्ति नहीं है। इस ज्ञान-विज्ञान क¨ जानकर तुम श¨कम¨हादि अशुभ प्रसंग से विमुक्त ह¨ जाअ¨गे इत्यादि ।

इन स्थान¨ं में ज्ञान अ©र विज्ञान या विज्ञान--सहित ज्ञान कउपदेश का विशय बताया गया है। यहाँ शिल्प अ©र साइन्स का क¨ई प्रसंग नहीं है, आत्मा या ईश्वर कसंबंध की ही चर्चा है। इसलिए, विज्ञान शब्द का भी उसकअनुकूल ही अर्थ करना पड़ेगा।

 

श्री शंकराचार्य आदि व्याख्याकार¨ंने यहाँ इन शब्द¨ं का यह अर्थ बताया है कि शब्द-मात्र कसुनने से ज¨ बुद्धि ह¨ती है, उसे ज्ञान अ©र मनन एवं एकाग्रता से चित्त लगाने पर ज¨ स्पश्ट अनुभव ह¨ता है, उसे विज्ञान कहा गया है। य¨, दार्शनिक भाशा अ©र प्रचलित भाशा में इन शब्द¨ं कभिन्न-भिन्न अर्थ दिखते है। तब क्या वे शब्द मूल से ही अनेकार्थक रहे ? या इनका क¨ई नियत अर्थ पहले रहा अ©र धीरे-धीरे व्यवहार में भिन्न-भिन्न अर्थ आते गये, यह विचार उठता है। इसी का संक्षिप्त विवरण यहाँ किया जायेगा।

 

संस्कृत-व्याकरण की दृश्टि से “वि“ यह उपसर्ग विशेष, विविध अ©र विरुद्ध अथर्¨ं में भिन्न-भिन्न स्थान¨ं में प्रयुक्त हुआ है। इस दृश्टि से देखने पर प्रचलित भाशा अ©र दार्शनिक भाशा में विज्ञान, शब्द में विविध या विशेष अर्थ माना गया है अ©, यही विशेष ज्ञान सुदृढ़ ज्ञान या सुनिश्चित सिद्धांत प्रचलित भाशा में “वि“ का अर्थ माना गया है। यही विस्पश्ट ज्ञान दार्शनिक भाशा में भी माना गया, किन्तु साहित्यिक भाशा में विविध प्रकार का ज्ञान भासित ह¨ता है, क्य¨ंकि शिल्प आदि में विविध प्रकार का ज्ञान ही विवक्षित है।

 

श्रीमद्भगवतगीता कविज्ञान-भाश्य में अ©र वैदिक साहित्य की आल¨चना में गुरप्रवर श्रीविद्यावाचस्पतिजी ने इन शब्द¨ं का एक ऐसा अर्थ लिखा है, ¨ तीन¨ं भाशाअ¨ं में अनुगत ह¨ जाता है। उनका मन्तव्य है कि भिन्न-भिन्न प्रकार कअनन्त पदाथर्¨ में एक तत्व क¨ अनुगत देखना ज्ञान कह लाता है अ©र एक ही तत्व से अनन्त पदाथर्¨ का विस्तार हुआ, इस प्रक्रिया से उसी बात क¨ देखने का नाम विज्ञान है अनेकता में एकता का दर्शन ज्ञान अ©र एकता क¨ अनेकता करुप में विभक्त देखना विज्ञान है, यही तात्पर्य हुआ। अब देखना है कि इस प्रकार कअर्थ करने का आधार क्या है अ©र यह अर्थ सब भाशाअ¨ं में किस प्रकार समन्वित ह¨ जाता है। वैसे त¨ ज्ञान, शब्द सामान्य रुप से जानने-मात्र का ब¨धक है अ©र विज्ञान आदि उसी कविशेष हैं, किन्तु जहाँ ज्ञान, विज्ञान, अज्ञान आदि की श्रेणी में ज्ञान शब्द आप वहाँ उसक¨ भी पृथकता दिखाने कलिए विशेष अर्थ ही मानना पड़ेगा। इस प्रकार कउक्त विशेष अर्थ का आधार भगवद्गीता में ही स्पश्ट हैः

 

सर्वभूतेशु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।

अविभक्तं विभक्तेशु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्।।

 

अर्थात, भिन्न-भिन्न प्रकार कविभक्त, सब भूत¨ं में, जिस प्रक्रिया में, एक ही अविनाशी तत्व क¨ देखा जाय, वही सत्तवगुण का कार्य है अ©र उसे ज्ञान कहते है।

 

यही बुद्धि म¨क्ष कउपय¨गी मानी गई है, इसलिए अमरक¨श का “¨क्षेधीज्र्ञानम“ लिखना भी सुसंगत, ¨ गया। अब विज्ञान शब्द की विवेचना बाकी रही। अन्यत्र पुराण¨ं में ज¨ इसकी विवेचना मिलती है, उसमें विज्ञान शब्द कउक्त अर्थ का भी आधार मिल जाता है। श्रमद्भागवत् कएकादश स्कन्ध कउन्नीसवें अध्याय कनिम्नांकित श्ल¨¨ं:-

 

नवैकादश पज्च त्रीन् भावान् भूतेशु येन वै।

ईक्षेताथैकमप्येशु तज्ज्ञानं मम निश्चितम ।। (11-19-14)

एतदेवहि विज्ञानं न तथैकन येन यत्।

 

        स्थित्युपत्तिलयान पश्येद् भावानां त्रिगुणात्मनाम् ।। (11-19-14)

 

इसका अर्थ है, ऋशि-प्राण से पितृ-प्राण की सृश्टि हुई, पितृ-प्राण से देव तथा असुर -प्राण बने, ©र उन्हीं से इस जड़-चेतनात्मक जगत की रचना हुई। कहीं-कहीं देवमानवाः भी पाठ है। देव शब्द से वहाँ असुर¨ं का भी ग्रहण ह¨ जाता है अ©र उससे उत्पन्न मानव (मनु)-प्राण भी वहाँ कह दिया गया है। इन प्राण¨ं कअवान्तर भेद¨ं की गणना इस प्रकार की गई है - ऋशि-7, पितृ-8, देव-33, असुर-99, पशु -5 ©र गन्धर्व -27। इन उपभेद¨ं कभी अनेक भेद ह¨ जाते है। इन्हें ही वैदिक विज्ञान कतत्व ;म्समउमदजेद्ध समझना चाहिए । इन्हीं कआधार पर वेद¨ं में विज्ञान का विस्तार देखा जा सकता है।

 

अवश्य ही विभिन्न ऋशिय¨ं विभिन्न देवताअ¨ं अ©र पितर आदि में परस्पर सम्बन्ध है अ©र वही वैदिक विज्ञान का निगूढ़ रहस्यांग है।

 

मानसिक उन्नति तभी कही जाती है, जब यम (अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, ¨री न करना), नियम (श©, सन्त¨श तप, ईश्वर-भक्ति) का पूर्ण परिपालन ह¨ता ह¨, राग-द्वेश अ©र उनकी मूलभूत ममता संसार में बहुत कम ह¨, मनुश्य¨ं की आवश्यकताएँ बहुत अल्प ह¨, ©र एकता का भाव बहुत बढ़ा हुआ ह¨। आधिदैविक उन्नति भी देवता-तत्त्व की विचारधारा कअधिक प्रवृत्त ह¨ने पर कही जा सकती है। उसका प्रभाव भी मन पर ही पड़ता है। मन की उस स्थिति में यत्नविष्ेश से अनेक प्रकार की मानसिक सिद्धियाँ प्राप्त ह¨ती है। मन की उस स्थिति में यत्नविशेष से अनेक प्रकार की मानसिक सिद्धियां प्राप्त ह¨ती हैं। संकल्प  की पूर्णता, पूर्ण आयु आदि उस दिशा में एक स्वाभाविक बात है, यह य¨ग-दर्शन का सिद्धान्त है वैदिक संस्कृति हमे यही सिखाती है ।

 

एतद्देश प्रसूतस्य सकाशात् अग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।  मनुस्मृति

 

इस कथन का अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण विश्व में निवास करने वाले ल¨ग इस भारत देश में उत्पन्न हुए अग्रजन्माअ¨ं से शिक्षा ग्रहण करते हुए न कवल स्वयं क¨ अपितु सम्पूर्ण विश्व क¨ संस्कृतिक रुप से समृद्ध बनाएं ।

 

संदर्भ

1.      संस्कृत साहित्य का इतिहास - पं. बलदेव उपाध्याय

2.      बाणभट्ट क¨श - डाॅ. राम निहाल शर्मा

3.      वैदिक विज्ञान अ©र भारतीय संस्कृति - डाॅ. गिरिधर शर्मा

4.      संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास -डाॅ. कादम्बरी शर्मा

5.      संस्कृत सुकवि समीक्ष

6.      सुभाशित रत्न भाण्डागार

 

 

Received on 13.12.2013       Modified on 17.12.2013

Accepted on 30.12.2013      © RJPT All right reserved

Int. J. Ad. Social Sciences 1(2): Oct. –Dec. 2013; Page 78-80